अफगानिस्तान में दशकों की अस्थिरता, हिंसा एवं युद्धों के कारण वहां से बड़ी संख्या में लोग पाकिस्तान में शरण लिये हुए हैं. पाकिस्तान सरकार के अनुसार, अफगान प्रवासियों और शरणार्थियों की कुल संख्या 40 लाख से अधिक है, जिनमें से 17 लाख के आसपास ऐसे हैं, जो पंजीकृत नहीं हैं. सितंबर में पाकिस्तान की अंतरिम सरकार ने ऐसे शरणार्थियों को अफगानिस्तान वापस जाने का आदेश दिया था. इसके लिए एक नवंबर की समय सीमा दी गयी थी. रिपोर्टों के अनुसार, अब तक लगभग पौने दो लाख लोग अफगानिस्तान वापस जा चुके हैं. बहुत से ऐसे लोगों को भी वापस भेजा जा रहा है, जिनके पास दस्तावेज हैं.
साथ ही, विभिन्न आरोपों में जेलों में बंद अफगान कैदियों को भी सीमा पर छोड़ा जा रहा है. पाकिस्तान सरकार ने शरणार्थियों के घरों को तोड़ डाला है और उन पर जाने के लिए लगातार दबाव बनाया जा रहा है. दशकों से पाकिस्तान में रह रहे और जीवन-यापन कर रहे ये शरणार्थी दोहरे विस्थापन के शिकार हो रहे हैं. पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठनों ने सरकार, संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि अफगान शरणार्थियों के निष्कासन को रोका जाए, लेकिन इस गुहार की कोई सुनवाई अभी तक नहीं हुई है.
हाल के दिनों में पाकिस्तान में आतंकी वारदातों की संख्या बढ़ी है. वहां चुनाव भी होने हैं, जिसकी वजह से अंतरिम सरकार बनायी गयी है. चुनाव के दिन करीब आने के साथ-साथ आतंकी हमलों और हिंसक घटनाओं की आशंका भी बढ़ती जा रही है. पाकिस्तान इन हमलों के पीछे अफगानियों का हाथ होने का संदेह जता रही है. बहुत समय से तहरीके-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) सक्रिय है, जिसके बारे में पाकिस्तान का मानना है कि यह आतंकी संगठन अफगानिस्तान से संचालित होता है. कुछ समय पहले पाकिस्तान ने यह भी कहा था कि टीटीपी के आतंकी अफगानिस्तान में छुपे हुए हैं.
तालिबान ने इन आरोपों को खारिज करते हुए बार-बार कहा है कि टीटीपी पाकिस्तान में सक्रिय है और पाकिस्तान का मसला है. ऐसे में पाकिस्तान में अफगानों को लेकर एक नया नैरेटिव बनाने की कोशिश की जा रही है. दरअसल, यह रवैया पाकिस्तान की दोहरी नीति को इंगित करता है. इन्हीं अफगान शरणार्थियों को मोहरा बना कर पाकिस्तान ने शीत युद्ध के दौर में अमेरिका से खूब पैसा बटोरा, जब सोवियत संघ ने सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों में अफगानिस्तान पर हमला किया था. बहुत से शरणार्थियों को सोवियत संघ के विरुद्ध लड़ाई में मुजाहिदीन का दर्जा दिया गया और उन्हें हर तरह से पाकिस्तान के भीतर प्रशिक्षण दिया गया. उन्हें हथियार और धन देकर अफगानिस्तान लड़ने के लिए भेजा गया.
उस दौर में पाकिस्तान ने अफगान शरणार्थियों के लिए अपनी सीमाएं खोल दी थीं और उनका स्वागत किया था. यह सब उनके रणनीतिक उद्देश्य से प्रेरित था. सोवियत संघ के चले जाने के बाद अफगानिस्तान में जो गृहयुद्ध चला, उसमें भी पाकिस्तान की भूमिका थी. गृहयुद्ध के बाद सत्ता में आने वाला तालिबान समूह का समूचा नेतृत्व पाकिस्तान में ही रहता था. तालिबान लड़ाकों को भी पाकिस्तान ने हर तरह की सहायता की थी. न्यूयॉर्क में हुए आतंकी हमले के बाद जब अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया, तो पाकिस्तान अमेरिका के साथ भी रहा और तालिबान एवं ओसामा बिन लादेन की भी मदद करता रहा. आखिरकार, लादेन को पाकिस्तान में ही अमरीकियों ने मारा.
