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फांसी के फंदे भी नहीं तोड़ पाये थे उनके हौसले

मदांध गोरी सत्ता ने 1927 में 19 दिसंबर को चंद्रशेखर आजाद के प्रधान सेनापतित्व वाली हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के तीन क्रांतिकारियों- पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां और रौशन सिंह को क्रमशः गोरखपुर, फैजाबाद और इलाहाबाद की जेलों में शहीद कर दिया था.

मदांध गोरी सत्ता ने 1927 में 19 दिसंबर को चंद्रशेखर आजाद के प्रधान सेनापतित्व वाली हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के तीन क्रांतिकारियों- पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां और रौशन सिंह को क्रमशः गोरखपुर, फैजाबाद और इलाहाबाद की जेलों में शहीद कर दिया था. उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन के लिए धन जुटाने के अभियान में नौ अगस्त, 1925 को यात्री गाड़ी से ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लखनऊ में काकोरी रेलवे स्टेशन के पास अपने कब्जे में ले लिया था.

उस कार्रवाई पर मुकदमे के लंबे नाटक के बाद उसने इन तीनों सहित राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को भी मौत की सजा दी थी. कई अन्य क्रांतिकारियों को लंबी कैद की सजा दी गयी थी, लेकिन फांसी के फंदे भी इन क्रांतिकारियों का हौसला नहीं तोड़ पाये. इनमें रौशन सिंह उम्र में सबसे बड़े थे. उन्होंने काकोरी एक्शन में भाग ही नहीं लिया था, गोरी पुलिस फिर भी उन्हें सजा दिलाने पर तुली हुई थी. क्रांतिकारियों को लगता था कि वह उन्हें मौत क्या, कोई भी बड़ी सजा नहीं दिला पायेगी, लेकिन इस पर जेल में वे सब नाटक के खेल करते थे और जज बना क्रांतिकारी रौशन को मामूली सजा सुनाता, तो वे बिफर कर हंगामा करने लगते.

छह अप्रैल, 1927 को जज ने उन्हें सचमुच सजा सुनानी शुरू की, तो उन्हें लगा कि वास्तव में उन्हें बहुत कम सजा सुनायी गयी है. उन्होंने ऊंची आवाज में जज से कहा, ‘मुझे बिस्मिल से कम सजा न सुनायी जाए.’ जब उनके साथियों ने बताया कि उन्हें बिस्मिल जितनी ही सजा सुनायी गयी है, तो वे आह्लादित होकर बिस्मिल के गले लगकर बोले, ‘तुम मुझे छोड़ कर फांसी चढ़ना चाहते थे, लेकिन मैं तुम्हें वहां भी नहीं छोड़ने वाला.’ गोरी सत्ता ने दोनों को अलग-अलग जेलों में फांसी पर लटका कर उनका यह अरमान पूरा नहीं होने दिया.

बिस्मिल को चुपचाप फांसी पर चढ़ जाना अभीष्ट नहीं था. वे चाहते थे कि जैसे भी मुमकिन हो, जेल से बाहर निकलें. आखिरी दिनों में उन पर पहरा इतना कड़ा कर दिया गया था कि बिस्मिल के लिए अपने साथियों को कोई साधारण संदेश भेजना भी संभव नहीं होता था. तब उन्होंने शायरी में ऐसा संदेश भेजा, जिसे अधिकारियों ने प्रेम की निर्मल अभिव्यक्ति समझ कर बाहर चले जाने दिया. वह संदेश था- ‘मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या / उस घड़ी गर नामाबर लेकर पयाम आया तो क्या?’

मतलब यह था कि उन्हें निकालने के लिए जो कुछ भी करना है, जल्दी करना होगा. पर साथियों द्वारा कुछ नहीं किया जा सका. स्वाभाविक ही बिस्मिल इससे निराश हुए. फिर भी शहादत से ऐन पहले उन्होंने इस उद्देश्य से व्यायाम किया था कि उनका मानना था कि उनका शरीर भारतमाता के चरणों में अर्पित होने जा रहा फूल है और अर्पित होते वक्त उसे कहीं से भी उदास या मुरझाया हुआ नहीं, बल्कि पूरी तरह स्वस्थ और सुंदर होना चाहिए.

उन्हें राम कह कर पुकारने और उनसे अपनी मित्रता पर गर्व करने वाले अशफाकउल्लाह खां ने फैजाबाद की जेल में अपनी शहादत से पहले ईश्वर से प्रार्थना की थी- ‘ऐ मेरे पाक खुदा, मेरे गुनाह माफ फरमा. माफी अता फरमा और हिंदुस्तान की सरजमीं पर आजादी का सूरज जल्द तुलुअ फरमा. यह प्रार्थना उन्होंने कुरान की अपनी प्रति पर दर्ज की थी. इनके चौथे साथी राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को गोंडा की जेल में इनसे दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही फांसी दे दी गयी थी, क्योंकि गोरों को आशंका थी कि उन्नीस दिसंबर की तय तारीख से पहले हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के क्रांतिकारी जेल पर धावा बोल सकते हैं. कहते हैं कि खुफिया सूत्रों ने रिपोर्ट दी थी कि चंद्रशेखर आजाद ने अपने कुछ सैनिकों के साथ इसकी पक्की योजना बना रखी है.

बिस्मिल की तरह लाहिड़ी ने भी फांसी के दिन तक व्यायाम का सिलसिला टूटने नहीं दिया था. उस सुबह एक अधिकारी ने उन्हें व्यायाम करते देख कर हैरत से पूछा कि अब जब कुछ ही घंटों में उनका माटी का चोला माटी में मिल जाना है, तो उनके यूं पसीना बहाने का फायदा क्या है? इस पर लाहिड़ी ने तमक कर जवाब दिया था, ‘मैं व्यायाम इसलिए कर रहा हूं कि अगले जन्म में मुझे और बलशाली शरीर मिले और भारतमाता को स्वाधीन कराने का जो काम इस जीवन में पूरा नहीं कर पाया, उसे पूरा कर सकूं.’ फिर फांसी का फंदा चूमते हुए उन्होंने कहा था कि वे मरने नहीं, बल्कि स्वतंत्र भारत में फिर से जन्म लेने जा रहे हैं.

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