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जी-20 की अलग पहचान बनाता भारत

जो वैश्विक समस्याएं होती हैं, उनके लिए वैश्विक समाधान की जरूरत होती है. दुर्भाग्य से इस समय रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से दुनिया बंटी हुई है, जिसमें एक तरफ पश्चिमी देश खड़े हैं तो दूसरी ओर रूस और चीन जैसे देश हैं.

भारत ने जी-20 की अध्यक्षता एक मुश्किल समय में की है. पहले तो कोरोना महामारी का संकट था, और दुनिया उससे उबरने की कोशिश कर ही रही थी, और इसके बाद यूक्रेन युद्ध छिड़ गया, जिससे तेल संकट खड़ा हो गया. इनकी वजह से खास तौर पर विकासशील देशों की हालत बहुत खराब हुई. इन्हीं मुश्किलों को ध्यान में रखकर भारत ने जी-20 के अध्यक्ष के तौर पर वसुधैव कुटुंबकम की सोच को दुनिया के सामने रखा. इसका मकसद यह बताना था कि दुनिया में जो भी प्रयास किए जाएं उनका दृष्टिकोण मानवीय हो, यानी वह आम व्यक्ति के जीवन के लिए लाभकारी हो.

साथ ही, उसका महत्व पूरी दुनिया के लिए एक हो. तो भारत ने एक विश्व, एक कुटुंब, एक भविष्य के नारे को आगे रख जी-20 की बैठक को एक नया आयाम दिया है. जी-20 की बैठक पहले भी होती रही हैं, लेकिन भारत में इसका प्रारूप पूरी तरह से बदल चुका है. भारत ने पहली बार जी-20 की बैठक को इतने व्यापक तरीके से आयोजित किया है. प्रधानमंत्री मोदी ने बैठक की अध्यक्षता मिलने पर यह निर्णय लिया कि हम इस बैठक को पूरे भारतवर्ष में आयोजित करेंगे.

इसके बाद देश के लगभग 60 अलग शहरों में जी-20 से जुड़ी 220 से अधिक बैठकें हुईं. इससे उन सभी जगहों का लाभ होता है. वहां के प्रशासन, स्थानीय कंपनियां और वहां के लोगों की क्षमता का विकास होता है. आयोजन को लेकर एक तरह का उत्सव जैसा वातावरण होता है जिससे जन-भागीदारी बढ़ती है. इस प्रयास से पूरे देश में सभी लोगों को कम-से-कम जी-20 का नाम जरूर पता लग गया है. जी-20 19 देशों और यूरोपीय संघ का संगठन है और वहां के प्रतिनिधि बैठकों में शामिल हो रहे हैं.

लेकिन, भारत ने इनके अलावा नौ अन्य देशों को बैठक में आमंत्रित किया है. इनके अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसे कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रमुखों को भी बैठक में आमंत्रित किया गया है. इन वजहों से बैठक को लेकर एक गंभीर माहौल बना और 36 मुद्दों पर चर्चाएं हुईं.

कुल मिलाकर भारत ने सबको साथ लेने की बात की है. जैसे, जब खाद्य सुरक्षा की बात हुई तो भारत ने मिलेट्स या मोटे अनाज का विचार सामने रखा. ऐसे ही डिजिटल और साइबर सुरक्षा जैसे मुद्दों पर भारत ने अपने डिजिटल पेमेंट इंफ्रास्ट्रक्चर को उदाहरण की तरह पेश किया जिसके तहत अगस्त महीने में 10 अरब से ज्यादा यूपीआई लेन-देन का रिकॉर्ड कायम हुआ. ऐसे ही जलवायु परिवर्तन की चर्चा पर भारत ने पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली का विचार रखा. सबसे बड़ी बात यह है कि भारत ने जी-20 की बैठक में विकासशील देशों या ग्लोबल साउथ कहे जाने वाले देशों का प्रभावी तरीके से प्रतिनिधित्व किया और उनकी आवाज बना.

