आज 25 सितंबर को महान विचारक एवं एकात्म मानववाद के मंत्रद्रष्टा पं दीनदयाल उपाध्याय की जयंती है, और ठीक एक सप्ताह बाद, दो अक्तूबर को महात्मा गांधी की जयंती है. स्वाधीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दशा और दिशा को जिन महापुरुषों ने गहराई तक प्रभावित किया, उनमें गांधी जी एवं पं दीनदयाल के विचार प्रमुख हैं. दोनों ने सार्वजनिक जीवन में शुचिता, प्रामाणिकता और नीतिमत्ता के ऊंचे मानदंड कायम किये. पं दीनदयाल जी ने अपेक्षाकृत छोटी जीवन-यात्रा में मौलिक चिंतन के जिस विराट को छुआ, वह चमत्कृत करता है. सत्याग्रही महात्मा गांधी का तो जीवन ही उनका संदेश है. निःसंदेह पं दीनदयाल जी और महात्मा गांधी जी कई संदर्भों में अलग-अलग वैचारिक सीढ़ियों पर खड़े नजर आते हैं, लेकिन मौलिक रुप से दोनों के पैर देश की मिट्टी में गहरे जमे हैं. दोनों आध्यात्मिक आधार पर ही भौतिक एवं परमार्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना लक्ष्य बनाते हैं.
दोनों महामानवों के जीवन-काल में पूंजीवाद तथा इसकी प्रतिक्रिया में जन्मे समाजवाद या साम्यवाद के बीच संघर्ष चल रहे थे. दोनों ने इन विचारों का गहराई से अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि भौतिकता के पीछे दौड़ रहे पश्चिमी जगत से आयातित पूंजीवाद या समाजवाद या साम्यवाद संघर्ष, हिंसा और केंद्रीयकरण पर जोर देते हैं. गांधी और दीनदयाल का मत है कि आर्थिक समानता हेतु पूंजीवादी प्रवृत्तियों और व्यवस्था को हतोत्साहित करना होगा. लेकिन साम्यवादी वर्ग-संघर्ष के मार्ग पर चलने से बंधुता तो तार-तार होगी ही, समता भी स्थायी नहीं रह पायेगी. गांधी और दीनदयाल दोनों ‘स्वदेशी’ तथा ‘स्वावलंबन’ पर जोर देते हैं.
गांधीजी आर्थिक स्वायत्तता या आत्मनिर्भरता को राजनीतिक स्वाधीनता की कुंजी कहते हैं. उनका मानना है कि भारत के सामने दो रास्ते हैं – ‘अधिकाधिक’ उत्पादन और ‘अधिकाधिक लोगों द्वारा उत्पादन’. गांधीजी का मानना है कि परानुकरण और परावलंबन से हम ‘आत्मनिर्भर’ नहीं हो सकते. पं दीनदयाल ने अधिकाधिक लोगों की उत्पादन में भागीदारी हेतु ‘हर हाथ को काम और हर खेत को पानी’ का व्यावहारिक मंत्र दिया. वह कहते हैं कि आत्मनिर्भरता ही एक स्वाभिमानी और शक्तिशाली राष्ट्र की प्रमुख शर्त है. वह विदेशी को ‘स्वदेशानुकूल’ तथा स्वदेशी को ‘युगानुकूल’ बनाने की सलाह देते हैं.
विकास प्रक्रिया में प्राकृतिक संसाधनों का ‘विवेकपूर्ण दोहन’ दोनों महापुरुषों के चिंतन में है, गांधी कहते हैं कि प्रकृति के पास हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बहुत कुछ है, लेकिन मनुष्य के लालच की पूर्ति के लिए बहुत कम है. पं. दीनदयाल की चेतावनी है कि प्रकृति के विनाश से प्राप्त विकास सबके विनाश का कारण बन सकता है. दोनों के अंदर सामाजिक-आर्थिक तौर पर वंचितों एवं दलितों के प्रति गहरी संवेदना है. दोनों हमारे ऐसे समाज-बंधुओं के लिए ‘संपूर्ण अवसर’ के प्रखर हिमायती रहे. गांधी ने दुविधा होने की स्थिति में सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करने का मंत्र दिया. पं दीनदयाल का ‘अंत्योदय’ मंत्र गांधी के ‘अंतिम जन’ अर्थात समाज के ‘अंतिम पंक्ति’ के ‘अंतिम व्यक्ति’ को समाज की मुख्यधारा के साथ जोड़ने का तरुणोपाय है.
वर्तमान में सत्तावादी राजनीति के चकाचौंध के अनर्थकारी दौर में विचार, सिद्धांत, दर्शन और आदर्श पीछे छूट रहे हैं. सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों के चरित्र एवं आचरण की शुचिता पर गांधी और दीनदयाल ने विशेष बल दिया है. गांधीजी ने सामाजिक जीवन के जिस ‘सात अभिशाप’ की मीमांसा की है, उसमें ‘सिद्धांतहीन राजनीति’ का पहला नंबर है. गांधी इसे ‘सामाजिक पाप’ की संज्ञा देते हैं. पं दीनदयाल का मत भी यही है. वह लिखते हैं – ‘दलों को अपने लिए एक दर्शन, सिद्धांत एवं आदर्शों के क्रमिक विकास के प्रयत्न करने चाहिए. तात्कालिक लाभ के लिए दल सिद्धांतों का बलिदान न करें- इस दिशा में सतर्क रहना चाहिए.’ प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए यह एक ऐसी सीख है जिसका पालन करते हुए ही वे देश सेवा के सच्चे एवं समर्थ उपकरण बन सकते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)