प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla@newindianexpress.com
तीसरी सदी में डियोक्लेशियन ने रोमन साम्राज्य को चार क्षेत्रों में विभाजित कर दिया था. सदी भर की स्थिरता के बाद बंटवारे, महत्वाकांक्षा और लालच के चलते इस व्यवस्था का पतन हो गया. कभी भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभ अपनी विश्वसनीयता के लिए बाह्य खतरों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करते थे, पर आज हर संस्थान आत्मघाती रास्ते पर है.
कुछ दिन पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाइएस जगन मोहन रेड्डी ने सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस एनवी रमन्ना की ईमानदारी पर सवाल उठाते हुए प्रधान न्यायाधीश जस्टिस बोबड़े को पत्र लिख कर सीजेआइ से न्यायिक निष्पक्षता सुनिश्चित करने का अनुरोध किया है. आंध्र उच्च न्यायालय ने उन राजनेताओं के खिलाफ सीबीआइ जांच का निर्देश देते हुए कहा कि संवैधानिक तौर पर अहम पदों पर बैठे लोगों ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचाया है. अटॉर्नी जनरल न्यायिक फैसलों को प्रभावित करनेवाले मीडिया ट्रायल को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं.
चरित्रहनन राष्ट्रीय शगल बन गया है. टीवी चैनल आपसी गलाकाट में लगे हैं. बॉलीवुड अभिनेताओं पर मादक पदार्थों के तस्करी का आरोप लगा कर मीडिया लोगों को आकर्षित करना चाहता है. एंकरों ने उन्हें राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी धड़ों में बांट दिया है. अब प्रमुख फिल्मी संस्थाओं और कलाकारों ने अदालत से टीवी चैनलों और एंकरों पर लगाम लगाने की अपील की है.
कुल मिलाकर संस्थानों ने निडरता के साथ अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा की है. आपातकाल के दौरान जब इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय की स्वायत्तता को नष्ट करने की कोशिश की, तो विरोध में तीन जजों ने इस्तीफा दे दिया. जब कुछ साल बाद राजीव गांधी की सरकार ने कानून बना कर मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश की, तब मीडिया संस्थानों के मालिकों और संपादकों ने एकजुट विरोध किया और राजीव गांधी को पीछे हटना पड़ा. पचास के दशक में जब प्रेस की स्वतंत्रता खतरे में आयी, तो उनके दामाद फिरोज गांधी ने प्रेस की आजादी की पुरजोर वकालत की थी.
जब प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों ने प्रधानमंत्री के साथ विदेश जानेवाले पत्रकारों की सूची तैयार की, तो अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें अनुचित दखल के लिए डांटा था. जब मनमोहन सिंह ने कुछ चुनिंदा पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत की, तो किसी ने इसका विरोध नहीं किया. साल 2014 में नरेंद्र मोदी ने अपने जहाज में मुफ्त में पत्रकारों को विदेश दौरे पर ले जाने के विशेषाधिकार को खत्म कर दिया.
बड़ी कमाई के पद हासिल करने के लिए पत्रकारों के लिए शक्तिशाली लोगों तक पहुंच ही योग्यता है. इस तरह से अचानक कोई मालिक मालदार बन जाता है. कंटेंट की जगह कनेक्टिविटी ने ले ली है. बड़े नेता, मुख्यमंत्री, मंत्री और नौकरशाह खुद ही सवाल चुनते हैं और उन्हें पूछनेवाले पत्रकारों को भी. नेताओं द्वारा ट्विटर पर फॉलो किये जाने को दिखाकर पत्रकार अपनी पहुंच को इंगित करते हैं.
