IBC LAW: इंंसोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आइबीसी) के कानूनी रूप लेने से पहले दिवालियापन से निपटने के लिए लगभग एक दर्जन कानून थे. उनमें से कुछ तो सौ साल से भी अधिक पुराने थे. मोदी सरकार ने इन कानूनों के स्थान पर आईबीसी के रूप में जो पहल की, उसे एक बड़ा आर्थिक सुधार माना गया.
आइबीसी के अनुसार, जब कोई देनदार दिवालिया हो जाता है, तो उसकी संपत्ति को लेनदार आसानी से अपने कब्जे में ले सकते हैं. यदि लेनदारों की समिति के 75 प्रतिशत या उससे अधिक सदस्य सहमत होते हैं, तो ऐसी कार्रवाई के लिए आवेदन स्वीकार करने की तिथि से (एनसीएलटी की मंजूरी के अधीन 90 दिनों की छूट अवधि के साथ) 180 दिनों में कार्रवाई की जा सकती है. यदि तब भी ऋण का भुगतान नहीं होता, तो व्यक्ति/फर्म को दिवालिया घोषित कर दिया जायेगा.
आइबीसी के पीछे यह मंशा थी कि इससे ऋण की वसूली में होने वाली देरी और उससे जुड़े नुकसान स्वत: खत्म हो जायेंगे. कारोबारी सुगमता को बढ़ावा देने के लिहाज से वैश्विक संस्थाएं भी आइबीसी को सराहती रही हैं. विश्व बैंक की ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस’ रैंकिंग में भारत के ऊपर उठने में आइबीसी जैसे सुधार की अहम भूमिका मानी गयी, हालांकि जमीनी स्तर पर अनुभव के बीच कुछ अंतर जरूर है.
आइबीसी के तहत तनावग्रस्त संपत्तियों के समाधान का प्रारंभिक बिंदु कॉरपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (सीआइआरपी) है, जो वित्तीय लेनदारों, परिचालन लेनदारों या यहां तक कि कॉरपोरेट द्वारा स्वयं सीआइआरपी शुरू करने के लिए एक वसूली तंत्र है. भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, आइबीसी के बाद से जनवरी 2024 तक 7,058 कॉरपोरेट देनदारों को सीआइआरपी में लाया गया है, जिनमें से 5,057 मामले बंद कर दिये गये और 2,001 समाधान के विभिन्न चरणों में हैं. जो मामले बंद हो गये हैं, उनमें से करीब 16 प्रतिशत में सफल समाधान योजनाएं सामने आयी हैं.
वहीं, 19 प्रतिशत को आइबीसी की धारा 12ए के तहत वापस लिया गया है, जहां बड़े पैमाने पर देनदार लेनदारों के साथ पूर्ण या आंशिक निपटान के लिए सहमत हुए, जबकि 21 प्रतिशत अपील या समीक्षा पर बंद किये गये और 44 प्रतिशत मामलों में परिसमापन आदेश पारित किये गये. विभिन्न चरणों में अटके मामलों में देरी चिंता के रूप में उभरी है. वर्ष 2020-21 और 2021-22 के दौरान मामले को स्वीकार करने में लगने वाला औसत समय क्रमशः 468 दिन और 650 दिन रहा. यह अपेक्षित समय से कहीं अधिक है.
देरी का एक कारण यह है कि अक्सर अदालतें लेन-देन के वाणिज्यिक पहलुओं में उलझ जाती हैं, जो कानून से संबंधित बिंदुओं से नहीं, बल्कि प्राप्त मूल्य आदि के संदर्भ में लेनदारों से संबंधित होते हैं, जो समाधान योजना को मंजूरी देने का फैसला करने वाले लेनदारों की व्यावसायिक बुद्धि पर सवाल उठाने जैसा है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि लेनदारों की समिति की व्यावसायिक समझ पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. एक बार जब समिति अंतिम निर्णय ले लेती है कि समाधान योजना को मंजूरी देने या न देने को अदालतों द्वारा समीक्षा का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए, विशेषकर उस स्थिति में जब किसी कानूनी प्रावधान का उल्लंघन न हो. पर वास्तविकता अलग है.
वीडियोकॉन मामले में समाधान योजना को जून 2021 में एनसीएलटी ने अनुमोदित किया, मगर यह सुप्रीम कोर्ट में अभी भी लंबित है. एसकेएस पावर जेनेरेशन मामले में लेनदारों की समिति ने जून 2023 में पूर्ण सहमति के साथ सारदा एनर्जी एंड मिनरल्स की योजना को मंजूरी दी, फिर भी यह मामला अनसुलझा है. ऐसी देरी से परिसंपत्तियों के मूल्य में कमी आने की आशंका होती है. इससे लेनदारों को नुकसान होने के साथ-साथ भविष्य में संभावित खरीदारों को लुभाना भी मुश्किल हो जाता है और अंतत: आइबीसी का उद्देश्य विफल हो जायेगा.
वित्तीय मामलों की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में कॉरपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया में देरी के कुछ चरणों की पहचान की गयी है. इसमें पहला चरण है प्रक्रिया शुरू करने के लिए आवेदन की स्वीकृति और दूसरा चरण है एनसीएलटी द्वारा समाधान योजना को मंजूरी. प्रक्रिया आरंभ करने के लिए आवेदन स्वीकार करने में कभी-कभी हितधारकों के बीच असहमति से भी देरी होती है. कई बार लेनदार और अन्य हितधारक समाधान योजना पर सहमत नहीं हो पाते हैं, जिससे प्रक्रिया में देरी हो सकती है.
लेनदार, देनदार और संभावित खरीदार के बीच विवाद एवं अदालती लड़ाई से और भी देरी हो सकती है. दिवाला और दिवालियापन के मामलों में समाधान खोजने में आने वाली प्रमुख समस्याएं कर्मचारियों की कमी से लेकर प्रक्रियाओं और उनसे संबंधित कानून के बोझिल बिंदुओं की प्रणालीगत अक्षमताओं से संबंधित हैं, जिनका दुरुपयोग भ्रष्ट और विलफुल डिफॉल्टर मामलों को लटकाने के लिए करते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने आइबीसी की वैधता से जुड़े कई बुनियादी सवालों का समाधान कर दिया है, लेकिन कुछ मुद्दे सामने आते ही रहते हैं. ऐसे किसी भी महत्वपूर्ण कानून पर लगातार समझ बनाते हुए उसमें आवश्यक बदलावों की जरूरत होती है, ताकि अदालतों में अनावश्यक देरी से बचा जा सके.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)