17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

उच्च शिक्षा क्षेत्र में बड़ा बदलाव है सीयूइटी

बदलाव- लागू करने वालों और बदलाव से प्रभावित होने वालों- दोनों के लिए यह नये तरह का अनुभव होता है और दोनों इससे सीखते हैं. इसलिए इस साल उतनी समस्याएं नहीं आयी हैं. आगे यह और भी कम होती जायेंगी

डॉ कविता ए शर्मा

पूर्व प्राचार्य, हिंदू कॉलेज, दिल्ली

kavi.noida10@gmail.com

कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट या सीयूइटी का यह दूसरा साल है. पिछले साल यह पहली बार लागू हुआ था और इसके आधार पर स्नातक की पढ़ाई के लिए कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दाखिले हुए. यह परीक्षा 2017 में गठित नेशनल टेस्टिंग एजेंसी आयोजित करती है जिसमें मल्टीपल चॉइस प्रश्न पूछे जाते हैं. इस वर्ष लगभग तीन लाख सीटों के लिए 16 लाख छात्रों ने रजिस्ट्रेशन करवाया. जून में परीक्षा हुई और लगभग एक महीने बाद जुलाई में नतीजे आ गये.

पिछले साल लागू हुआ सीयूइटी स्नातक की पढ़ाई की व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव था. इससे पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों जैसे बहुत सारे शिक्षण संस्थानों में बारहवीं की परीक्षा के अंकों के आधार पर एडमिशन दिया जाता था. पिछले वर्ष सीयूइटी को लागू किये जाने के समय इसे लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही थीं. मगर मैंने तब इसका समर्थन किया था. इसकी वजह यह है कि हमारे देश में 60 से ज्यादा शिक्षा बोर्ड हैं. सबकी अलग परीक्षाएं होती हैं और कोई मापदंड निर्धारित नहीं है.

आज की तारीख में दिल्ली विश्वविद्यालय एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय माना जाता है. सभी यहां प्रवेश चाहते हैं. और उसके लिए केवल कट ऑफ की व्यवस्था थी, यानी 12वीं के अंकों के आधार पर एडमिशन होते थे. ऐसे में मुझे ऐसा लगा कि विभिन्न बोर्डों के बीच एक होड़ सी लग गयी थी कि कौन कितने ज्यादा नंबर देता है. किसी एक स्टैंडर्ड के अभाव में यह जानना मुश्किल हो जाता है कि यदि किसी छात्र को दिल्ली में 90 प्रतिशत नंबर आये, तो उसे महाराष्ट्र में कितने नंबर आते. इससे प्रवेश के दौरान एक असंतुलन की स्थिति बन जाती थी, जैसे एक ही राज्य के बहुत सारे छात्र आ जाते थे.

दूसरी समस्या यह थी कि कॉलेजों को अपने कट ऑफ जारी करने में बहुत मुश्किल आती थी क्योंकि उसकी कोई निर्धारित प्रक्रिया नहीं थी. कॉलेज पिछले तीन-चार साल की प्रवेश प्रक्रिया के आधार पर एक अनुमान लगाकर कट ऑफ घोषित कर देते थे. जैसे, हिंदू कॉलेज में हमने राजनीति शास्त्र के लिए एक वर्ष एक कट ऑफ जारी किया जो छात्रों में एक लोकप्रिय विषय था.

और उसके बाद वहां 30 छात्रों की जगह पर 120 का एडमिशन हो गया, क्योंकि तब कट ऑफ के भीतर आ जाने वाले सभी छात्रों को एडमिशन देना अनिवार्य था, सीटें चाहे जितनी भी हों. इससे बहुत परेशानी होती थी. कॉलेजों में प्रवेश के पूरी तरह से बारहवीं के नतीजों पर निर्भर होने से एक और समस्या आती थी. यदि किसी व्यक्तिगत या पारिवारिक या अन्य कारण से उस दौरान छात्र ठीक से पर्चे नहीं दे सका, तो उसके कम नंबर आते थे.

इसलिए सीयूइटी के जरिये छात्रों को एक दूसरा मौका देने के बारे में विचार किया गया. सीबीएसइ जैसे बोर्डों के साथ एक अन्य समस्या यह भी थी कि वहां छात्रों की संख्या बहुत अधिक होती है और कॉपियों की जांच की कोई निर्धारित व्यवस्था नहीं थी, और कॉपियां कई जगहों पर जांची जाती हैं, जिससे अलग-अलग तरह से नंबर आते हैं. सीयूइटी की परीक्षा में भी लाखों की संख्या में परीक्षार्थी शामिल हो रहे हैं, मगर उसमें समस्या की आशंका कम है क्योंकि इसमें सामान्य मल्टीपल चॉइस प्रश्न पूछे जाते हैं, और उनकी जांच भी मशीन कर देती है.