जो भारत के विरुद्ध सक्रिय आतंकी नेटवर्क हैं, उन्हें भी पाकिस्तान में ही शरण और संरक्षण मिलता है. अब पाकिस्तानी सरकार अपने यहां के आतंकवाद का ठीकरा अफगानियों के सिर पर फोड़ रही है. यह जनता को बरगलाने का प्रयास है. इससे आतंकवाद का कोई ठोस समाधान नहीं निकलेगा क्योंकि टीटीपी के मसले की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, जिसमें पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा का मामला भी है. डूरंड लाइन को अफगानिस्तान ने कभी भी नहीं माना है. आज पाकिस्तान असहज है क्योंकि तालिबान अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से ले रहा है और डूरंड लाइन को लेकर उसकी आपत्तियां भी हैं. पाकिस्तान जब तक आतंक को लेकर दोहरे मानदंड अपनायेगा, तब तक वह आतंक से पीछा नहीं छुड़ा सकता है.
बड़ी संख्या में शरणार्थियों का वापस जाना अफगानिस्तान में बड़े मानवीय संकट का एक कारण बन सकता है क्योंकि वहां पहले से ही स्थिति बेहद खराब है. हाल में आये भूकंप से वहां बहुत से लोग इसलिए मारे गये क्योंकि समुचित अंतरराष्ट्रीय मदद नहीं मिली. तालिबान के शासन को किसी भी देश और अंतरराष्ट्रीय संस्था से मान्यता नहीं मिली है. वहां विभिन्न संस्थाएं और देशों के द्वारा मानवीय सहायता भेजी जाती है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है. संयुक्त राष्ट्र का आकलन है कि वहां 90 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे हैं. जो विस्थापित पाकिस्तान से जा रहे हैं, उन्हें न तो तालिबान शासन से कोई खास मदद मिलनेवाली है और न ही अंतरराष्ट्रीय समुदाय से. इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय और वैश्विक संस्थाओं को पाकिस्तान से कहना चाहिए कि वह अफगान शरणार्थियों के साथ ऐसा व्यवहार बंद करे. साथ ही, शरणार्थियों को सहायता पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए.
हालांकि पाकिस्तान के भीतर ऐसी आवाजें मुखर हैं, जो सरकार के कदम का विरोध कर रही हैं, पर ऐसा नहीं लगता है कि पाकिस्तान सरकार उनकी बात पर ध्यान देगी. कोई अदालती हस्तक्षेप हो, तो शायद उसका कुछ असर पड़े. हाल के दिनों में पश्चिमी देशों से पाकिस्तान की निकटता बढ़ी है. यदि वे देश कुछ दबाव डालें, तो पाकिस्तानी सरकार को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है. लेकिन किसी भी स्थिति में यह आशा नहीं की जा सकती है कि पाकिस्तानी सरकार शरणार्थियों के निष्कासन की नीति को वापस लेगी क्योंकि पाकिस्तान को यह समझ में आ गया है कि तालिबान के साथ उनकी वैसी पटरी नहीं बैठेगी, जैसी उन्हें उम्मीद थी. पश्चिमी देशों का ध्यान यूक्रेन और इस्राइल जैसे बड़े मसलों पर है. इनसे उनके आर्थिक, रणनीतिक और सामरिक हित जुड़े हुए हैं. ऐसा पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ नहीं है. संभव है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव या न्यायालय के कहने पर निष्कासन की प्रक्रिया कुछ समय के लिए शिथिल हो जाए या रोक दी जाए, पर अफगान लोगों को अंततः पाकिस्तान से जाना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)