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उपभोक्ता व्यय में निरंतर वृद्धि आवश्यक

अगर मध्यम अवधि में वास्तविक जीडीपी को सात प्रतिशत की दर से बढ़ाते रहना है, तो उपभोक्ता व्यय में छह से सात प्रतिशत बढ़ोतरी करनी होगी. उपभोक्ता व्यय में निरंतर बढ़ोतरी के लिए रोजगार, पारिश्रमिक और खुदरा कर्ज में लगातार वृद्धि आवश्यक है.

सरकार ने 30 नवंबर को वर्तमान वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) के आर्थिक आंकड़े जारी किये हैं. इन्हें राष्ट्रीय आर्थिक उत्पादन का तात्कालिक आकलन कहा जाता है. इनमें दो प्रकार के आंकड़े होते हैं- योजित सकल मूल्य (जीवीए) और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी). जीवीए में हर व्यक्तिगत उत्पादक या क्षेत्र या उद्योग द्वारा अर्थव्यवस्था में जोड़े गये मूल्य को मापा जाता है. इसमें हर तरह के उत्पादकों, चाहे वे किसान हों, छोटे उद्यमी हों या बड़ी कंपनियां हों, के मूल्य का मापन होता है. इस प्रकार, जीवीए उस मूल्य को मापता है, जो लागत (इनपुट) को उत्पाद (आउटपुट) में बदलने पर हासिल होता है. जीडीपी निर्धारित समयावधि में उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य है. निर्धारित समय तिमाही या वार्षिक हो सकता है. इसे तीन अलग-अलग तरीकों से मापा जाता है- या तो सारे उत्पादन के मूल्य के रूप में, या सारे खर्च के रूप में या सारी आय के रूप में. इन तीनों का परिणाम एक ही होता है क्योंकि बेची गयी वस्तु का कुल मूल्य उसके उत्पादक की आय भी होती है. जीवीए और जीडीपी में एकमात्र अंतर चुकाये गये कर या प्राप्त किये गये अनुदान का होता है. आम तौर पर जीडीपी हमेशा जीवीए से अधिक होता है क्योंकि सरकार द्वारा वसूला गया कर दिये गये अनुदान से अधिक होता है.

दूसरी तिमाही में जीडीपी 72 लाख करोड़ रुपये रही, जबकि पिछले साल इसी अवधि में यह 66 लाख करोड़ रुपये थी. जीवीए दूसरी तिमाही में 64 लाख करोड़ रुपये रहा, जो पिछले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 59 लाख करोड़ रुपये था. इस हिसाब से वर्तमान मूल्यों पर वार्षिक जीडीपी 300 लाख करोड़ रुपये हो सकती है, जो 2012 की तुलना में तीन गुना, यानी 200 प्रतिशत अधिक होगी. जीडीपी और जीवीए के आंकड़ों का परीक्षण बढ़ती कीमतों के असर को अलग रखकर करने की जरूरत है. चूंकि बीते चार वर्षों में मुद्रास्फीति औसतन पांच फीसदी के करीब रही है, तो वर्तमान मूल्यों पर जीडीपी या जीवीए की वृद्धि की ‘असली’ तस्वीर नहीं हैं क्योंकि इसमें मुद्रास्फीति भी एक तत्व है. अगर मुद्रास्फीति के असर को हटा दें, तो दूसरी तिमाही में जीडीपी की वास्तविक वृद्धि 7.6 प्रतिशत रही, जो बीते साल के 6.2 प्रतिशत से अधिक है. इस साल की दोनों तिमाहियों (अप्रैल से सितंबर) को साथ देखें, तो जीडीपी की वास्तविक बढ़ोतरी 7.7 प्रतिशत रही है. इस हिसाब से वार्षिक जीडीपी निश्चित रूप से सात प्रतिशत से अधिक रहेगी और भारत सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में बना रहेगा. युद्ध, मुद्रास्फीति, आपूर्ति शृंखला, भू-राजनीतिक तनावों और अनिश्चितता से पैदा संकटों में यह आर्थिक वृद्धि शानदार उपलब्धि है.

