कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
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नीति आयोग के अमिताभ कांत को लगता है कि जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र हमारे देश की जड़ें खोद रहा है, जबकि कांग्रेस के वरिष्ठजनों को लगता है कांग्रेस में जरूरत से कम लोकतंत्र उसे लगातार कमजोर बनाता जा रहा है. लोकतंत्र ही है एक ऐसा खिलौना, जिससे अमिताभ कांत जैसे लोग भी अौर कांग्रेस के ‘दादा’ लोग भी जब चाहें, वैसे खेलते हैं. लेकिन, मुसीबत है कि लोकतंत्र कोई खिलौना नहीं है. एक गंभीर प्रक्रिया व गहरी अास्था है.
कांग्रेस के ‘दादाअों’ को लगता है कि नेहरू-परिवार की मुट्ठी में पार्टी का दम घुट रहा है. सबकी उंगली राहुल गांधी की तरफ उठती है कि वे राजनीति को गंभीरता से नहीं, सैर-सपाटे की तरह लेते हैं. लेकिन उनमें से कौन कांग्रेस की कमजोर होती स्थिति को गंभीरता से लेता है? मोतीलाल नेहरू से शुरू कर इंदिरा गांधी तक नेहरू-परिवार अपनी बनावट में राजनीतिक प्राणी रहा है अौर अपनी मर्जी से सत्ता की राजनीति में उतरा है.
संजय गांधी को भी परिवार की यह भूख विरासत में मिली थी. अगर हवाई जहाज की दुर्घटना में उनकी मौत न हुई होती, तो नेहरू परिवार का इतिहास व भूगोल दोनों आज से भिन्न होता. उनकी मौत के बाद इंदिरा समझ सकीं कि उनके वारिस राजीव गांधी में वह राजनीतिक भूख नहीं है.
उन्होंने राजीव गांधी पर सत्ता थोप दी, ताकि उनकी भूख जागे. पुरानी बात है कि कुछ महान पैदा होते हैं, कुछ महानता प्राप्त करते हैं अौर कुछ पर महानता थोप दी जाती है. अनिच्छुक राजीव गांधी पर मां ने सत्ता थोप दी अौर जब तक वे इसके रास्ते-गलियां समझ पाते, मां की भी हत्या हो गयी. थोपी हुई सत्ता राजीव से चिपक गयी अौर धीरे-धीरे राजीव अनिच्छा से बाहर निकलकर, सत्ता की शक्ति अौर सत्ता का सुख, दोनों समझने और चाहने लगे.
उनमें मां का तेवर तो नहीं था, लेकिन तरीका मां का ही था. तमिलनाडु की चुनावी सभा में, लिट्टे के मानव-बम से वे मारे नहीं जाते, तो हम उन्हें अपने खानदान के रंग व ढंग से राजनीति करते देखते. विश्वनाथ प्रताप सिंह की दागी बोफोर्स तोप के निशाने से पार पाकर, वे अपने बल पर बहुमत पाने अौर सत्ता की बागडोर संभालने की तैयारी पर थे.
राजीवविहीन कांग्रेस इस शून्य को भरने के लिए फिर नेहरू-परिवार की तरफ देखने लगी, लेकिन अब वहां बची थीं सिर्फ सोनिया गांधी, राजनीति से एकदम अनजान व उदासीन, दो छोटे बच्चों को संभालने व उन्हें राजनीति की धूप से बचाने की जी-तोड़ कोशिश में लगी एक विदेशी लड़की! लेकिन जो राजीव गांधी के साथ उनकी मां ने किया, वैसा ही कुछ सोनिया गांधी के साथ कांग्रेस के उन बड़े नेताअों ने किया, जो नरसिम्हा राव, सीताराम केसरी अादि मोहरों की चालों से बेजार हुए जा रहे थे.
उन्होंने सोनिया गांधी पर कांग्रेस थोप दी. फिर सोनिया गांधी ने वह किया जो उनके पति राजीव ने किया था- राजनीति को समझा भी अौर फिर उसमें पूरा रस लेने लगीं. मुझे पता नहीं कि आधुनिक दुनिया के लोकतांत्रिक पटल पर कहीं कोई दूसरी सोनिया गांधी हैं या नहीं. सोनिया गांधी ने कांग्रेस को वह सब दिया जो नेहरू-परिवार से उसे मिलता रहा था- बस अंतर था कि वे इस परिवार की इटली-संस्करण थीं. सोनिया गांधी ने बहुत संयम, गरिमा से बारीक राजनीतिक चालें चलीं.
