Rural India: स्तंवत्रता की जो परिकल्पना स्वाधीनता सेनानियों की थी, उसमें स्वतंत्रता प्रति के बाद भारी भटकाव हुआ, ऐसा मुझे लगता है. उस परिकल्पना के मूल में यह बात थी कि भारत जब स्वतंत्र होगा, तो वह अपनी व्यवस्थाएं लागू करेगा, जैसा समाज हमारा पहले था, उसकी नींव पर देश अपना पुनर्निर्माण, नवनिर्माण करेगा. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से जो प्रधानमंत्री आये, उनके इरादे नेक थे, लेकिन ज्यादातर प्रधानमंत्री भटके हुए थे. यह भटकाव दरअसल समझ का है. मेरे ऐसा कहने का अर्थ यह है कि चाहे वह 1905 से 1908 तक का दौर हो या 1920 से 1947 तक का दौर हो, यही वे दो दौर हैं, जब भारत की स्वतंत्रता की परिकल्पना की गयी थी.
वर्ष 1905 में नौ अगस्त को चार व्यक्ति- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, अरविंदो और रवींद्रनाथ ठाकुर- कोलकाता में एकत्र हुए थे. उन्होंने स्वदेशी का प्रारंभ किया. साल 1920 में जब गांधी जी ने कांग्रेस का नेतृत्व संभाला, तो उन्होंने जो विधान कांग्रेस के लिए बनाया, उसमें खादी था, चरखा था, यानी स्वदेशी आयाम था. उसका बड़ा असर ब्रिटेन की कंपनियों पर पड़ा. परंतु आजादी के बाद हमने जो रास्ता चुना, उसमें औपनिवेशिक शासन व्यवस्था को ही चलाये रखा और कोई बड़ा परिवर्तन नहीं किया. हालांकि पहले और दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने अच्छा काम किया था और उन्होंने जो सुझाव दिये हैं, उनको अगर सरकारों ने स्वीकार कर उन पर अमल किया होता, तो भी कुछ सार्थक परिवर्तन हो सकता था.
चाहे भ्रष्टाचार की समस्या हो या चुनाव का बड़ा भारी खर्च हो, अमीरी और गरीबी की चौड़ी खाई हो, क्षेत्रीय विषमता हो, दलित एवं आदिवासी अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं, यह मसला हो, सीमा की सुरक्षा का विषय हो, ऐसी तमाम समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, ऐसा मेरा मानना है. भारत के पास प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन हैं, मनुष्य की बड़ी शक्ति है, प्रतिभा है, यह सब होने पर भी इन सबका लाभ बाहर के लोगों को मिल रहा है. हमें स्वतंत्रता मिली थी देशभक्ति और बलिदान के बल पर. इसका ठीक उल्टा उदाहरण हमें देखने को मिल रहा है. पिछले दिनों राज्यसभा में सरकार ने जानकारी दी है कि 2023 तक लगभग ढाई लाख लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ दी है. इसका मतलब यह है कि जिन लोगों ने नागरिकता छोड़ी है, उन्हें भगाया नहीं गया है, उनका दमन नहीं हुआ है, वे बड़े संपन्न लोग हैं. वे भारत को छोड़ कर ऐसे ‘टैक्स हेवन’ देशों में गये हैं, जहां वे अपनी कमाई और कई गुना बढ़ा सकते हैं.
