COP29 : एक बार फिर कॉप 29 पिछले सम्मेलनों की तरह मतभेदों का मंच बन कर रह गया. वही पुरानी बहस और बातचीत, जो विकसित और विकासशील देशों के बीच में होती रही है. विकसित देश अपने पहले के रुख पर अड़े हैं. उनके अनुसार वे जलवायु वित्त (क्लाइमेट फाइनेंस) के लिए बड़े बजट का प्रावधान नहीं कर सकते. वहीं दूसरी ओर, विकासशील देशों, जिसका भारत एक तरह से नेतृत्व कर रहा था, के अनुसार स्वीकृत धनराशि बहुत कम है. और जिस तरह दुनिया तेजी से बदल रही है और पर्यावरण व प्रकृति के लिए आपातकालीन परिस्थितियां उत्पन्न हो चुकी हैं, उसे देखते हुए हर हाल में 300 अरब डॉलर से ज्यादा की प्रतिवर्ष सहायता प्रदान करनी पड़ेगी, और यह राशि 2035 तक स्थिर रूप में जारी रहनी चाहिए और यह 1.3 ट्रिलियन होनी चाहिए.
पर जैसा कि पहले भी हो चुका है और इस बार भी हुआ, इस मुद्दे पर बहस और बातचीत लगातार कई दशक से चलती आ रही है, परंतु अभी तक हम किसी गंभीर निर्णय पर नहीं पहुंच पाये हैं. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र प्रेसीडेंसी ने जलवायु वित्त को लेकर विकासशील देशों की मांग को एक बड़ा निर्णय बताया, जिसमें विकसित देश 2025 से 2035 तक सहायता प्रदान करेंगे, और यह राशि प्रतिवर्ष 300 अरब डॉलर होगी. साथ ही यह भी माना गया कि 2035 तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर की सहायता राशि विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों के लिए प्रदान की जायेगी.
काॅप में नहीं हुआ कोई ठोस निर्णय
यह बहुत अजीब बात है, परंतु इसे दोहराना अत्यंत जरूरी है कि कॉप (सीओपी) लंबे समय से इन्हीं मुद्दों में उलझा हुआ है, परंतु आज तक कोई ठोस और साझा निर्णय नहीं आ सका है, जिससे विकसित और विकासशील देशों के बीच समन्वय स्थापित हो सके. इस बीच कॉप 29 में डेलीगेट्स ने ‘नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल)’, जो जलवायु वित्त से संबंधित है, उस पर मोल-भाव करने की कोशिश की, पर उसे विकासशील देशों ने नकार दिया. यहां सिविल सोसाइटी ने भी विकासशील देशों का साथ दिया.
इस मामले में भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. यहां भारत के रुख का कई अन्य देशों ने भी समर्थन किया. नाइजीरिया के एक सलाहकार ने तो यह प्रश्न उठा दिया कि जबकि इस सम्मेलन में कोई गंभीर व महत्वपूर्ण निर्णय ही नहीं लिया गया, ऐसे में हम अपने देश जाकर लोगों से क्या कहेंगे. उन्होंने यह भी कहा कि जब तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर की सहायता तय नहीं हो जाती है, तब तक कॉप 29 में लिया गया कोई भी निर्णय संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है.
