21.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

डॉ लोहिया के ‘निराशा के कर्तव्य’

डॉ लोहिया ने कहा था कि हमारे यहां जाति प्रथा गैर-बराबरी को मंत्र की ताकत दे देती है. और, देश की जनता गैर-बराबरी को इस डर से स्वीकार किये रहती है कि उस पर ताकत का इस्तेमाल हो जायेगा.

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

kp_faizabad@yahoo.com

समाजवादी चिंतक डाॅ राम मनोहर लोहिया की जयंती पर उन्हें याद करने के साथ इस विडंबना को भी याद करना जरूरी है कि आज की तारीख में खुद को उनका वारिस कहनेवाली पार्टियां और नेता गहन वैचारिक निराशा से गुजर कर भी उनके सिखाये ‘निराशा के कर्तव्यों’ को निभाने को तैयार नहीं हैं, जो डाॅ लोहिया ने 23 जून, 1962 को नैनीताल में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को बताया था. याद करें, वह ऐसा दौर था, जब फरवरी, 1962 में संपन्न हुए लोकसभा के तीसरे चुनाव में समाजवादियों द्वारा जगायी गयी परिवर्तन की तमाम उम्मीदों के विपरीत प्रजा सोशलिस्ट पार्टी 12 और सोशलिस्ट पार्टी को छह सीटें ही मिल पायी थीं. इससे समाजवादी निराश थे. इसलिए भी कि स्वतंत्र पार्टी ने अकेले ही इन दोनों के बराबर 18 सीटें जीत ली थीं, जबकि 14 सीटें भारतीय जनसंघ के खाते में गयी थीं.

भाकपा ने 29 सीटें जीत कर अपना पुराना प्रदर्शन सुधार लिया था. यानी समाजवादियों के समक्ष लगभग आज जैसा ही अप्रासंगिक हो जाने का खतरा था. जब समाजवाद महज संविधान की प्रस्तावना में रह गया है, तब डाॅ लोहिया ने न सिर्फ इन निराशा के कारणों की पड़ताल की थी, बल्कि उसे पार करने के कई जरूरी कर्तव्य भी बताये थे. उन्होंने कहा था कि देश की जनता को अपने हकों के लिए लड़ना और उसकी कीमत चुकाना सिखाएं.

बगैर इसके यह निराशा हमारा पीछा नहीं छोड़नेवाली, क्योंकि उन्हीं के शब्दों में, पिछले पंद्रह सौ वर्षों में हिंदुस्तान की जनता ने एक बार भी किसी अंदरूनी जालिम के खिलाफ विद्रोह नहीं किया. एक राजा, जो आंतरिक तौर पर देश का रहनुमा बन चुका है, लेकिन जालिम है, उसके खिलाफ जनता नहीं खड़ी हुई. ऐसा विद्रोह नहीं हुआ, जिसमें हजारों-लाखों लोग हिस्सा लेते हैं. इस पंद्रह सौ वर्षों के अभ्यास के कारण झुकना हिंदुस्तान की जनता की हड्डी और खून का हिस्सा बन गया है. इस झुकने को हमारे देश में बड़ा सुंदर नाम दिया जाता है.

कहा जाता है कि हमारा देश तो बड़ा समन्वयी है, हम सभी अच्छी बातों को अपने में मिला लिया करते हैं. उन्होंने इस समन्वय के दो प्रकार बताकर उसके खतरे गिनाये थे: ‘एक दास का समन्वय और दूसरा स्वामी का समन्वय. स्वामी या ताकतवर देश या ताकतवर लोग समन्वय करते हैं, तो परखते हैं कि कौन सी पराई चीज अच्छी है, उसको किस रूप में अपना लेने से उनकी शक्ति बढ़ेगी और तब वे उसे अपनाते हैं. लेकिन नौकर या दास या गुलाम परखता नहीं है.

उसके सामने जो भी नयी परायी चीज आती है, अगर वह ताकतवर है, तो वह उसको अपना लेता है. यह झख मार कर अपनाना हुआ. अपने देश में पिछले पंद्रह सौ वर्षों से जो समन्वय चला आ रहा है, वह ज्यादातर इसी ढंग का है. इसका नतीजा यह हुआ है कि आदमी अपनी चीजों के लिए, स्वतंत्रता के लिए, अपने अस्तित्व के लिए मरने-मिटने के लिए ज्यादा तैयार नहीं रहता. वह झुक जाता है और उसमें स्थिरता के लिए भी बड़ी इच्छा पैदा हो जाती है.

कोई भी नया काम करते हुए हमारे लोग घबराते हैं कि जान चली जायेगी. इतने गरीब हैं कि एक-एक, दो-दो कौड़ी का मोह है. जहां जोखिम नहीं उठाया जाता, वहां फिर कुछ नहीं रह जाता, क्रांति असंभव-सी हो जाती है. इसीलिए अपने देश में क्रांति प्रायः असंभव हो गयी है. लोग आधे मुर्दा हैं, भूखे और रोगी हैं लेकिन संतुष्ट भी हैं. संसार के और देशों में गरीबी के साथ असंतोष है और दिल में जलन. यहां थोड़ी बहुत जलन इधर-उधर हो तो हो, लेकिन खास मात्रा में नहीं है.’

डॉ लोहिया ने कार्यकर्ताओं से यह असंतोष लोगों में पैदा करने को कहा था और जाति प्रथा को उसके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा बताया था: ‘एक मोटा-सा और शायद सबसे बड़ा कारण है जाति प्रथा. यह हमारे देश की एक विशिष्ट बात है, जो दुनिया में और कहीं नहीं. इसी नाते गुलामी में हम सबसे आगे हैं और देशों में तो गैर-बराबरी को शासक लोग कायम रखते है, ताकत के सहारे या लालच के सहारे, पर हमारे यहां जाति प्रथा गैर-बराबरी को मंत्र की ताकत दे देती है और देश की जनता गैर-बराबरी को इस डर से स्वीकार किये रहती है कि उस पर ताकत का इस्तेमाल हो जायेगा.

जब नहीं स्वीकारती, तो बगावत भी कर दिया करती है, पर अपने देश में लालच और बंदूक या हथियार के तरीकों के अलावा मंत्र का तरीका भी है. यानी मंत्र की, शब्द की, दिमागी बात की, धर्म के सूत्र की इतनी जबर्दस्त ताकत है कि जो दमित है, गैर-बराबर है, आधा मुर्दा है, छोटी जाति का है, वह खुद अपनी अवस्था में संतोष पा लेता है. किस्से बतलाते हैं कि किस तरह जाति प्रथा ने प्रायः पूरी जनता को यह संतोष दे दिया है.’ आज यह तो नहीं कह सकते कि समाजवादियों ने उनके बताये निराशा के इन कर्तव्यों पर सिरे से अमल नहीं किया, पर इन दिनों वे जिस तरह ‘रोड एंड’ पर खड़े दिखते हैं, उसका एक बड़ा कारण यकीनन यही है कि उन्होंने ये कर्तव्य भुला रखे हैं. कब याद करेंगे, किसी को नहीं मालूम.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें