मौजूदा दौर में भारत की पहचान ऐसे समाज की है, जहां सामाजिक और आर्थिक फैसलों में पुरुषों की ही बात मानी जाती रही है. लैंगिक असंतुलन भी इसी सोच का नतीजा माना जाता है. पर अब स्थितियां बदल रही हैं. चुनाव की घोषणा के वक्त चुनाव आयोग ने एक ऐसा आंकड़ा दिया था, जो बदलते भारतीय समाज की कहानी कह रहा है. आयोग के मुताबिक, देश के बारह राज्य ऐसे हैं, जहां महिला वोटरों की संख्या पुरुष मतदाताओं से ज्यादा है. पिछले कुछ चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और स्वायत्त फैसले लेने की प्रवृत्ति का नतीजा नजर आने लगा है. राजनीति शब्द सामाजिक व्यवहार में भी ज्यादातर नकारात्मक अर्थ के साथ ही ग्रहण किया जाता है.
इस वजह से राजनीतिक दल को लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अनिवार्य बुराई मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है. पर एक तथ्य को स्वीकारना पड़ेगा कि दलों के शीर्ष नेतृत्व की सोच और उनका नजरिया कहीं ज्यादा गहरा और दूरंदेशी होता है. इसे दूरंदेशी नजरिया ही कहेंगे कि तीस नवंबर को विकसित भारत संकल्प यात्रा की शुरुआत करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के पारंपरिक सामाजिक जातीय खांचे की नये सिरे से पहचान करने की घोषणा की. पारंपरिक चतुर्वर्णीय व्यवस्था की बजाय उन्होंने समाज में चार जातियों के रूप में महिला, युवा, गरीब और किसान की पहचान की. चुनावी प्रक्रिया का गहरा विश्लेषण करें, तो ये चारों वर्ग मतदान के रुख और मुद्दों को प्रभावित करने का ठोस आधार रखते हैं.
हर चुनाव में राजनीतिक दल गरीब, मजदूर और किसान को ही मुद्दा बनाते रहे हैं, लेकिन तकनीक और संचार क्रांति के भारत में महिलाएं और नौजवान चुनावी उपभोक्ता और ग्राहक दोनों के रूप में उभरे हैं. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि के पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा की आशातीत सफलता की वजह महिलाएं मानी गयीं. जानकार कल्याण योजनाओं के जरिये उपजे नये वर्ग में महिलाओं की भारी संख्या को सम्मिलित मानते हैं. ऐसी सोच विकसित हुई है कि महिलाओं की पहली पसंद भाजपा बनी है. बाकी दलों का नंबर उसके बाद आता है. लेकिन पुरुषों की तुलना में महिला वोटरों की ज्यादा संख्या और बेहतर लिंग अनुपात वाले इलाकों के नतीजों का विश्लेषण करेंगे, तो पायेंगे कि भाजपा भले ही आगे हो, लेकिन इतनी भी आगे नहीं है कि वह बाकी दलों की तुलना में वर्चस्व स्थापित कर पाये.
चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, तुलनात्मक रूप से ज्यादा महिला वोटर और बेहतर लिंग समानता वाले इलाकों से 143 लोकसभा सीटें आती हैं. अगर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के उदाहरण का सहारा लें, तो इन सीटों से सबसे ज्यादा भाजपा के सांसद चुनकर आने चाहिए थे, लेकिन उनकी संख्या सिर्फ 40 है. इन सीटों पर 29 सांसदों के साथ कांग्रेस दूसरे नंबर पर है. तीसरे नंबर पर 17 सीटों के साथ डीएमके है, तो चौथे नंबर पर वाईएसआर कांग्रेस है, जिसके दस सांसद हैं. आठ सांसदों के साथ जदयू इस सूची में पांचवें स्थान पर है. बाकी 39 सीटों पर अन्य दलों के सांसद चुने गये हैं.
महिलाएं अब पहले की तरह अपने घर के पुरुषों की पसंद वाले दलों और प्रत्याशियों को वोट नहीं दे रहीं, बल्कि अपनी पसंद वाले प्रत्याशी और दल को वोट दे रही हैं. उल्लेखनीय है कि महिला प्रधान ये ज्यादातर सीटें उत्तर-पूर्व, पूर्व और दक्षिण भारत के राज्यों में हैं. इन राज्यों में ज्यादातर चुनाव पहले से तीसरे दौर में ही खत्म हो जाना है. इसलिए सभी दलों ने महिला वोटरों को लुभाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. पश्चिम बंगाल में संदेशखाली का मुद्दा उठाना हो या दक्षिण भारत की महिलाओं के सांस्कृतिक सम्मान बढ़ाने या उत्तर-पूर्वी राज्यों में बेहतर शासन देने की बात हो, भाजपा बाकी दलों से आगे आने की कोशिश कर रही है. प्रधानमंत्री तो अपनी हर सभा में महिलाओं को प्रभावित करने वाले कुछ न कुछ वादे करते ही हैं. एक खास शैली में माताओं-बहनों शब्द का इस्तेमाल कर एक तरह से महिला वोटरों को ही लुभा रहे हैं. राहुल गांधी भी महिला सम्मान की बात जगह-जगह उठा रहे हैं.
उत्तर-पूर्व में महिला प्रधान 25 सीटें हैं, जिनमें पिछले चुनाव में बीजेपी को 21 सीटें मिली थीं. पिछली बार उसे चुनौती शरद पवार की एनसीपी और ममता बनर्जी की टीएमसी ने दी थी. चूंकि पवार अपने घरेलू कलह के चलते राजनीतिक चुनौती का सामना कर रहे हैं और ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल पर फोकस कर रखा है, इसलिए इस बार ये दोनों दल कुछ करते नजर नहीं आ रहे हैं. बीजेपी के लिए मणिपुर की हिंसा जरूर असहज स्थिति पैदा कर रही है. कांग्रेस रह-रहकर मणिपुर का सवाल उठा रही है. मणिपुर में बेशक संघर्ष लंबा चला, लेकिन यह भी सच है कि वहां ज्यादातर आंदोलन महिलाओं के ही हाथ में रहता है. हर सीट पर दूसरे भी कारक किसी खास प्रत्याशी के पक्ष या विपक्ष में मतदान को प्रभावित करते हैं. लेकिन यह भी सच है कि महिलाएं अब उसी तरह नया वोट बैंक बन रही हैं, जैसे उत्तर भारत में जातीय और धार्मिक समूह वोट बैंक बनते रहे हैं. इसीलिए अब महिलाओं को साधने की कोशिश में राजनीतिक दल भी जुट रहे हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)