इस देश के संत कवियों ने ‘बुद्धि, मन और वाणी से अतर्क्य’ भगवान राम को कितने रूपों और भावों में भजा है, कहना मुश्किल है. सच कहें, तो भगवान राम के सिलसिले में उन्होंने भक्ति की सगुण व निर्गुण और राम व कृष्ण शाखाओं का भेद पूरी तरह मिटा डाला है. गोस्वामी तुलसीदास की पंक्ति ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी’ को सार्थक करते हुए. तभी तो ‘भजु मन रामचरन सुखदायी’ का आह्वान करते हुए गोस्वामी जी बेहद आत्मविश्वासपूर्वक यह भी पूछ लेते हैं कि दुनिया में ऐसा कौन-सा ‘आरत’ (दीन व दुखी) जन है, जिसके पुकार लगाने पर उसकी ‘आरति प्रभु न हरी.’ कृष्णभक्त सूरदास भी अपने मन से कहते हैं कि वह राम से लौ लगाये- ‘रे मन राम सों करु हेत. हरिभजन की बारि करि ले, उबरै तेरो खेत.’ यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता. ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ कहने वाली मीरा ‘अब तो मेरो राम नाम’ भी कहती हैं और ‘पायो जी म्हे तो राम रतन धन पायौ’ की घोषणा करती हुई स्वयं को यह कहने से नहीं रोक पातीं- ‘वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा करि अपनायो.’
आगे वे फिर कहती हैं- ‘मेरो मन रामहि राम रटै. राम नाम जपि लीजै प्राणी कोटिक पाप कटै.’संत मलूकदास की राम धुन भी मीरा से अलग नहीं हैं. पहले तो वे दूसरों को ‘राम कहो, राम कहो, राम कहो बावरे’ का संदेश देते हैं, फिर अपनी बात करते हैं- ‘अब तेरी सरन आयो राम. जबै सुनियो साधके मुख, पतित पावन नाम.’ संत रैदास की रामभक्ति की पराकाष्ठा तो यह है कि उन्हें फल-फूल, दूध-द्रव्य और चंदन समेत संसार की कोई भी वस्तु ऐसी ‘अनूप’ नहीं लगती, अपने राम की पूजा करते हुए जिसे अर्पित कर वे संतोष का अनुभव कर सकें. इस विवशता के बीच वे स्वयं राम से ही पूछते हैं- ‘राम, मैं पूजा कहां चढ़ाऊं? फल अरु फूल अनूप न पाऊं.’ अंततः उन्हें लगने लगता है कि ‘मन ही पूजा, मन ही धूप, मन ही सेऊं सहज सरूप’ तो इस निष्कर्ष तक जा पहुंचते हैं- ‘जब राम नाम कहि गावैगा, तब भेद अभेद समावैगा.’ इसी परंपरा में केशवदास अपनी ‘रामचंद्रिका’ में कहते हैं कि जिस पुनरुक्ति (दोहराव) को साहित्यकार बड़ा दोष मानते हैं, उसकी उपेक्षा कर वे ‘अनुदिन राम राम रटत रहत, न डरत पुनरुक्ति को.’
भक्तिकाल से थोड़ा आगे बढ़ें तो राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त अपने ‘साकेत’ में राम से कुछ इस तरह बात करते हैं, जैसे वे साक्षात उनके सामने खड़े हों. वे पूछते हैं- ‘राम, तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या, विश्व में रमे हुए सर्वत्र नहीं हो क्या?’ फिर प्रतिकूल उत्तर की कल्पना मात्र से डर से जाते और कहने लगते हैं कि अगर नहीं हो, ‘तब मैं निरीश्वर हूं, ईश्वर क्षमा करे, तुम न रमो मन में तो मन तुममें रमा करे.’ यहां भारतेंदु हरिश्चंद्र को भूल जाना अपराध होगा, जो दशरथ विलाप के बहाने राम के प्रति अपनी आसक्ति इस तरह प्रदर्शित कर गये हैं- ‘कहां हो ऐ हमारे राम प्यारे? किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे? छिपाई है कहां सुंदर वो मूरत? दिखा दो सांवली सी मुझको सूरत.’ दूसरी ओर निराला ने अपनी 312 पंक्तियों की ‘राम की शक्ति पूजा’ शीर्षक कालजयी रचना में जैसे अपना सारा निरालापन उड़ेल दिया है. वर्ष 1936 में अपनी इस रचना में सीता की मुक्ति के विषय को उन्होंने कुछ इस तरह उठाया कि वह गुलाम देश की हताश-निराश प्रजा को नये सिरे से सचेत कर उसमें युगीन परिस्थितियों से लड़ने का साहस पैदा करने लगा.
गुलाब खंडेलवाल खुद को ‘मन कैसे सीताराम कहे’ जैसे प्रश्न के सामने खड़ा करते हैं, तो शायद निराला की इस परंपरा का ही विस्तार करते हैं. केदारनाथ अग्रवाल, राजा जनक के धनुष यज्ञ में राम के धनुष तोड़ने को लेकर एक सर्वथा नयी भावभूमि रचते हुए नयी व्यवस्था देते और धरती की बेटी को ब्याहने का आह्वान करने लग जाते हैं, ‘जो धनुष/ राम ने तोड़ा/ वह पिनाक था/ परंपरा का/ उसे राम ने तोड़ा/ भू-कन्या/ सीता को ब्याहा/ ब्याह सके थे/ जिसे न कोई/ उसे तोड़कर/ राजवंश के योद्धा… तोड़ो/ तोड़ो/ परंपरा को/ बनो राम/ ब्याहो/ धरती की बेटी सीता.’ अग्रवाल के बरक्स रामकुमार कृषक अपने राम का ध्यान उनका नाम लेकर रची जा रही विडंबनाओं की ओर आकृष्ट करते हैं- ‘तुम्हारे नाम की हो रही है लूट, हे राम! तुम्हारे नाम को जप रहा है झूठ, हे राम!’ प्रदीपकांत तो इनसे भी आगे बढ़ जाते हैं- ‘क्या अजब ये हो रहा है राम जी, मोम अग्नि बो रहा है राम जी.’ बात अधूरी रह जायेगी, अगर अल्लामा इकबाल की इस पंक्ति का जिक्र न किया जाये- ‘है राम के वजूद पै हिंदोस्तां को नाज, अहलेनजर समझते हैं इसको इमाम-ए-हिंद.’
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)