इसके अतिरिक्त भी बहुत से विषयों पर आपस में बहसें हुईं. जिसमें यह मुद्दा भी शामिल रहा कि विकसित व बड़े देशों ने जिस कारण अत्यधिक उत्सर्जन किया है, खासतौर पर विकसित देशों द्वारा प्राकृतिक गैस का उपयोग किया जाना, उन्हें अब वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की ओर बढ़ने की आवश्यकता है. हालांकि, यूरोप में पहले इस दिशा में प्रयास किये गये थे, परंतु अचानक से ऊर्जा की कीमतों में वृद्धि के कारण वे फिर से पुराने तरीकों की ओर लौटने की तैयारी में लग चुके हैं. एक सच यह भी है कि अभी भी हमें नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की खोज करने की जरूरत पड़ेगी, परंतु यह भी देखना होगा कि इन नये ऊर्जा स्रोतों को कितनी स्वीकार्यता मिलती है. यहां दो बड़ी चुनौतियां सामने हैं. एक तो यह कि दुनिया में ऊर्जा की आवश्यकता लगातार बढ़ रही है, और दूसरी है जनसंख्या वृद्धि का बढ़ता दबाव. यह बात भी महत्व रखती है कि आने वाले समय में जीवाश्म ईंधन (फॉसिल फ्यूल), जो कार्बन उत्सर्जन का बड़ा स्रोत है, का उपयोग भी कम होने की बजाय बढ़ सकता है. ऐसा इसलिए क्योंकि गाड़ियां, गैजेट्स और अन्य संसाधन हमारे जीवन का हिस्सा बन चुके हैं. इन हालात में शायद हम नियंत्रण न कर पायें.
विकासशील देशों ने स्थिर निर्णय की मांग की
इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि पेरिस समझौते के आर्टिकल नौ के अनुसार जो लक्ष्य तय किये गये थे, उस के तहत सौ अरब डॉलर की सहायता का निर्णय लिया गया था, परंतु वह भी 2025 में बिना कुछ किये ही समाप्त हो जायेगा. इसे देखते हुए सम्मेलन में विकासशील देशों ने कहा कि अब हमें कोई स्थिर निर्णय चाहिए और 2035 तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर की सहायता सुनिश्चित की जानी चाहिए. इस सम्मेलन में पनामा के प्रतिनिधि और अन्य विकासशील देशों ने निराशा व्यक्त की, क्योंकि इस तरह के निर्णयों से आज तक कोई सार्थक परिणाम नहीं मिल पाया है.
अब सवाल यह उठता है कि सीओपी जैसी बैठकों का क्या उद्देश्य है, जहां हर देश, विशेष रूप से विकसित देश, अपने ही हितों को केंद्रित कर हर बात रखते हों और जलवायु परिवर्तन का सामना करने की हर पहल पर रोड़ा अटकाते हों. यदि आगे भी ऐसा ही चलता रहा, तो फिर इस तरह का सम्मेलन महज दिखावा बन कर रह जायेगा, उससे अधिक इसका कोई महत्व नहीं रह जायेगा. यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सीओपी पर बातचीत उत्तर और दक्षिण के बीच बंटी हुई है, जहां उत्तर अपनी शर्तों को मनवाने की हरसंभव कोशिश कर रहा है, वहीं दक्षिण उसके सामने बहुत कमजोर नजर आ रहा है. यदि ऐसा ही चलता रहा, तो सीओपी पर कई सवाल खड़े होंगे और पूछा जायेगा कि बीते 30 वर्षों में क्या हासिल हुआ है? क्या तापमान में कोई कमी आयी है? क्या वायु प्रदूषण पर कोई नियंत्रण हो पाया है? और क्या जल और जंगल बचाये जा सके हैं?
यदि उपरोक्त सवालों का जवाब नकारात्मक होता है, तो फिर हमें यह समझने की जरूरत होगी कि इसके लिए किसे दोष देना चाहिए. संभवत: यह सवाल इस बात पर आकर रुकता है कि सीओपी केवल एक दंगल बन कर ही रह गया है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं. अब समय आ गया है कि हम अपने स्तर पर कदम उठायें. अगर हम अपनी परिस्थितियों को सुधारने के लिए गंभीर कदम उठाते हैं, तो हम दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकते हैं. हमें अपनी पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली (इकोसिस्टम रेस्टोरेशन) के लिए भी ठोस कार्य करने होंगे और खुद की परिस्थितियों में सुधार करना होगा. ताकि हम एक बेहतर भविष्य के निर्माण में योगदान दे सकें. यह प्रयोग हमने कैसे किया, इसे दुनिया को दिखा सकें. अब इस तरह की गोष्ठियों व सम्मेलनों से कुछ भी हासिल नहीं होना है. समय आ गया है कि अब हम सबको अपनी-अपनी जान बचाने की कोशिश अपने ही स्तर से करनी होगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)