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अदालत में सुनवाई के बाद फैसला जल्द हो

सुप्रीम कोर्ट ने अक्तूबर 2023 में कहा था कि देश में छह फीसदी आबादी मुकदमेबाजी से पीड़ित है. मामलों के जल्द निपटारे के लिए जस्टिस रवींद्र भट्ट की बेंच ने गाइडलाइन जारी किया था.

महान न्यायविद नानी पालखीवाला ने कहा था कि भारत में न्याय की धीमी रफ्तार को देखकर घोंघों को भी शर्म आ जाए. एक राज्य के एक मामले में मजिस्ट्रेट ने सुनवाई खत्म होने के बाद फैसला देने में नौ माह का विलंब किया था. उस राज्य के हाईकोर्ट ने 1961 के फैसले में मजिस्ट्रेट के आचरण और न्यायिक योग्यता पर गंभीर चिंता जाहिर की थी. उसके बाद स्थिति बदतर होती गयी है. नवीनतम आंकड़ों के अनुसार देश में 5.07 करोड़ मामले लंबित हैं, जिनमें 4.44 करोड़ मामले जिला अदालतों में लंबित हैं. मुकदमों में देर से फैसले के कई कारण हैं. देर से न्याय मिलने पर जनता के साथ देश का भी नुकसान होता है. कुछ मामलों में सुनवाई के बाद जज फैसला रिजर्व कर लिखित फैसला बाद में जारी करते हैं. ऐसे ही एक मामले में सुनवाई खत्म होने के 10 महीने बाद रिजर्व फैसला सुनाने के बजाय नये सिरे से सुनवाई करने के हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने आक्रोश व्यक्त किया है.

उन्होंने कहा है कि ऐसा करना गलत और अन्यायपूर्ण है. ऐसे मामलों में पुरानी बहस के बिंदुओं को जजों को याद रखना मुश्किल होता है, जिसकी वजह से मुकदमे में देरी के साथ गलत फैसला हो सकता है. उसके पहले सुप्रीम कोर्ट के 75वें स्थापना दिवस के मौके पर भी उन्होंने वकीलों की लंबी बहस की वजह से सुनवाई और फैसलों में देरी पर चिंता जाहिर की थी. भारत में वीआइपी और संविधान पीठ से जुड़े मामलों में लंबी बहस और बड़े फैसलों का गलत रिवाज बन गया है. लेकिन इस लग्जरी मुकदमेबाजी का खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है. पिछले साल की एक रिपोर्ट के अनुसार सबसे पुराना दीवानी मुकदमा कलकत्ता हाईकोर्ट में 1951 से चल रहा है, जबकि फौजदारी के पुराने मामले में 1969 से फैसले का इंतजार है.

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अंतुले के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के जीवन के अधिकार के तहत जल्द न्याय मिलने का हक भी शामिल है. साल 2000 में भगवानदास मामले में मद्रास हाईकोर्ट के देर से दिये गये फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक अपराध करार दिया था. उस मामले में हाईकोर्ट ने 1989 में सुनवाई पूरी होने के पांच साल बाद 1994 में फैसला दिया था. ऐसे बढ़ते मामलों को देखते हुए बिहार के अनिल राय मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2001 में दिशानिर्देश जारी किया था. उसके अनुसार दो महीने में फैसला नहीं आने पर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को प्रशासनिक स्तर पर जजों को चेतावनी देनी चाहिए. फैसला जारी करने में तीन महीने से ज्यादा विलंब होने पर संबंधित पक्षकार जल्द फैसले के लिए अर्जी दायर कर सकते हैं. छह महीने से ज्यादा देरी होने पर पक्षकार लोग मामले की नये जज के सामने सुनवाई की मांग कर सकते हैं.

