साम्राज्य और सम्राट आते-जाते रहते हैं, पर कुछ संस्थाएं अमर्त्य होती हैं. रोमन साम्राज्य 476 ईस्वी में खत्म हो गया, पर पैक्स रोमाना आधुनिक न्याय का आधार बना. साल 1216 में सम्राट जॉन की मौत हो गयी, पर मैग्ना कार्टा ने लोकतंत्र की नींव रखी. प्रभारी व्यक्ति मरणशील होते हैं. जब तक उनके हाथ में चाबी होती है, वे अपने कृत्यों से भरोसेमंद संस्थाओं की छवि बेहतर कर सकते हैं या बिगाड़ सकते हैं. बीते कुछ सप्ताह से भारत के चुनाव आयोग का व्यवहार ऐसे ही क्षरण का उदाहरण हैं. आयोग पर फैसले में देरी, आंकड़ों के मामले में पारदर्शिता की कमी और सही शिकायतों, खासकर विपक्ष की, की अनदेखी के आरोप लगाये जा रहे हैं. पिछले हफ्ते 11 दिन के बाद मतदान के आंकड़े जारी करने को लेकर उसकी तीखी आलोचना हुई. जारी आंकड़े भी अधूरे हैं तथा संदेहास्पद रूप से चुनाव के तुरंत बाद आयोग के बताये आंकड़ों से बहुत अलग हैं. अतीत में भी ऐसी देर होने के उदाहरण हैं, पर इस बार तौर-तरीका ठीक नहीं था. आज के डिजिटल युग में चुनाव आयोग की धीमी गति को कोई स्वीकार नहीं कर सकता है. तमाम संसाधनों के बावजूद आयोग ने सात चरणों का चुनाव कार्यक्रम बनाया, जबकि उसे आसन्न लू की जानकारी थी.
कभी वह दौर भी था, तब इतना बड़ा चुनाव कराने के लिए दुनियाभर में आयोग की प्रशंसा होती थी. सत्तर के दशक को छोड़कर भारत में चुनाव आम तौर पर स्वच्छ एवं शांतिपूर्ण रहे हैं. आयोग को राजनीतिक नाराजगी का सामना करना पड़ता था, पर सभी उम्मीदवार उसके परिणाम को मानते थे. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब प्रतिद्वंद्वियों से कहीं ज्यादा आयोग उनके निशाने पर है. यह धारणा उसकी दुश्मन बन गयी है कि आयोग को एक खास दल द्वारा संचालित एवं निर्देशित किया जा रहा है. आयोग बड़ी मात्रा में नगदी और नशीले पदार्थों की बरामदगी के लिए अपने को शाबाशी दे रहा है, लेकिन चुनाव कार्यक्रम बनाने और आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई न करने जैसी बातें संदिग्ध ही कही जायेंगी. तीनों चुनाव आयुक्तों का रिकॉर्ड बहुत अच्छा रहा है. मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार वित्त सचिव रह चुके हैं. उन्हें बैंकिंग क्षेत्र का कायापलट करने तथा प्रभावी वित्तीय सुधारों को लाने का श्रेय जाता है. दो आयुक्त वर्तमान सरकार की इंफ्रास्ट्रक्चर पहलों तथा गृह मंत्री से संबद्ध रहे हैं. लेकिन जिस तरह से और जल्दबाजी में उन्हें नियुक्त किया गया, उससे बड़े विवाद पैदा हुए.
चुनाव आयोग उन कुछ नौकरशाहों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद के लिए अच्छा अवसर बन गया है, जिनकी मुख्य योग्यता सत्ता प्रतिष्ठान से निकटता है. उनकी गुणात्मक उपलब्धियां अब नियम नहीं, अपवाद बन गयी हैं. आयोग का प्रारंभ एक उच्च नैतिक स्तर के साथ हुआ था, जब पहला लोकसभा चुनाव कराने के लिए प्रतिष्ठित सिविल सेवा अधिकारी सुकुमार सेन को नियुक्त किया गया था. उन्होंने दूसरा आम चुनाव भी कराया था. अब तक 24 मुख्य चुनाव आयुक्त हो चुके हैं. जब से मेधा पर राजनीति हावी हुई, तब से आयोग की छवि धूमिल होने लगी. मसलन, नवंबर, 1990 में वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद आंध्र प्रदेश की एक वकील वीएस रमादेवी को पहली महिला मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर नियुक्त किया गया. दो हफ्ते बाद ही उनकी जगह टीएन शेषण की नियुक्ति हो गयी. उन्होंने नियमों के उल्लंघनों के विरुद्ध जो कड़ी कार्रवाई की, उससे संस्था का राजनीतिकरण हुआ. शेषण ने उम्मीदवारों पर तमाम वैध पाबंदियों को लगा दिया. मुख्य चुनाव आयुक्त की शक्तियों को नियंत्रित करने की मांग के साथ सरकार सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गयी.
तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने आयोग को तीन-सदस्यीय बना दिया और सभी की शक्तियां बराबर कर दी गयीं. पर वे बहुमत के अभाव में मुख्य आयुक्त को हटाने के नियम में बदलाव नहीं कर सके. मुख्य आयुक्त को केवल संसद द्वारा हटाया जा सकता है, जबकि आयुक्तों को हटाने की सिफारिश राष्ट्रपति से करने का अधिकार मुख्य आयुक्त को है. ऐसे में आयुक्तों के दबाव में आने की आशंका रहती है. तीन सदस्य होने से उनके बीच आंतरिक संघर्ष को बढ़ावा मिला. उदाहरण के लिए, जनवरी 2009 में मुख्य आयुक्त एन गोपालस्वामी ने अपने सहकर्मी नवीन चावला को हटाने के लिए राष्ट्रपति को लिख दिया. उन्होंने चावला पर कांग्रेस को खुलकर समर्थन देने का आरोप लगाया था. गोपालस्वामी वाजपेयी सरकार के दौरान गृह सचिव रह चुके थे और उन्हें संघ परिवार के निकट माना जाता था. मनमोहन सरकार ने उनकी सिफारिश को खारिज कर दिया और बाद में चावला मुख्य आयुक्त बने. तब से सभी सरकारों ने सत्ताधारी पार्टी से नजदीकी रखने वाले लोगों को आयोग में नियुक्त किया है. सच यह है कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव आयोग के चयन पर नियंत्रण को हाथ से नहीं जाने देना चाहता है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक भरोसेमंद पैनल बनाने के निर्देश के बावजूद वर्तमान सरकार ने भारत के प्रधान न्यायाधीश को ही पैनल से हटा दिया और अपना बहुमत बरकरार रखा. ऐसे अधिकार से सरकार को अपनी इच्छा से ऐसे लोगों को चुनने का मौका मिल जाता है, जो उसकी इच्छानुसार काम करने की परीक्षा में पास हुए हैं. यह त्रासद है कि हमारे संविधान निर्माताओं में प्रखर एवं प्रमुख लोग भी किसी सत्तारूढ़ दल द्वारा चुनाव आयोग के संभावित दुरुपयोग का अनुमान नहीं लगा सके. आयुक्तों की स्वतंत्र नियुक्ति प्रक्रिया एवं व्यवस्था के बारे में संविधान में कोई प्रावधान नहीं है, जबकि कई लोकतंत्रों में ऐसे प्रावधान हैं. मसलन, अमेरिका में सर्वशक्तिमान राष्ट्रपति भी आधे दर्जन संघीय चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति बिना सीनेट की मंजूरी के नहीं कर सकता है.
यह चुनाव आयोग का कर्तव्य है कि वह अपने भरोसे और स्वीकार्यता की सुरक्षा करे. भारत ने मतदान में व्यापक बढ़ोतरी देखी है. साल 2009 में मतदान प्रतिशत 58.21 था, जो मोदी शासन में 67.40 हो गया. लोगों की धारणा को मानें, तो प्रधानमंत्री तीसरी बार जीत की ओर बढ़ रहे हैं. ऐसे में चुनाव आयोग का कोई संदिग्ध या अनुचित कृत्य न केवल इस संभावित जीत को संदेह के घेरे में लायेगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के एक और विशिष्ट संस्था के मौत की घंटी भी साबित होगा. तादाद के साथ जीता जाने वाला चुनाव दिल के साथ भी जीता जाना चाहिए. संस्थाओं को संदेह से ऊपर होना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)