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महामारी में गांधी ने भी खोये थे परिजन

स्पैनिश फ्लू और वर्तमान कोरोना महामारी में कुछ समानताएं हैं, तो कुछ फर्क भी. बीसवीं सदी के फ्लू से भारत में यूरोप की तुलना में काफी ज्यादा लोग मरे थे, जबकि कोरोना संक्रमण से अमेरिका और यूरोप में कई हजार लोग ज्यादा मरे हैं.

सुशील कुमार मोदी, उपमुख्यमंत्री, बिहार

delhi@prabhatkhabar.in

पानी का एक जहाज 102 साल पहले (29 मई, 1918) प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लेकर लौटे सैनिकों की एक टुकड़ी को लेकर बंबई पहुंचा था. जहाज सैनिकों के साथ वायरस भी लेकर आया था. इन सैनिकों से यह फ्लू पूरे भारत में फैल गया. गांधीजी का परिवार भी इससे अछूता नहीं रहा. उनके बड़े पुत्र हरिलाल की पत्नी गुलाब और बेटी शांति राजकोट में फ्लू का शिकार हुईं. एक सप्ताह के अंतराल पर दोनों की मृत्यु हो गयी. उन्हीं दिनों गांधी खेड़ा में किसान आंदोलन एवं अहमदाबाद में मजदूरों की हड़ताल का समाचार मिलने पर चंपारण से अहमदाबाद पहुंच गये. उन्हीं दिनों प्रथम विश्वयुद्ध में अग्रेजों को सहयोग करने हेतु गांधी गांव-गांव घूमकर फौज में रंगरूटों की भर्ती कराने लगे. तब पूरी दुनिया स्पैनिश फ्लू से आक्रांत थी. भारत में इसे बॉम्बे फीवर या बॉम्बे इन्फ्लुएंजा भी कहा जाता था. गांधीजी का परिवार तो पहले ही इससे ग्रस्त था, मगर उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन पर इसका असर नहीं पड़ने दिया. उनका शरीर काफी क्षीण हो गया था. वे रग्ण शय्या पर चले गये. गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- ‘एक रात तो मैंने बिल्कुल आशा ही छोड़ दी थी. मुझे ऐसा आभास हुआ कि अब मृत्यु समीप ही है. यह समझ कर कि मृत्यु समीप है, साथियों से गीता पाठ सुनता रहा.’ एक अक्टूबर को अंतिम समय जानकर उन्होंने अपने बेटों- हरिलाल और देवदास को बुला लिया था.

इसी कारण वे बंबई में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में शामिल न हो सके थे, जो मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट पर विचार के लिए बुलाया गया था. राजेंद्र बाबू बंबई से लौटते समय गांधी को देखने अहमदाबाद गये थे. वे भी लिखते हैं कि खेड़ा सत्याग्रह और फौज में रंगरूटो की भर्ती में लगातार कठिन मेहनत के कारण गांधी बीमार पड़ गये, परंतु स्पैनिश फ्लू का जिक्र नहीं है. आश्चर्य है कि जिस महामारी से लाखों लोगों के मरने की बात कही जाती है, उसका कोई जिक्र गांधी और राजेंद्र बाबू की आत्मकथा में नहीं है.

क्या गांधी स्पैनिश फ्लू के कारण मृत्यु शय्या पर पहुंच गये थे? उनके पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी कहते हैं कि खेड़ा सत्याग्रह के बाद गांधी गंभीर रूप से बीमार अवश्य पड़े, पर स्पेनिश फ्लू के कारण नहीं. गांधी ने ‘आत्मकथा’ में अपनी बीमारी का विस्तार से जिक्र किया है, परंतु कही भी स्पैनिश फ्लू के कारण अस्वस्थता का उल्लेख नहीं. विदेशी इतिहासकार डेविड किलिंग्रे और हावर्ड फिलिप ने अपनी पुस्तक ‘द स्पैनिश इंफ्लुएंजा पैनडेमिक ऑफ 1918-1920: न्यू पर्सपेक्टिव’ में साफ लिखा कि साबरमती आश्रम में इन्फ्लुएंजा फैलने से महात्मा गांधी, चार्ल्स एंड्रयू और शंकरलाल पारिख संक्रमित हुए थे.

प्रसिद्ध साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के पिता, चाचा और पत्नी की मृत्यु भी इसी महामारी से हुई थी. समालोचक रामविलास शर्मा ने निराला के बारे में लिखा- ‘प्रथम महायुद्ध के बाद इनफ्लूएंजा से घर के घर खाली हो गये. इन्फ्लुएंजा से इतने मनुष्य नष्ट हुए थे कि गंगा के किनारे दिन रात चिताओं की जोत कभी मंद न होती थी. अवधूत टीले पर बैठा युवक कवि घंटों तक बहती हुई लाशों का दृश्य देखा करता.’ निराला ने अपने संस्मरण में लिखा कि इलाहाबाद में गंगा मृतकों की लाशों से पटी नजर आती थी. वर्ष 1918 की सैनिटरी कमिश्नर की रिपोर्ट में बताया कि फ्लू से इतनी ज्यादा मौतें हुईं कि अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ गयीं और शव नदियों में बहाये जाने लगे. स्वास्थ्य सेवाएं नाकाम हो गयी थीं. स्पैनिश फ्लू ने गांधी के अनन्य सहयोगी गफ्फार खान (फ्रंटियर गांधी) के बेटे गनी को भी अपनी चपेट में ले लिया था. जब लगा कि गनी का अंतिम समय है, तब उसकी मां मेहर कंध ने ईश्वर से प्रार्थना की कि उनके बेटे को ठीक कर दें और आवश्यकता हो तो उनकी जान ले ले. कहते हैं, कुछ दिन बाद गनी तो स्वस्थ हो गये, लेकिन मेहर कंध चल बसीं.

फ्लू जैसी संक्रामक बीमारी के तीन दौर आये. अनुमान है कि केवल भारत में डेढ़ करोड़ लोग मरे. उस समय यह आंकड़ा देश की कुल आबादी का छह प्रतिशत था. भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 1911-1921 के दशक में 1.2 फीसदी थी, जो दो सौ साल के ब्रिटिश राज में न्यूनतम थी. एक सदी पहले भी सड़कों पर मौत का सन्नाटा पसर गया था. फ्लू का कोई इलाज या टीका नहीं था.

स्पैनिश फ्लू और वर्तमान कोरोना महामारी में कुछ समानताएं हैं, तो कुछ फर्क भी. बीसवीं सदी के फ्लू से भारत में यूरोप की तुलना में काफी ज्यादा लोग मरे, जबकि कोरोना में अमेरिका-यूरोप में कई हजार लोग ज्यादा मर गये. फ्लू का शिकार होनेवाले अधिकतर लोग 20 से 40 वर्ष के थे, लेकिन कोरोना से मरनेवालों में अधिकतर बुजुर्ग थे. फ्लू के समय ग्रामीण आबादी ने बड़े शहरों का रुख किया था, जबकि कोरोना काल में बड़ी संख्या में लोग महानगरों से गांव लौट रहे हैं. मनुष्य ने प्लेग, हैजा, इबोला, सार्स, स्पैनिश फ्लू, एवियन फ्लू, स्वाइन फ्लू पर विजय हासिल कर लिया. अब देखना है कि कोरोना वायरस पर मनुष्य कब विजय हासिल करेगा?

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