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युद्ध की आशंका से बढ़ती आर्थिक चिंता

मध्य-पूर्व में तनाव और अनिश्चितता केवल हथियार कारोबारियों के लिए अच्छी खबर है. बाकी के लिए यह आर्थिक तौर पर बुरी खबर है. चीन और रूस (दोनों सुरक्षा परिषद के सदस्य हैं) ने ईरान के हमलों की निंदा नहीं की है.

तैंतीस वर्षों में पहली बार किसी देश ने 13 अप्रैल को इस्राइल पर हमला किया. पिछली बार 1991 में इराक ने इस्राइल पर स्कड मिसाइलें दागी थीं. अब ईरान ने 360 मिसाइलों और ड्रोनों से इस्राइल के विभिन्न स्थानों पर हमला किया है. इनमें धीमी गति के ड्रोन भी थे, जिन्हें इस्राइल पहुंचने में छह घंटे से अधिक लगे, तो तेज गति की मिसाइलें भी थीं. ईरान के विदेश मंत्री ने पड़ोसी देशों को इस हमले के बारे में 72 घंटे पहले बता दिया था. इस्राइल लगभग 99 प्रतिशत मिसाइलों और ड्रोनों को गिराने में सफल रहा, इसलिए उसे कोई खास नुकसान नहीं हुआ.

ऐसा उन्नत मिसाइल-रोधी रक्षा प्रणाली- आयरन डोम- के कारण संभव हो सका, जिसे इस्राइल ने अमेरिकी और ब्रिटिश मदद से तैयार किया है. इस बार इस प्रणाली को जॉर्डन की धरती पर भी तैनात किया गया था. कुछ घंटों की इस रक्षा का अनुमानित खर्च लगभग 1.1 अरब डॉलर था. इस तरह की प्रणालियों को तैनात करने से रक्षा कंपनियों, मुख्य रूप से अमेरिकी कंपनियों, को लाभ होने की आशा है. दो साल से अधिक समय से यूक्रेन में चल रहे युद्ध से भी अमेरिकी हथियार निर्माता कंपनियों को पहले ही बहुत फायदा हो चुका है. इन हमलों के लिए ईरान को भी संभवतः एक अरब डॉलर के आसपास की राशि खर्च करनी पड़ी है.

सीरिया की राजधानी दमिश्क में एक अप्रैल को अपने दूतावास पर हुए इस्राइली हमले के बदले में ईरान ने इन हमलों को अंजाम दिया है. उस हमले में ईरान के दो वरिष्ठ सैन्य अधिकारी मारे गये थे. आखिर इस्राइल या उसके प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने वैसे हमले की अनुमति क्यों दी, जो एक कूटनीतिक निशाने पर था और ईरान ने पहले ऐसा कोई हमला भी नहीं किया था? क्या इस्राइल हमास के साथ चल रही लड़ाई का दायरा बढ़ाना तथा दूसरों को इसमें खींचना चाहता है? क्या उसे पता नहीं था कि ऐसी कोई कार्रवाई जवाबी हमले का कारण बन सकती है? या उसे ईरान से ऐसे ठोस हमले का अंदेशा नहीं था? इस्राइल के समर्थक तर्क देंगे कि दमिश्क का हमला बिना उकसावे के नहीं किया गया था. यह उनको दंडित करने के लिए था, जो हमास की सहायता कर रहे हैं. इस्राइल में हमास, लेबनान में हिज्बुल्लाह और यमन में हूथियों को ईरान का परोक्ष समर्थन जगजाहिर है. इस्राइल पहले भी उसके परमाणु कार्यक्रम को रोकने के इरादे से और हमास एवं हिज्बुल्लाह के समर्थन के विरोध में ईरान में इंफ्रास्ट्रक्चर और सैन्य ठिकानों पर हमले कर चुका है. 