अध्यक्षता स्वीकार करने के लगभग 15 दिनों के भीतर ही प्रधानमंत्री मोदी ने एक बैठक की जिसमें 125 देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया. उस बैठक से भारत उनसे यह समझना चाहता था कि उनकी समस्याएं क्या हैं और उनकी जरूरतें क्या हैं. इन मुद्दों का समन्वय कर फिर इन्हें अलग-अलग स्तर की बैठकों में चर्चाएं करवाई गईं और उनके आधार पर सिफारिशें पेश की गयी हैं. इनके आधार पर बैठक में एक घोषणापत्र जारी होता है.

जो वैश्विक समस्याएं होती हैं, उनके लिए वैश्विक समाधान की जरूरत होती है. दुर्भाग्य से इस समय रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से दुनिया बंटी हुई है, जिसमें एक तरफ पश्चिमी देश खड़े हैं तो दूसरी ओर रूस और चीन जैसे देश हैं. इसकी वजह से कई मुद्दों पर प्रगति नहीं हो सकी है जो भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है. घोषणापत्र के जारी होने में सबसे बड़ा अड़ंगा इस बात पर लग सकता है कि उसमें रूस-यूक्रेन युद्ध के बारे में क्या जिक्र होता है.

भारत घोषणापत्र में ऐसी किसी टिप्पणी के पक्ष में नहीं है, लेकिन पश्चिमी देश चाहते हैं कि इसका उल्लेख हो, और ऐसे में रूस इस बात पर अड़ जाता है कि उसके पक्ष को भी शामिल किया जाए. जी-20 का गठन 1999 में मूलतः आर्थिक चुनौतियों के हल के मकसद से किया गया था, लेकिन बड़े देशों की समस्या यह है कि वह जियोपॉलिटिक्स में ज्यादा विश्वास करते हैं, और ऐसे में पिछले कुछ समय से इन देशों ने जी-20 को वैश्विक आर्थिक और वित्तीय समस्याओं का समाधान ढूंढने की जगह वहां अंतरराष्ट्रीय राजनीति होने लगती है.

इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शामिल नहीं होने की काफी चर्चा हुई है. मीडिया के लिए एक हेडलाइन जरूर है, मगर मेरी समझ से इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता. हर देश की हर मुद्दे पर अपनी अलग नीति है, जिसका वे पालन करते हैं. जैसे, जकार्ता में आसियान की शिखर बैठक में भी चीन के राष्ट्रपति नहीं बल्कि उनके प्रधानमंत्री ही हिस्सा ले रहे हैं, जिसमें भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए.

तो जिनपिंग के दिल्ली नहीं आने से कोई फर्क नहीं पड़ता. अलबत्ता यह जरूर है कि यदि वह आते, तो मीडिया में इस तरह की खबरें चलतीं कि वह भारतीय प्रधानमंत्री से मिलते हैं कि नहीं, और मिले तो क्या हुआ, या वह अमेरिकी राष्ट्रपति से मिले या नहीं. लेकिन, यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत और चीन के संबंध इस समय सबसे नीचे स्तर पर हैं. दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर लगातार बैठक हो रही है, बातचीत हो रही है, मगर कोई प्रगति नहीं हो रही.

प्रधानमंत्री मोदी चीन के राष्ट्रपति से ब्रिक्स बैठक के दौरान जोहानिसबर्ग में भी मिले थे, और उससे पहले बाली में भी दोनों नेताओं की मुलाकात हुई थी, जिसके बाद कहा गया गया कि सीमा संकट को जल्दी से सुलझाने के लिए बातें हुई हैं. जी-20 की बैठक को लेकर चीन ने कहा है कि वह भारत का समर्थन करता है और यह एक महत्वपूर्ण मंच है, लेकिन उन्होंने बैठक को लेकर कई तरह की आपत्तियां भी जतायी हैं.

उन्होंने वसुधैव कुटुंबकम से लेकर कर्ज और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों को लेकर अपनी अलग राय रखी है, जो इन मुद्दों को लटकाने की कोशिश लगती है. मुझे लगता है चीन नहीं चाहता कि जी-20 की भारत की अध्यक्षता बहुत सफल साबित हो, क्योंकि मौजूदा समय में भारत का बहुत नाम और सम्मान है. दुनिया ने देखा है कि कैसे भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पर चलते हुए इस भव्यता के साथ जी-20 बैठक का आयोजन कर रहा है.

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