अब हमें तीन प्रश्नों का परीक्षण करना चाहिए. पहला, इस वृद्धि का कारक क्या है? दूसरा, क्या यह मध्यम या दीर्घ अवधि में बरकरार रह सकेगी? तीसरा, विभिन्न वर्गों के लोगों को जीडीपी वृद्धि से क्या फायदे हो रहे हैं? पहले प्रश्न का उत्तर है कि उपभोक्ता व्यय की तुलना में सरकारी और निवेश व्यय में अधिक तेजी आयी है. सरकारी खर्च की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत और निवेश व्यय (जिसे पूंजी निर्माण भी कहा जाता है) की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत है. शेष उपभोक्ता व्यय है, जिसकी सबसे बड़ी हिस्सेदारी है. अभी निर्यात का हिस्सा मुश्किल एक या डेढ़ फीसदी है. इस वर्ष जुलाई से सितंबर के बीच सरकारी खर्च में पिछले साल से 19 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. पिछले साल की दूसरी तिमाही में यह खर्च 5.9 लाख करोड़ रुपये था, जो इस बार सात लाख करोड़ रुपये रहा. इसी तरह, निवेश व्यय में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई. स्पष्ट रूप से ये दो कारक उल्लेखनीय वृद्धि को गति दे रहे हैं. लेकिन उपभोक्ता व्यय में इस तिमाही में मात्र आठ प्रतिशत बढ़ोतरी हुई. ये सब आंकड़े सामान्य हैं तथा इन्हें मुद्रास्फीति और महंगाई के हिसाब से समायोजित नहीं किया गया है. अगर आप इनका हिसाब लगायें, तो उपभोक्ता व्यय में बढ़त मात्र तीन प्रतिशत रह जायेगी, जबकि जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है. अगर मध्यम अवधि में वास्तविक जीडीपी को सात प्रतिशत की दर से बढ़ाते रहना है, तो उपभोक्ता व्यय में छह से सात प्रतिशत बढ़ोतरी करनी होगी. उपभोक्ता व्यय में निरंतर बढ़ोतरी के लिए रोजगार, पारिश्रमिक और खुदरा कर्ज में लगातार वृद्धि आवश्यक है. खुदरा कर्ज में आवास ऋण भी शामिल है, जो वृद्धि में अहम योगदान दे सकता है. बहुत अधिक मुद्रास्फीति उपभोक्ताओं की भावना पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है क्योंकि महंगाई में लोग मनचाही चीजों पर खर्च में कटौती कर देते हैं.

निवेश व्यय का बढ़ना अच्छा संकेत है. इसमें निजी पूंजी खर्च भी शामिल होना चाहिए और इसे केवल इंफ्रास्ट्रक्चर पर हो रहे सरकारी खर्च पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. सरकार द्वारा वित्त उपलब्धता में घाटे की स्थिति एक बाधा है. इसे भी नियंत्रित करना जरूरी है. छमाही की अवधि में जीडीपी (वर्तमान मूल्यों पर) में सरकारी हिस्सेदारी में नौ प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो उपभोक्ता व्यय में वृद्धि से थोड़ा ही अधिक है. फिर भी 2024 के चुनाव को देखते हुए सरकार का पूंजी व्यय बढ़ने की संभावना है. उससे भी जीडीपी वृद्धि को अतिरिक्त मदद मिलेगी. मध्यम से दीर्घ अवधि में सात-साढ़े सात फीसदी वृद्धि कायम रहेगी या नहीं, यह उपभोक्ता और निवेश व्यय की निरंतर वृद्धि पर निर्भर करेगा. भारत बड़े निवेश को आकर्षित कर रहा है और कई क्षेत्रों में वृद्धि को लेकर बहुत सकारात्मक आकलन है. इसलिए निरंतर वृद्धि के लिए केवल मूल्यों और नीतियों में स्थिरता तथा वित्तीय विवेक की आवश्यकता है. जहां तक आर्थिक वृद्धि के समाज के विभिन्न वर्गों के लाभ की बात है, तो इसके विश्लेषण लिए हमें सघन सर्वेक्षणों के अधिक आंकड़ों की जरूरत होगी. श्रम बल सर्वेक्षण इंगित कर रहा है कि रोजगार और श्रम भागीदारी (पुरुष एवं महिला दोनों) में बढ़ोतरी हो रही है. वास्तविक पारिश्रमिक में वृद्धि दर की पुष्टि करनी होगी. उपभोक्ता व्यय में वृद्धि दर से संकेत मिलता है कि कामगारों की आय तेजी से नहीं बढ़ रही है, भले पारिश्रमिक में वृद्धि हो रही हो. रिजर्व बैंक का उपभोक्ता भावना सर्वेक्षण भी उपयोगी है. इसमें मुद्रास्फीति में कमी की आशा से उपभोक्ताओं में भरोसा बढ़ेगा. आम तौर पर उच्च आय वाले परिवार के पास अधिक बचत होती है. इसलिए सभी आय वर्गों को आर्थिक वृद्धि का लाभ मिलना चाहिए ताकि उपभोक्ता व्यय में सतत वृद्धि हो. अर्थव्यवस्था संबंधी समाचार बेहतर हो रहे हैं और यह जरूरी है कि आर्थिक नीति वृद्धि प्रक्रिया को वास्तव में समावेशी बनाये.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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