ईरान भी परमाणु हथियार क्षमता बढ़ाने में तेजी से जुटा हुआ है. इस्राइल भी परमाणु शक्ति संपन्न देश है, जिसने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है. कुछ टीवी और सोशल मीडिया चैनलों पर ईरान के हमलों को तीसरे विश्व युद्ध की शुरुआत बताया गया. स्टॉक मार्केट में हलचल मच गयी. ईरानी कार्रवाई की आशंका में शुक्रवार को ही न्यूयॉर्क का डाऊ सूचकांक 2.4 प्रतिशत गिर गया था. दुनियाभर में शेयर बाजारों में गिरावट का रुख है. सोने का भाव अभूतपूर्व स्तर पर है. जल्दी ही भारत में इसका प्रति दस ग्राम दाम 80 हजार रुपये से अधिक हो जायेगा. सोने की बड़ी मांग इंगित करती है कि जोखिम से बचने वाले निवेशकों को डर है कि बाकी परिसंपत्तियों के दाम बहुत घट सकते हैं. चूंकि यह संघर्ष मध्य-पूर्व से आपूर्ति को बाधित करेगा, तो तेल के दाम निश्चित रूप से बढ़ेंगे. समुद्र और हवाई मार्गों से ढुलाई के बीमा का खर्च भी बढ़ेगा, जिससे अंतरराष्ट्रीय व्यापार के खर्च में बढ़ोतरी होगी. 

ऐसे में भारत पर तिहरा दबाव होगा. विदेशी मुद्रा भंडार में कमी होगी, व्यापार घाटा बढ़ेगा और मुद्रा पर दबाव बढ़ेगा तथा तेल महंगा होने से मुद्रास्फीति भी बढ़ सकती है. बीते वित्त वर्ष की चौथी तिमाही (जनवरी-मार्च 2024) में वृद्धि की गति धीमी पड़ी है और इस अवधि में जीडीपी वृद्धि दर लगभग छह प्रतिशत रहने की आशा है. बिगड़ते माहौल में यह और कम हो सकती है, हालांकि चुनावी खर्च से जीडीपी को मदद मिलती है. वस्तु निर्यात पर नकारात्मक असर पड़ सकता है. लाल सागर में हूथी हमलों से समुद्री व्यापार महंगा हुआ है, जो अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए नकारात्मक है. खुदरा मुद्रास्फीति के मोर्चे पर अच्छी खबर नहीं है और तेल के दाम उसे और बिगाड़ सकते हैं. 

इसीलिए रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कटौती नहीं की है, जिससे आवास और वाहन ऋण में मदद मिल सकती थी. रोजगार के क्षेत्र में भी स्थिति ठीक नहीं है. हाल में प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन एवं इंस्टिट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट की रिपोर्ट में युवा बेरोजगारी, कौशल का अभाव और श्रम बल में कम महिला भागीदारी को लेकर निराशाजनक तस्वीर पेश की गयी है. भारत में महिला भागीदारी और पुरुषों की अपेक्षा कम मेहनताना की स्थिति 2005 से ही बिगड़ रही है, जबकि दुनिया के अन्य हिस्सों में यह खाई कम हो रही है. अनुमान है कि कोविड के बाद पांच करोड़ कामगार खेती में लौटे हैं, जहां उत्पादकता कम है, गुणवत्तापूर्ण रोजगार नहीं है और कमतर रोजगार भी है. रोजगार की स्थिति में सुधार के लिए बड़े पैमाने पर अवसर पैदा करने की आवश्यकता है, जो मुख्य रूप से निजी क्षेत्र द्वारा ही हो सकता है. इसके लिए निवेशकों में भरोसा होना चाहिए तथा नये उपक्रमों, कारोबारों और उद्यमों में बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है. केवल सरकारी खर्च से व्यापक स्तर पर रोजगार सृजन संभव नहीं है.

मध्य-पूर्व में तनाव और अनिश्चितता केवल हथियार कारोबारियों के लिए अच्छी खबर है. बाकी के लिए यह आर्थिक तौर पर बुरी खबर है. चीन और रूस (दोनों सुरक्षा परिषद के सदस्य हैं) ने ईरान के हमलों की निंदा नहीं की है. गाजा में इस्राइली हमलों को रोकने के संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों पर अमेरिका ने लगातार वीटो किया है. सात अक्तूबर के हमास के आतंकी हमले के जवाब में इस्राइल की कार्रवाई का स्तर बहुत अधिक रहा है, जिसमें 30 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें बच्चों एवं महिलाओं समेत अधिकतर नागरिक हैं. न तो गाजा में और न ही यूक्रेन में हमले थमने के आसार हैं. युद्ध के बादल घने होते जा रहे हैं और युद्ध उन्मादियों की आवाज शांति का निवेदन करने वालों से अधिक तेज है. नेता असफल साबित हुए हैं. यह सब कुछ भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है, जो पहले से ही मुद्रास्फीति, ठिठके निजी निवेश, उच्च युवा बेरोजगारी और बढ़ती विषमता जैसी चुनौतियों से जूझ रही है.

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