प्रधानमंत्री की अपनी कुर्सी किसी दूसरे को दे देने अौर फिर भी कुर्सी को अपनी मुट्ठी में रखने का कमाल भी उन्होंने कर दिखलाया. राहुल गांधी को उनकी मां ने कांग्रेस-प्रमुख व प्रधानमंत्री की भूमिका में तैयार किया. राहुल भी अपने पिता व मां की तरह ही राजनीति के तालाब की मछली नहीं थे लेकिन उन्हें मां ने चुनने का मौका नहीं दिया.
राहुल तालाब में उतार तो दिये गये. जल्द ही वे इसका विशाल व सर्वभक्षी रूप देख कर किनारे भागने लगे. इसका मतलब यह नहीं है कि राहुल को राजनीति नहीं करनी है या वे सत्ता की तरफ उन्मुख नहीं हैं. अब तो उनकी शुरुआती झिझक भी चली गयी है लेकिन, कांग्रेस का इंदिरा गांधी संस्करण उनको पचता नहीं है. वे इसे बदलना चाहते हैं, लेकिन वह बदलाव क्या है अौर कैसे होगा, इसका उनके पास साफ नक्शा नहीं है. यहीं आकर कांग्रेस ठिठक गयी है.
मतदाता उसकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा है. वह अपनी मुट्ठी कैसे बंद करे, यह बतानेवाला उसके पास कोई नहीं है. यदि राहुल गांधी यह समझ लें कि अागे का रास्ता बनाने के लिए नेतृत्व को एक बिंदु से आगे सफाई करनी ही पड़ती है. जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, उनके पिता राजीव गांधी, सबने ऐसी सफाई की है. राहुल यहीं आकर चूक जाते हैं या पीछे हट जाते हैं. वे कांग्रेस अध्यक्ष भी रहे, लेकिन अब तक अपनी टीम नहीं बना पाये हैं.
कांग्रेस को ऐसे राहुल की जरूरत है जो उसे गढ़ सके अौर आगे ले जा सके. वह तथाकथित ‘वरिष्ठ कांग्रेसजनों’ से पूछ सके कि यदि मैं कांग्रेस की राजनीति को गंभीरता से नहीं ले रहा हूं, तो आपको आगे बढ़कर गंभीरता से लेने से किसने रोका है? पिछले संसदीय चुनाव या राज्यों के चुनाव में इन वरिष्ठ कांग्रेसियों में से कोई काम करता दिखायी नहीं दिया, दिखायी नहीं देता है तो क्यों? जब राहुल ‘चौकीदार चोर है!’ की हांक लगाते सारे देश में घूम रहे थे, तब कोई वरिष्ठ कांग्रेसी उसकी प्रतिध्वनि नहीं उठा रहा था?
अगर ऐसे नारे से किसी को एतराज था, तो किसी ने कोई नया नारा क्यों नहीं गुंजाया? ऐसा क्यों है कि राहुल ही हैं कि जो अपने बयानों-ट्विटों में सरकार को सीधे निशाने पर लेते हैं बाकी कौन, कब, क्या बोलता है, किसने सुना है? शुरू में राहुल कई बार कच्चेपन का परिचय दिया करते थे, क्योंकि उनके पीछे संभालने वाला कोई राजनीतिक हाथ नहीं था. अब वक्त ने उन्हें संभाल दिया है.
इस राहुल को कांग्रेस अपनाने को तैयार हो तो कांग्रेस के लिए आज भी आशा है. राहुल को पार्टी के साथ काम करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, क्योंकि कांग्रेस में आज राजस्थान के मुख्यमंत्री के अलावा दूसरा कोई नहीं है, जो पार्टी को नगरपालिका का चुनाव भी जिता सके. अशोक गहलोत कांग्रेस के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने खुली चुनौती देकर भाजपा को चुनाव में हराया अौर फिर चुनौती देकर सरकार गिराने की रणनीति में उसे मात दी. यह राजनीति का राहुल-ढंग है. ऐसी कांग्रेस अौर ऐसे राहुल ही एक-दूसरे को बचा सकते हैं.
Posted By : Sameer Oraon