हालांकि, अभी परीक्षा के दौरान उत्तरों के विकल्पों को लेकर कुछ समस्याएं आ रही हैं. सवालों के भ्रामक या गलत होने की भी शिकायत आयी है. यह समस्याएं आगे भी आ सकती हैं. मगर इन्हें पहले से भांपकर उनसे बचा जा सकता है. पिछले साल निश्चित रूप से परीक्षा केंद्रों में अव्यवस्था आदि की भी शिकायतें सामने आयी थीं. मैं अपने अनुभव से कह सकती हूं कि जब भी कोई नयी व्यवस्था लागू की जाती है, तो उसे ठीक से स्थापित होने में तीन से पांच साल लगते हैं.

बदलाव- लागू करने वालों और बदलाव से प्रभावित होने वालों- दोनों के लिए यह नये तरह का अनुभव होता है और दोनों इससे सीखते हैं. इसलिए इस साल उतनी समस्याएं नहीं आयी हैं. आगे यह और भी कम होती जायेंगी. एक सबसे अहम बात, जिसे लेकर सतर्क रहना जरूरी है कि कहीं यह परीक्षा एक पैटर्न की तरह न बन जाए. अभी कॉलेजों में छात्र परीक्षा देते समय पिछले चार-पांच साल के सवाल देख लेते हैं और उस हिसाब से तैयारी करते हैं.

सीयूइटी के साथ भी आगे जाकर यदि ऐसा हो जाए कि लोग समझ जाएं कि इसमें कैसे सवाल पूछे जा सकते हैं, तो सीयूइटी का उद्देश्य ही बेकार हो जायेगा. इससे बचने के लिए सवाल तैयार करने की ट्रेनिंग देना जरूरी होगा, जो हमारे देश में नहीं होती है. हमारे यहां उच्च शिक्षा संस्थानों में कई बुनियादी कमियां हैं, जिनमें पेपर सेटिंग भी एक है. लोग पीएचडी करने के बाद सीधे पढ़ाना शुरू कर देते हैं, मगर यह योग्यता आपको पेपर सेट करना नहीं सिखाती. इस चलन और मानसिकता को बदला जाना जरूरी है ताकि ट्रेनिंग, सेमिनार, वर्कशॉप आदि शिक्षकों के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाए.

पिछले वर्ष सीयूइटी को लागू किये जाने के समय यह भी चिंता जतायी गयी थी कि इससे कोचिंग संस्कृति बढ़ेगी. लेकिन भारत में कोचिंग कोई नयी चीज नहीं हैं. मेडिकल, इंजीनियरिंग, यूपीएससी आदि के कोचिंग संस्थान तो सालों से चल रहे हैं. यह पेशा ही ऐसा है जिसमें कोई भी नया अवसर आता है तो उससे फायदा उठाने की कोशिश की जाती हैं. तो कोचिंग संस्थान सीयूइटी की तैयारी करवाना शुरू कर ही देंगे. हालांकि, यह अभी तक होता दिख नहीं रहा है क्योंकि उनके लिए भी यह एक नयी परीक्षा है और वह इसे समझ नहीं पा रहे हैं.

साथ ही, मेरा सवाल यह भी है कि जो बच्चे बारहवीं की पढ़ाई करते हैं, वे क्या कोचिंग नहीं करते? कोचिंग सेंटर काफी लोकप्रिय हैं और वर्षों से चल रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि परीक्षाएं ऐसी न हों कि उसके सवालों को पहले ही गेस कर लिया जाए. इससे बचने के लिए पेपर सेटिंग की ट्रेनिंग के साथ-साथ शिक्षकों और छात्रों की राय लेकर रास्ता निकालना पड़ेगा.

सीयूइटी को लेकर आम तौर पर एक सकारात्मक माहौल है. लेकिन इसके बारे में एक अध्ययन करवाया जाना चाहिए. इसके जरिये यह पता लगाया जाना चाहिए कि छात्रों की बारहवीं के नतीजे क्या थे और उनका सीयूइटी का परिणाम क्या था. इससे यह पता चल सकेगा कि अलग-अलग बोर्डों में यदि कहीं बहुत ज्यादा नंबर आते थे, तो वे नंबर वाकई जायज थे या उन्हें बढ़ाकर अंक दिये जा रहे थे. सीयूइटी और बोर्ड- दोनों के नतीजों में समानता है या नहीं, इसकी गहराई से अध्ययन के बाद सीयूइटी की सार्थकता को लेकर तस्वीर और स्पष्ट हो सकेगी.

(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें