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जरूरी है कृषि ऋण की आसान उपलब्धता

भाजपा यदि एआइएडीएमके को लौटाने में नाकाम रहती है तो वर्ष 2022 में उसकी हैदराबाद कार्यकारिणी में तय प्रस्ताव के लक्ष्य पर असर पड़ सकता है.

खेती के काम में किसानों को कर्ज की उपलब्धता एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है. किसानों को खेती के लिए मुख्य तौर पर दो तरह के कर्जों की आवश्यकता होती है. एक अल्प अवधि का कर्ज होता है, जिसे फसल ऋण कहा जाता है. इसमें बीज, खाद, कीटनाशक आदि के लिए ऋण दिये जाते हैं. दूसरा कर्ज दीर्घ अवधि का होता है, जिसमें ट्रैक्टर, ट्यूबवेल या कृषि औजारों की खरीद के लिए ऋण दिये जाते हैं. किसानों को अल्प अवधि का ऋण एक फसल के लिए मिलता है और फसल के बाद उसे चुकाना होता है. इस कर्ज पर ब्याज का कुछ हिस्सा सरकार वहन करती है, और बैंकों से किसानों को कम दरों पर ऋण मिलता है.

बैंकों से 10 प्रतिशत की दर से मिलनेवाला ब्याज किसानों को सात प्रतिशत पर मिल जाता है, और तीन प्रतिशत अंश सरकार चुकाती है. जो किसान समय पर ऋण चुका देते हैं, उन्हें सरकार तीन प्रतिशत की अतिरिक्त रियायत देती है और ऐसे किसानों को केवल चार प्रतिशत ब्याज पर ऋण मिल जाता है. खेती में किसानों को कर्ज देने की यह संस्थागत व्यवस्था बहुत अहम है, क्योंकि इनसे किसानों को सस्ती ब्याज दरों पर, और आसानी से कर्ज मिल पाता है. इनके तहत किसानों को सरकारी बैंकों, निजी बैंकों और सहकारी क्षेत्र के बैंकों और सहकारी समितियों से कर्ज मिलता है.

इनके अलावा किसान महाजनों या साहूकारों जैसे असंगठित स्रोतों से भी कर्ज लेते रहे हैं. लेकिन वह कर्ज महंगा होता है और उसमें किसान को कई बार 35 प्रतिशत से भी ज्यादा ब्याज देना पड़ता है, जिसका उनकी आर्थिक स्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. इन्हीं कारणों से सरकारों का प्रयास रहा है कि किसानों को संस्थागत क्षेत्र से अधिक-से-अधिक ऋण उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की जा सके.

किसानों को संस्थागत स्रोतों से ऋण मिलने में थोड़ी बहुत चुनौतियां रही हैं, लेकिन किसानों के पास यदि उनकी जमीनों के दस्तावेज हों तो उन्हें कर्ज मिलने में दिक्कत नहीं होती. सरकार ने ऐसे नियम बना रखे हैं कि सभी बैंकों को अपने कर्जों की एक तय सीमा तक की राशि प्राथमिक क्षेत्रों को देनी पड़ती है, जिनमें किसान और ग्रामीण क्षेत्र आते हैं. इनके अलावा, सरकार हर बजट में किसानों के लिए कर्ज की राशि की घोषणा करती है. जैसे, चालू वित्त वर्ष के लिए सरकार ने किसानों को 20 लाख करोड़ रुपये का कर्ज किसानों को देने की घोषणा की है. यह प्रयास किया जाता है कि किसानों को सस्ती दरों पर कर्ज देने का यह लक्ष्य पूरा होता रहे.

अल्प अवधि ऋण के लिए सरकार ने एक सीमा तय कर रखी है, और किसानों को अधिकतम तीन लाख रुपये तक का कर्ज मिलता है. दीर्घ अवधि के कर्जों के लिए 11-12 प्रतिशत तक का ब्याज देना होता है. किसानों के आस-पास यदि बैंकिंग का बुनियादी ढांचा मौजूद हो, तो वह किसान क्रेडिट कार्ड बनवा सकते हैं और ऋण के लिए आवेदन कर सकते हैं.

किसानों को दिये जाने वाले कर्जों में सहकारी क्षेत्र की एक अहम भूमिका रही है. एक समय में कुल कृषि ऋण का करीब 40 फीसदी हिस्सा सहकारी क्षेत्र से दिया जाता था. इनमें कोऑपरेटिव या सहकारी बैंक तथा प्राथमिक कृषि ऋण समितियां या पैक्स आते हैं. सबसे निचले स्तर की संस्था पैक्स है, जो इस मायने में अहम है कि यह किसानों की खुद की अपनी बनायी संस्था है. किसान ही इसके सदस्य होते हैं और इनका प्रबंधन भी किसानों के ही हाथों में होता है. संस्थागत ऋण व्यवस्था के तहत पैक्स के माध्यम से किसानों को कर्ज मिला करता है.

पैक्स कर्ज के लिए किसानों की सबसे नजदीक की संस्था है, और इसलिए वर्तमान सरकार उनके विकास और कुशल संचालन पर जोर दे रही है. वर्ष 2021 में एक नया सहकारिता मंत्रालय बनाया गया है जिसके मंत्री अभी अमित शाह हैं. उन्होंने पिछले दिनों जानकारी दी कि देश की हर पंचायत में एक पैक्स गठित करने का लक्ष्य है. इससे कर्ज लेने के लिए किसानों की पहुंच बढ़ेगी क्योंकि हर गांव तक बैंक की सुविधा नहीं होती और वे ज्यादातर शहरों या कस्बों में केंद्रित होते हैं.

यहां यह ध्यान रखना जरूरी है कि किसानों को फसल ऋण हर तरह के बैंक से मिल सकते हैं, वह चाहे सरकारी बैंक हों या निजी बैंक. निजी बैंक भी गांवों तक पहुंच बढ़ाना चाहते हैं, लेकिन पैक्स की सक्रियता बढ़ने से किसानों को आसानी होगी. पैक्स को प्रभावशाली बनाने के लिए सरकार ने अभी उनके कंप्यूटरीकरण और डिजिटलाइजेशन की भी योजना लागू की है.

किसानों की जानकारी, या उनकी केवाइसी जैसे आंकड़ों के कंप्यूटरों में दर्ज होने से कर्ज की इस पूरी व्यवस्था के केंद्रीकरण में सहायता मिलेगी. इससे पैक्स को बैंकों से लिंक करने में भी आसानी हो सकेगी, जिनसे कि किसानों के लिए कर्ज की राशि निर्गत होनी है. इनसे कर्जों की ट्रैकिंग में भी आसानी होगी. साथ ही, राष्ट्रीय स्तर पर एक पूरी तस्वीर उभरकर सामने आ सकेगी कि कहां पर और कैसे किसान किस तरह के कर्ज ले रहे हैं, तथा कहां के पैक्स अच्छा काम कर रहे हैं और कहां समस्याएं आ रही हैं. लेकिन, अभी इस पूरी प्रक्रिया को पूरा होने में समय लगेगा. इनके अलावा, पैक्स के संचालन में मुख्य भूमिका राज्यों की होती है क्योंकि वह उनके अधिकार क्षेत्र में आता है.

केंद्र सरकार का एक प्रयास पैक्स को बहुउद्देश्यीय कार्यों की समितियों में बदलना भी है. सरकार की कोशिश है, कि पैक्स केवल ऋणों के लेन-देन का ही काम ना कर दूसरे काम भी करें. जैसे कि, पैक्स की मदद से ग्रामीण इलाकों में गैस एजेंसियां, पेट्रोल पंप खोलने जैसे अन्य कारोबार भी शुरू करने की कोशिश होगी. इसका उद्देश्य पैक्स को आर्थिक तौर पर सशक्त बनाना है. इससे दो तरह के फायदे होंगे. एक तो इन सहकारी समितियों से जुड़े लोगों के लिए आर्थिक उन्नति के नये रास्ते खुलेंगे. साथ ही, इससे सहकारी समितियां मजबूत होंगी. यह तभी संभव है जब उन्हें ज्यादा काम मिलेगा और उनके सामने कमाई के ज्यादा विकल्प होंगे.

भारत में सहकारिता आंदोलन का इतिहास आजादी के पहले से शुरू होता है. भारत में अमूल, कृभको, इफ्को जैसी सहकारी संस्थाओं की कामयाबी के उदाहरण भी रहे हैं. लेकिन, राजनीतिक और नौकरशाही के बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप से बहुत सारी सहकारी संस्थाएं कमजोर हो गयीं क्योंकि प्रबंधन तर्कसंगत फैसले नहीं कर सका. लेकिन, वर्तमान सरकार सहकारिता क्षेत्र को मजबूत करने के लिए कई कदम उठा रही है. इनकी कामयाबी से ग्रामीण भारत और किसानों को बहुत लाभ होगा.

(बातचीत पर आधारित)

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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