न्यायपालिका की दशा भी ऐसी ही है. नियुक्ति के लिए न्यायाधीश बड़े नेताओं के साथ और केंद्रीय कानून मंत्री के साथ तालमेल बिठाते हैं. फिर भी कुछ ऐसी रुकावटें हैं, जो बड़े पैमाने पर ‘अवांछित’ उम्मीदवारों कोे रोकती हैं. बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्ति और स्थानांतरण का पूर्ण अधिकार अपने हाथ में ले लिया. तब से इसकी प्रतिष्ठा में गिरावट आयी है और भाई-भतीजावाद तथा राजनीतिक प्रभाव का आरोप लगा है.
दुर्भाग्य से जजों ने ही एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है. यह तब शुरू हुआ, जब चार जजों ने प्रेस वार्ता कर न्यायपालिका की कार्यशैली पर सवाल खड़ा कर दिया. विडंबना है कि उनमें से कुछ ने बाद में उसी मॉडल को अपनाया. इससे पहले इतनी बड़ी संख्या में न्यायिक फैसलों पर सवाल नहीं उठे थे.
सेवानिवृत्ति के बाद लालच ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर कर दिया है. इसकी परंपरा कांग्रेस ने एक पूर्व प्रधान न्यायाधीश को राज्यसभा भेजकर डाली थी. इसके बाद पद हासिल करने की होड़ शुरू हो गयी. न्यायपालिका ढेर सारे ट्रिब्यूनलों की स्थापना के गलत असर का आकलन नहीं कर सकी है.
मीडिया और न्यायपालिका में ही गिरावट नहीं आयी है, बल्कि चुनाव आयोग, मानवाधिकार आयोग, केंद्रीय सूचना आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, बाल संरक्षण पैनल, अल्पसंख्यक आयोग, सांस्कृतिक व शैक्षणिक निकाय और खेल संस्थाएं भी गिरावट की ओर उन्मुख हैं. वे सामूहिकता के बजाय व्यक्तिगत के लिए लड़ते हैं.
सांस्कृतिक मंच जाति और संप्रदायवाद को बढ़ावा दे रहे हैं. भारत की विविधता के संरक्षण के लिए गठित इन संस्थानों ने हद दर्जे का तुष्टिकरण करना शुरू कर दिया. यूजीसी और राज्य शैक्षणिक बोर्ड ने देश की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को नुकसान पहुंचाया है.
चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए है. वर्षों से इसकी प्रतिष्ठा धूमिल होती गयी. टीएन शेषन द्वारा प्रभावशाली संवैधानिक शक्तियों के उपयोग के बाद चुनाव आयोग को पदावनत किया गया. कांग्रेस ने इसे तीन सदस्यीय पैनल में बदल दिया और इसका असर भी झेला.
बाद में पार्टी ने सरकार में राजनीतिक पदों पर चुनाव आयुक्तों को पुरस्कृत करना शुरू किया. सूचना आयोगों का गठन पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए किया गया है, लेकिन राजनीतिक तौर पर अधिकारियों के चयन से पारदर्शिता प्रभावित हुई है. सभी पदों पर नियुक्ति सेवानिवृत्त सिविल सेवकों, पत्रकारों और मत निर्माताओं की होती है.
संस्थागत ह्रास का दोष उन लोगों पर है, जिनके ऊपर नेतृत्व का जिम्मा है. कुछ लोगों का मानना है कि संस्थाओं के आपदा पूर्ण पतन के लिए जिम्मेदार मौजूदा नेतृत्व है. इसमें संदेह नहीं कि हर नेता बांटो और राज करो की नीति से अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता है.
अगर अज्ञात शैतान का डर रीढ़विहीन खुशामदों को झुकाता है, तो यह समस्या उन रेंगनेवालों की है. भारतीय संस्थागत ढांचे की विश्वसनीयता तभी बहाल की जा सकती है, जब सेवानिवृत्त सिविल अधिकारी, जज और पत्रकार सरकारी पदों और समर्थन से मुक्त हों. दुर्भाग्य से, भारत उस चरण से गुजर रहा है, जहां व्यक्तिगत लाभ के लिए संस्थाओं को नुकसान पहुंचाया जा रहा है.
posted by : sameer oraon