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सीमावर्ती जनजातीय समुदायों का विकास आवश्यक

देश की सीमा पर बसे ये समाज अल्प शिक्षा और संसाधनों की कमी जैसी गंभीर समस्याओं से भी जूझते रहते हैं. इन समुदायों के मध्य बड़े-बड़े साधु वैरागी, पांच सितारा बाबाजी लोग, अध्यात्म पर दस-दस दिन की कथाएं करने वाले करोड़पति कथाकार नहीं जाते.

हमारे देश की कुल थल क्षेत्रीय सीमा पंद्रह हजार दो सौ किलोमीटर लंबी है, जो बारह राज्यों के बयानबे जिलों से गुजरती है और नौ पड़ोसी देशों को स्पर्श करती है. इस महान राष्ट्र भारत की सीमा का दर्शन किसी तपस्या और भगवद्प्राप्ति की यात्रा से कतई कम नहीं है. भारतमाता की अभ्यर्थना करने और चरणपादुका पूजने के समान है हमारी सीमा का दर्शन और वहां रहने वाले भारतीयों से परिचय प्राप्त करना. जो लोग नगरों में रहते हुए देशभक्ति की बात करते हैं, उनको विशेष रूप से भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों का भ्रमण अवश्य करना चाहिए.

यहां प्रथम पंक्ति के भारत रक्षक, जो शत्रु की गोलियों और षड्यंत्रों का सबसे पहला सामना करते हैं, वे हमारी सेना के जवान नहीं होते, बल्कि जनजातीय समाज के लोग होते हैं. अनुसूचित जनजाति, ट्राइबल या आदिवासी भी सीमा रक्षक हैं, जो लद्दाख से लेकर हिमाचल के शिपकी ला, लाहौल स्पीति, उत्तराखंड के धारचूला, बड़ा होती तक तथा सिक्किम के नाथुला से लेकर अरुणाचल के तवांग और नूरानांग (जसवंत गढ़) तक फैले हैं.

ग्यारह प्रतिशत जनजातीय समुदायों के लोग अपने देश की सीमाओं पर बसे हुए हैं. वहां वे अत्यंत अल्प सुविधाओं में अपना जीवनयापन करते हैं, तिरंगे के प्रति निष्ठावान रहते हैं तथा कभी भी शिकायत नहीं करते हैं. इस ग्यारह प्रतिशत जनजातीय समाज के पंचानबे प्रतिशत हिस्से में आतंकवाद, राष्ट्र विद्रोही गतिविधियां, एचआइवी जैसी व्याधियां नहीं हैं. ये समाज अल्प शिक्षा और संसाधनों की कमी जैसी गंभीर समस्याओं से भी जूझते रहते हैं.

इन समुदायों के मध्य बड़े-बड़े साधु वैरागी, पांच सितारा बाबाजी लोग, करोड़पति कथाकार नहीं जाते. इनके इलाकों में जो अधिकारी नियुक्ति किये जाते हैं, वे प्रायः (सभी नहीं) उसको ‘दंडात्मक नियुक्ति’ मानते हैं. इन समुदायों के सुख-दुख से देश का बहुतांश समाज अपने को संबद्ध नहीं समझता. स्वीडन, स्विट्जरलैंड, जर्मनी आदि अनेक देशों से इनके बीच धर्मांतरण का काम करने के लिए ईसाई युवक आते रहते हैं, पर हिंदू समाज से काम करने वाले बहुत कम लोग जाते हैं और जो जाते भी हैं, उनमें अधिकांशतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित संगठनों के ही लोग होते हैं.

मैं यह लेख भारत-तिब्बत-चीन-नेपाल सीमा के संगम पर स्थित धारचूला-पिथौरागढ़ से लिख रहा हूं. यहां की सीमा पर भोटिया और वन राजि (वन रावत) जनजातियों की बसावट है. बड़े बहादुर, कौशल संपन्न और सीमा क्षेत्र को कभी नहीं छोड़ने वाले भारतीय हैं इन समुदायों के लोग. इनमें भोटिया जनजाति ने काफी प्रगति की है और इस समाज से अनेक आइएएस और आइपीएस अधिकारी तथा राजनीतिक नेता आगे आये हैं, लेकिन कुछ समय पूर्व तक गुहा वासी, स्वयं की पृथक भाषा और परंपराएं रखने वाले वन राजि समुदाय के लोग अभी तक समय से सैंकड़ों वर्ष पीछे हैं.

हमारी सीमा के प्रथम रक्षकों के क्षेत्र में उनको आवास आदि की सुविधा देने का भी प्रयास हुआ, लेकिन हृदय की भाषा में संवाद कम ही रहा. इस संबंध में दिलीप अधिकारी जैसे उत्साही समाज कल्याण अधिकारी ने व्यक्तिगत प्रयासों से नयी पहल की. वे प्रदेश में वन राजि के संबंध में जानकारी का अपार भंडार हैं. जगदीश कलोनी पत्रकार और बाल विकास व संरक्षण में समर्पित कार्यकर्ता है. वर्ष 1997 से वे वन राजि की समस्याओं पर लिख रहे हैं, परंतु यह दुर्भाग्य है कि राजनेताओं को वैसे क्षेत्रों में विकास से सरोकार नहीं होता, जहां उनका वोट बैंक नहीं होता है.

सौभाग्य से मोदी सरकार ने इस विषय में बड़ी पहल की है. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू पहली ऐसी राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने लुप्त हो रहीं जनजातियों के बारे में व्यक्तिगत रुचि से देशभर में नवीन कदम उठाये हैं. वे स्वयं इन जनजातियों के समूहों से राष्ट्रपति भवन में मिल रही हैं, परंतु सब कुछ सरकार नहीं कर सकती है. समाज के आध्यात्मिक और संवेदनशील वर्ग को इस ओर सरकार की सहायता की अपेक्षा किये बिना समता और समरसता के कार्य करने होंगे.

दुर्भाग्य से सबको राजनेताओं की चाटुकारिता और तुरंत धनार्जन के मार्ग सेवा के लंबे थका देने वाले कंटकाकीर्ण पथ से अधिक आकर्षक लगते हैं. ऐसी परिस्थिति में वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन और किशोर पंत की नन्हीं चौपाल, दिलीप अधिकारी जैसे समर्पित सेवाभावी अफसरों को समाज व शासन से लोक मान्यता मिलनी आवश्यक है.

राष्ट्रपति मुर्मू के प्रयास लुप्त हो रहीं जनजातियों की रक्षा के उपक्रम में रंग लायेंगे. वर्तमान में वन राजि की भाषा के लिपिकरण और डिजिटाइजेशन हेतु बड़े पैमाने पर कार्य की आवश्यकता है. तभी उनके लिए स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव कोई अर्थ रखेगा. आवश्यक है कि समाज के अग्रणी महानुभाव जनजातियों की समस्याओं के समाधान और उनको प्रगति की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए आगे आयें. ये देश के प्रथम रक्षक हैं, लेकिन यदि उनके क्षेत्र विकास से उपेक्षित रहेंगे, तो यह मानवता ही नहीं, बल्कि सुरक्षा के प्रति भी अक्षम्य अपराध होगा.

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