लेकिन उन निर्देशों का हाईकोर्ट में पूरी तरह से पालन नहीं हो रहा है. दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल के मामले में हाईकोर्ट जज ने कहा है कि मास यानी जनता और क्लास यानी वीआइपी मामलों में फर्क नहीं किया जा सकता. लेकिन हकीकत कुछ अलग है. संविधान के अनुसार, लोगों को 48 घंटे से ज्यादा बेवजह कैद में रखना गलत और गैरकानूनी है. लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट में जमानत के मामलों की कई साल लिस्टिंग नहीं होती, इस बदहाली पर चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ अनेक बार चिंता जाहिर कर चुके हैं. आम जनता के मामलों में जल्द सुनवाई नहीं होती और कई मामलों में तो अदालत के फैसले के बावजूद गरीबों की कैद से रिहाई भी नहीं होती. दूसरी तरफ एनडीपीएस मामले में शाहरुख खान के बेटे आर्यन को बॉम्बे हाईकोर्ट के जजों ने जमानत पर तुरंत रिहा करने के तीन हफ्ते बाद लिखित फैसला जारी किया.

सुप्रीम कोर्ट ने अक्तूबर 2023 में कहा था कि देश में छह फीसदी आबादी मुकदमेबाजी से पीड़ित है. मामलों के जल्द निपटारे के लिए जस्टिस रवींद्र भट्ट की बेंच ने गाइडलाइन जारी किया था. उसमें जिला और तालुका स्तर की सभी अदालतों को समन की समय सीमा पर ध्यान देने, लिखित बयान दाखिल करने, बहस को पूरा कर जल्द फैसला देने के लिए दिशानिर्देश थे. जजों के अनुसार न्याय में देरी से लोगों का अदालतों में भरोसा कम होने लगता है.

हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की संविधान अदालतों के जजों को भगवान का दर्जा दिया गया है. इसलिए उनके फैसले जारी करने की अवधि के बारे में संविधान और कानून में कोई प्रावधान नहीं किये गये. सिविल प्रोसिजर कोड (सीपीसी) के तहत जिला अदालतों में दीवानी मामलों में सुनवाई के बाद फैसले की मियाद एक महीने तय की गयी है. जिला अदालतें हाईकोर्ट के अधीन काम करती हैं, लेकिन हाईकोर्ट के जज सुप्रीम कोर्ट के अधीन नहीं हैं. लेकिन फैसलों में देरी के बढ़ते मर्ज को देखते हुए न्यायिक फैसलों के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्देश जारी किये हैं, वे संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत देशभर में सभी जजों के लिए बाध्यकारी हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में ही इन निर्देशों का पालन नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण है. साल 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के 487 फैसलों में से 38 फीसदी मामलों में एक महीने के बाद लिखित फैसला आया. समलैंगिकता से जुड़े नाज फाउंडेशन के मामले में सुनवाई के 20 महीने के बाद जजों ने लिखित फैसला दिया था. उसके पहले 2जी घोटाले में तत्कालीन टेलीकॉम मंत्री ए राजा के मामले में 433 दिनों के बाद लिखित फैसला आया था.

कुछ मामलों पर बहस की बजाय पूरे सिस्टम को दुरुस्त करना जरूरी है. दिशानिर्देशों के अनुसार, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में रिजर्व रखे गये सभी मामलों का विवरण वेबसाइट पर जारी होना चाहिए. नियमों के पालन से पारदर्शिता के साथ जल्द न्याय के लिए जजों की जवाबदेही बढ़ेगी. आपराधिक मामलों के जल्द फैसले के लिए सरकार ने नये कानून बनाये हैं, जिन पर तीन महीने बाद जुलाई से अमल शुरू होगा. मुकदमों का बोझ कम करने के लिए तीन हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की कमेटी ने 1989 में रिपोर्ट दी थी. उसके अनुसार सुनवाई के छह हफ्ते के भीतर फैसला जारी होना चाहिए. नयी सरकार के गठन के बाद न्यायिक सुधार के तहत इन मामलों के लिए स्पष्ट देशव्यापी कानून बने, तो आम जनता को जल्द न्याय मिलने के साथ अदालतों को मुकदमों के भारी बोझ से निजात मिलेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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