स्वतंत्रता की सौवीं वर्षगांठ 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प उत्साहजनक है, श्रेष्ठ है. पर यहां प्रश्न यह है कि क्या हम उस लक्ष्य की ओर पूरे तन-मन से आगे बढ़ रहे हैं. शासन जिनको चलाना है, यानी शासन तंत्र, यहां मैं राजनीतिक नेतृत्व की बात नहीं कर रहा हूं, का स्वभाव, रंग-ढंग, आम लोगों के प्रति उसका रवैया सही नहीं है. जब तक शासन तंत्र को पूरी तरह जवाबदेह नहीं बनाया जाता, तब तक हम लक्ष्य चाहे जो रखें, उस लक्ष्य को हासिल करने में बड़ी कठिनाइयां आयेंगी. प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गांधी का रास्ता छोड़ दिया, जिसके कारण कई तरह की विपदा भारत पर आयी है और आगे भी आती रहेगी. यह समस्या के मूल में है. गांधी जी चाहते थे कि ग्राम स्वराज की व्यवस्था स्थापित हो. इस संबंध में मैंने जितना भी पढ़ा-लिखा है, उसके आधार पर मेरा यह स्पष्ट मत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2047 के लिए एक ऊंचा लक्ष्य रखा है, वह प्रेरक है, इसमें कोई दो राय नहीं है. लेकिन सवाल है कि यह हासिल कैसे होगा. इसके लिए मुझे एक ही मंत्र का पता है. यह लक्ष्य तब हासिल होगा, जब भारत में गांव आत्मनिर्भर बनेंगे, गांव खुशहाल बनेंगे, गांव के हाथ में सत्ता आयेगी और वे अपना निर्णय स्वयं कर सकेंगे.
इस दिशा में देर से सही, पर एक अच्छा कदम नब्बे के दशक के शुरू में भारत सरकार ने उठाया. वह कदम था संविधान में 73वां और 74वां संशोधन करना. इससे पंचायती राज कायम करने में जो कमी रह गयी थी, वह दूर हुई. आज जो जरूरत है, वह यह है कि 73वें संविधान संशोधन का एक ठोस मूल्यांकन होना चाहिए कि क्या उससे वास्तव में गांवों को ताकत मिली है. अगर गांवों का समुचित सशक्तीकरण नहीं हो सका है, तो इस पर विचार किया जाना चाहिए कि कानून में क्या बदलाव किये जाने की जरूरत है. यह भी ध्यान देने की बात है कि यह विषय राज्यों का है. विभिन्न राज्यों में अपनी सुविधा और समझ से कानून बनाये गये हैं. राजनीतिक नेतृत्व को हम संचालन करते हुए देखते हैं, पर वास्तव में संचालन की भूमिका प्रशासन तंत्र द्वारा निभायी जाती है. प्रशासन तंत्र पंचायती राज व्यवस्था को आज भी लागू नहीं करना चाहता है. बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने बहुत अच्छे से पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया है. लेकिन यह कहने का मतलब यह नहीं है कि उसने सब कुछ कर ही दिया है. कई राज्यों में अच्छा काम हो रहा है. लेकिन किसी भी राज्य में ग्राम सभा को अधिकार नहीं मिला है.
मेरा कहना है कि ग्राम सभा को अधिकार मिले, बजट मिले, कर्मचारी मिलें. उसे अपने निर्णय लेने का अधिकार मिले. जो जिलाधिकारी होता है, अगर वह जिला पंचायत के अधीन होगा, तो स्थिति बेहतर होगी. दूसरी बात सांसद निधि के संबंध में है, जो इससे जुड़ी हुई है. नरसिम्हा राव की सरकार अल्पमत की सरकार थी, तब इस सांसद निधि योजना को लाया गया था, जो वास्तव में सांसदों को एक प्रकार की रिश्वत थी. उस निधि के कारण हमारे जन-प्रतिनिधियों का चरित्र बदल गया है. लोगों की निगाह में वे संदेहास्पद हो गये हैं क्योंकि वे जिला प्रशासन और ठेकेदारों के साथ मिलकर उस धन को खर्च करते हैं. सभी लोग बहुत भ्रष्ट हैं, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं, पर लोगों की निगाह में सांसद निधि के कारण जन-प्रतिनिधियों की छवि खराब हुई है, जबकि एक दौर था, जब लोग उन्हें बड़े सम्मान से देखा करते थे. यह सांसद निधि पंचायतों में खर्च होती है, तो क्यों नहीं इस योजना को बंद कर यही धन सीधे ग्राम पंचायतों को दे दिया जाए. यदि इतनी-सी बात पर ध्यान दिया जाए, तो उत्साहजनक वातावरण बनेगा. यह देश के विकास के लिए बहुत आवश्यक है.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)