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महिला नेताओं के प्रति निंदनीय मर्दवादी नजरिया

औरतों ने लंबी लड़ाई के बाद इस छवि को तोड़ा है कि उनकी प्रतिभा मात्र चौके-चूल्हे तक ही सीमित रह सकती है. लेकिन स्त्री की आजादी का दम भरने वाले लोग जैसे ही किसी स्त्री को शासक की हैसियत में देखते हैं.

हाल ही में इटली में जी-7 समूह का शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ था. सम्मेलन की मेजबान वहां की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी थीं. इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आमंत्रित थे. सोशल मीडिया में दोनों नेताओं को लेकर तमाम किस्म के आपत्तिजनक मीम और चुटकुले गढ़े गये. मेलोनी के औरत होने का मजाक भी उड़ाया गया तथा बहुत से लोगों को राजनीति या बैठक के महत्व की जगह उनकी सेक्स अपील ही दिखी. बड़े अफसोस की बात है कि दुनियाभर में चाहे जितना स्त्री विमर्श का राग गाया जाता हो, ग्लास सीलिंग को तोड़ने की बातें की जाती हों, पर बड़े पदों पर बैठने वाली स्त्रियों को देखने का मर्दवादी नजरिया जरा भी नहीं बदला है.

आपको याद होगा कि अमेरिका में वोट देने के अधिकार के लिए स्त्रियों को सत्तर साल तक कठिन संघर्ष करना पड़ा था. तब उनका मजाक तरह-तरह के कार्टून, चुटकुले, लेखों आदि में इसी तरह से बनाया जाता था कि ये औरतें आखिर वोट देकर क्या करेंगी, करना तो इन्हें चौका-चूल्हा ही है. औरतों ने लंबी लड़ाई के बाद इस छवि को तोड़ा है कि उनकी प्रतिभा मात्र चौके-चूल्हे तक ही सीमित रह सकती है. लेकिन स्त्री की आजादी का दम भरने वाले लोग जैसे ही किसी स्त्री को शासक की हैसियत में देखते हैं, तो उनका अहंकार हिलोरें मारने लगता है. वे इस तरह की स्त्रियों को नीचा दिखाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते हैं.

स्त्री के बड़े पद पर पहुंचने का मतलब पुरुषवादी सोच में मात्र उसका शरीर ही है. इसीलिए दुनियाभर में स्त्रियों को इस तरह के अपमान झेलने पड़ते हैं. उनके अच्छे विचार और योग्यता की जगह उन्हें उनकी सुंदरता, उनके शरीर, उनकी सेक्स अपील से ही मापा जाता है. ऐसी सोच के निशाने पर हाल के वर्षों में ब्रिटेन की भूतपूर्व प्रधानमंत्री टेरेसा मे, स्कॉटलैंड की पूर्व प्रथम मंत्री निकोला स्टर्जन (जिन्होंने पांच प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया था), जर्मनी की एंजेला मर्केल, फिनलैंड की साना मरीन, न्यूजीलैंड की जेसिंडा जैसी कई नेता रही हैं.

इन महिलाओं ने किस तरह से शासन किया, उनकी योजनाओं से लोगों को कितना लाभ मिला, वे अपने देश को किस ऊंचाई तक ले गयीं, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में उन्होंने कितनी सफलता पायी, बातचीत और गॉसिप के विषय अक्सर ये नहीं होते. लोगों और मीडिया के एक बड़े वर्ग को बस उनका महिला होना और उनका शरीर ही दिखता है. मान लिया जाता है कि कोई स्त्री यदि किसी बड़े पद पर पहुंचती है, तो अपनी योग्यता, प्रतिभा, निर्णय लेने की शक्ति के कारण नहीं, बल्कि अपने शरीर और रूप के कारण वे ऐसा कर पाती है. स्त्री की सफलता माने अपने शरीर का इस्तेमाल.

बाहर क्या देखना, अपने देश में भी यह कोई कम नहीं रहा है. हाल में जब प्रधानमंत्री मोदी और प्रधानमंत्री मेलोनी की तस्वीरें वायरल हुईं, तो सोशल मीडिया ने अश्लीलता और अभद्रता की सारी हदें तोड़ दीं. कई पोस्ट तो ऐसी थीं कि उनके बारे में यहां लिखा भी नहीं जा सकता. वैसे यह देश नारी को पूजने का दम भरता है. वर्षों से प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और माउंटबेटन की पत्नी एडविना को लेकर ऐसी ही खराब बातें होती रही हैं. इंदिरा गांधी, जिन्हें देश की प्रथम महिला प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त है, के ऊपर इतने घटिया किस्म के लांछन आज भी लगाये जाते हैं कि अफसोस होता है. उनकी बुआ विजयलक्ष्मी पंडित भी इसका शिकार रही थीं.

देश की अन्य महिला नेताओं, जिनमें जयललिता, मायावती जैसी बड़ी शख्सियतें भी शामिल हैं, की प्रतिभा और योग्यता को दरकिनार कर उन्हें भी सिर्फ पुरुषवादी नजरिये से देखा जाता है. किसी महिला की सफलता का मतलब यह क्यों है कि वह महिला है और सारे पुरुष उसके शिकार भर हैं. ऐसा भी महसूस होता है कि स्त्रियों को देखने के इस नजरिये का जितना विरोध हुआ है, यह उतना ही बढ़ रहा है. औरतों को पीटने के तरह-तरह के नये अस्त्र-शस्त्र रोज खोजे जा रहे हैं.

दिलचस्प यह भी है कि बहुत से स्त्री विरोधी अपने राजनीतिक दस्तावेजों, लेखों या भाषणों में तमाम तरह के स्त्रीवादी नारों का उपयोग करते हैं और अपने को भारी स्त्री समर्थक बताते हैं, लेकिन ऐसा है नहीं. मौका मिलते ही औरतों का शिकार करने वाले सारे नख-दंत बाहर आ जाते हैं. लाख आरक्षण दे दीजिए, जब तक दिमाग में कूड़ा भरा है, कुछ नहीं किया जा सकता. अमेरिका को ही देख लीजिए. दुनिया को औरतों के अधिकारों पर ज्ञान देता फिरता है, लेकिन आज तक किसी स्त्री को वहां राष्ट्रपति नहीं बनाया जा सका है.

और तो और, वहां समाज में आज भी ये बहसें चलती हैं कि क्या कोई स्त्री देश को चला सकती है. लेकिन खुशी की बात यह है कि दुनिया के सार्वजनिक परिदृश्य में औरतों की संख्या लगातार बढ़ रही है. वे उन मंजिलों को छू रही हैं, जिनके बारे में पचास साल पहले कोई स्त्री सोच भी नहीं सकती थी. यह भी सच है कि जितना किसी का मजाक उड़ाया जाता है, वह उतनी ही तीव्र गति से आगे बढ़ता है. यह उत्साहजनक है कि स्त्रियों ने यह गति पकड़ ली है, जो उनके सुखद भविष्य का ठोस संकेत है. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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