Maharashtra Elections : महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणामों ने सिर्फ प्रदेश को ही नहीं, देश की राजनीति को भी एक नये मोड़ पर ला खड़ा किया है. भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली महायुति (नेशनल डेमोक्रेटिक एलाएंस के स्थानीय संस्करण) को राज्य में 78 प्रतिशत से भी ज्यादा सीटें मिली हैं. जहां भाजपा ने 132 के साथ रिकॉर्ड सीटें जीत ली है, वहीं कांग्रेस ने 15 सीटें पाकर राज्य के चुनावी इतिहास का अपना सबसे ज्यादा खराब प्रदर्शन किया है.
असाधारण चुनाव परिणाम
महाराष्ट्र का यह चुनाव परिणाम असाधारण है. इसलिए इस चुनाव परिणाम का विश्लेषण भी विशेष तरीके से होना चाहिए. एक बात तो बहुत साफ दिखाई देती है कि भाजपा को राज्य भर में सफलता मिली है. इसका मतलब यह है कि वोटों के बंटवारे में कोई क्षेत्रीय फैक्टर नहीं था. अब तक यह माना जाता था कि विदर्भ कांग्रेस का गढ़ है और पश्चिम महाराष्ट्र एनसीपी का. यह भी माना जाता था कि कोंकण को छोड़ दें, तो भाजपा या उसके सहयोगी दलों-एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजीत पवार की एनसीपी का अपना कोई गढ़ नहीं है. लेकिन इस चुनाव परिणाम ने उन सारी धारणाओं पर पूर्णविराम लगा दिया है और भाजपा के नेतृत्व वाली महायुति को किसी क्षेत्र-विशेष ही नहीं, बल्कि पूरे राज्य को अपना गढ़ घोषित करने का हक दे दिया है.
इस चुनाव परिणाम के बाद महायुति को कोई यह चुनौती नहीं दे सकेगा कि महाराष्ट्र में उनका कोई व्यापक जनाधार नहीं है. हालांकि इस परिणाम के बाद यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि क्या महाराष्ट्र भी गुजरात के रास्ते पर चल पड़ा है, जहां विपक्ष नाम की कोई चीज नहीं रह गयी है? महाराष्ट्र के चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन के सफाये को लेकर तमाम तरह की बहस हो रही है. मीडिया के एक हिस्से का कहना है कि ‘लाडकी बहना’ योजना ने महिलाओं तथा उनके परिवार के सदस्यों को लुभाने में अहम भूमिका निभायी. कुछ लोग इसे भाजपा के चुनाव-प्रबंधन का कमाल मान रहे हैं.
जीत के बाद किए जा रहे हैं कई दावे
कुछ लोग यह बताने में मशगूल हैं कि ‘एक हैं तो सेफ हैं’ के नारे ने अपना चमत्कार दिखाया. कुछ लोग कह रहे हैं कि मराठा आंदोलन ने ओबीसी के एक बड़े तबके में असुरक्षा की भावना पैदा की और यह भावना ही उन्हें भाजपा की ओर ले आयी. हालांकि इस तर्क में ज्यादा दम दिखाई नहीं देता. वास्तविकता यह है कि महायुति के तीन शीर्ष नेताओं-देवेंद्र फडनवीस, एकनाथ शिंदे और अजीत पवार में कोई भी ओबीसी नहीं है. यही नहीं, महायुति की सरकार ने मराठों को ओबीसी कोटे में आरक्षण का रास्ता निकालने का आश्वासन दे रखा है, जिसे लेकर उस तबके में काफी चिंता है.
जाहिर है कि इस बड़ी पराजय के बाद भाजपा ने राहुल गांधी को निशाना बनाया है. हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में कांग्रेस की उम्मीदें धरी की धरी रह गयीं. भाजपा संविधान की रक्षा करने के राहुल गांधी के दावे को चुनौती दे रही है, साथ ही, कह रही है कि लोगों ने गांधी परिवार को खारिज कर दिया है. हालांकि वायनाड लोकसभा क्षेत्र, झारखंड विधानसभा के चुनाव और देश के विभिन्न हिस्सों के उपचुनाव बतलाते हैं कि राहुल गांधी और उनके परिवार के प्रति लोगों में अविश्वास जैसी भावना नहीं है, जैसी कि बतायी जा रही है.
महाविकास अघाड़ी को मंथन की जरूरत
वास्तविकता यह है कि महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री को शरद पवार और उद्धव ठाकरे से चुनौती मिल रही थी. इस राज्य में उद्योगों को गुजरात स्थानांतरित करने का मुद्दा गरम था और इसकी वजह से लोग उनसे नाराज भी बताये जा रहे थे. पराजय के बाद शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे यह सवाल कर रहे हैं कि उनकी सभाओें में जो भीड़ आ रही थी, क्या वह पहले से यह तय कर चुकी थी कि उन्हें वोट नहीं देगी. अगर वह यह तय कर चुकी थी, तो फिर वह उनकी सभाओं में आखिर क्यों आ रही थी? बेशक उद्धव ठाकरे की चुनावी सभाएं प्रधानमंत्री की सभाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा उत्साह से भरी हुई थीं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी तथा एनसीपी नेता शरद पवार की चुनावी सभाएं भी जोरदार रहीं. लेकिन यह तथ्य है कि जनता की वह गर्मजोशी वोट देने के मामले में नजर नहीं आई.
अलबत्ता यह भी सच है कि महायुति की चुनावी तैयारियों और रणनीतियों की तुलना में महाविकास आघाड़ी की तैयारी अधूरी थी. यही नहीं, सीटों और नेता के मामले में आपसी असहमति का भी उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ा. इंडिया गठबंधन की पराजय इतनी बड़ी है कि विधानसभा में नेता विपक्ष के पद पर भी संशय है. अपनी आखिरी चुनावी लड़ाई में शरद पवार को मिली यह पराजय उनके लिए यादगार तो रहने वाली है ही, उद्धव ठाकरे की राजनीति को भी बड़ा धक्का लगा है. जहां तक कांग्रेस की बात है, तो हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में लगा यह झटका उसके लिए सबक होना चाहिए. यही नहीं, इसके बाद इंडिया गठबंधन के भीतर कांग्रेस के वर्चस्व को लेकर सवाल उठे, तो आश्चर्य नहीं होगा. इन सबके बावजूद महाराष्ट्र की बनावट कुछ ऐसी है कि विपक्ष की भागीदारी के बिना सरकार नहीं चलायी जा सकती. चुनाव परिणाम से महाराष्ट्र में जो बदलाव आया है या आने वाला है, उससे देश की राजनीति भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)