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हलंत के कांटे और विसर्गों के पत्थर

अज्ञान दोष नहीं है और भ्रम होना भी स्वाभाविक है. किसी शब्द की वर्तनी और भाषा प्रयोग के संबंध में अज्ञान और भ्रम को दूर किया जा सकता है. सौभाग्य से जानकारी बढ़ाने के लिए आज अनेक व्याकरण पुस्तकें तथा 'आकाशीय' स्रोत, साधन उपलब्ध हैं.

हिंदी में एक प्रवृत्ति बढ़ रही है कि प्रचलित सरल शब्दों को तत्सम कर दें, तो ‘देवभाषा’ के स्पर्श से हिंदी अधिक पवित्र और शिष्ट लगेगी. जानकारी न होने से शुद्धीकरण के भ्रम में अनेक अशुद्ध शब्द बन रहे हैं और उनका अनुकरण भी हो रहा है. उदाहरण के लिए- बड़े आदर भाव से ‘शत्-शत् नमन्’ प्रायः कहा-सुना जाता है. वस्तुतः, सौ की संख्या के लिए संस्कृत में शब्द है ‘शत’, ‘शत्’ नहीं. हिंदी उच्चारण नियमों के अनुसार, अकारांत शब्द का पदांत अकार उच्चारण में प्राय: नहीं बोला जाता. इसलिए ‘शत’ को कहा जाता है- ‘शत्’. हिंदी के बारे में एक आंशिक सत्य यह भी है कि वह जैसे बोली जाती है, वैसे ही लिखी जाती है. इसी अर्धसत्य के कारण शत को शत् बोला जाता है, तो शत् ही लिखा भी जाता है. परिणामस्वरूप, मुहावरे के रूप में ‘शत-शत नमन’, ‘शत्-शत् नमन्’ हो जाता है.

वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी लेखन में अब हलंत की व्यवस्था ही नहीं है क्योंकि पदांत ‘अ’ के लोप के नियम के अनुसार, अधिकांश हिंदी अकारांत शब्द उच्चारण में हलंत हो गये हैं, तत्सम शब्द भी. इसीलिए संस्कृत के तत्सम शब्दों का हिंदी में प्रयोग करते हुए हलंत का चिह्न नहीं लगाया जाता. यह विकल्प अवश्य है कि जहां संस्कृत उद्धरण को प्रदर्शित किया जाना हो या वर्ण्य वस्तु की मांग के अनुसार तत्सम शब्द को ही दिखाना आवश्यक हो, वहां हल् चिह्न का उपयोग किया जा सकता है. हलंत चिह्न चाहे देखने में बहुत छोटा हो, किंतु जब अनावश्यक रूप से किसी अक्षर के चरणों में इसे लटका हुआ देखते हैं तो पाठक की आंखों में यह कांटे सा चुभ जाता है. पंचम् (पंचम), षष्ठम् (षष्ठ), सप्तम् (सप्तम) प्रत्युत् (प्रत्युत) आदि के हलंत भी चुभने वाले कांटों के उदाहरण हैं.

अनेक बार हम जो कहना चाहते हैं उसके लिए सरल हिंदी शब्द का विकल्प उपलब्ध रहता है, फिर भी शिष्ट बनने के लिए कठिन संस्कृत शब्द का प्रयोग करते है, जिसकी आवश्यकता नहीं रहती. आशीर्वाद के रूप में संस्कृत में एक बहु प्रचलित क्रिया रूप है- ‘भव’- (भू धातु , लोट् लकार). ‘भव’ क्रियापद का अर्थ है – होओ, हो जाओ, बनो, बन जाना, जैसे ‘दीर्घायु: भव’! अर्थात लंबी उम्र वाले होओ. ‘भव’ शुद्ध तत्सम शब्द है, किंतु शिष्ट बनने के चक्कर में ‘भव’ के संस्कृत मूल का होने की बात पर विश्वास नहीं किया जाता, क्योंकि मोटी पहचान के रूप में न विसर्ग दिखाई पड़ते हैं, न ही सुनने में मीठा लगने वाला ‘म्’. इसलिए ‘भव’ का संस्कृतीकरण करने के लिए उसके आगे विसर्ग (:) सजा दिये जाते हैं. रूप बनता है- ‘भव:’! विसर्ग का जोड़ा जाना अर्थात शब्द के सुसंस्कृत होने का पक्का प्रमाण. इसी अज्ञान के कारण इस प्रकार के प्रयोग देखे जाते हैं. ‘सुखी भव:’, ‘चिरायु: भव:’, ‘आयुष्मान् भव:’. सब में विसर्ग!

भव के साथ विसर्ग चिपकाने से वेदों, उपनिषदों के वचनों को भी बुरे दिन देखने पड़ते हैं. इन कथनों को देखिए- मातृदेवो भव:, पितृदेवो भव:, अतिथिदेवो भव:! जैसा कि कहा गया, ‘भव’ भू क्रिया का रूप है और आशीर्वाद, शुभकामना, आदेश वाले वाक्य के अंत में जुड़ता है. इसके विपरीत ‘भव:’ भू से बनी भाववाचक संज्ञा का प्रथमा एकवचन में व्युत्पन्न रूप है. संस्कृत में ‘भव:’ कुछ होने की ‘क्रिया’ नहीं, होने का ‘भाव’ बन जाता है. हिंदी में तो यह रूप बन ही नहीं सकता क्योंकि तिर्यक रूप बनाने की हिंदी की अपनी पद्धति है. इसलिए किसी भी हिंदी शब्दकोष में ‘भव:’ नहीं मिलेगा. संस्कृत में ‘भव:’ का अर्थ जन्म-मरण का चक्कर हो सकता है. इससे बने यौगिक शब्द हैं भवसागर, भवचक्र, भवबंधन आदि, जिनसे छुटकारा पाने की कामना की जाती है. अब ‘छ:’ की ओर चलें. संख्यावाची शब्द ‘छह’ के लिए ‘छः’ लिखना इतना आम हो गया है कि जो सही रूप जानते हैं, उन्हें भी मन में संदेह होने लगता है.

हिंदी छह का विकास संस्कृत ‘षट्’ से हुआ है. संस्कृत षट् > पालि/प्राकृत छ (छअ) > अपभ्रंश/हिंदी > छह. अपभ्रंश से हिंदी में आये छह का उच्चारण पदांत अकार के लोप के कारण ‘छह्’ हो गया‌ और पदांत ‘ह्’ का उच्चारण भी विसर्ग (:) जैसा क्षीण रह जाने के कारण छह > छह् को छ: लिखा जाने लगा. ‘छ:’ लिखे जाने के कारण का विमर्श करते हुए आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की स्थापना रोचक है. वे मानते हैं कि दरबार की भाषा फारसी होने के कारण पढ़ा-लिखा वर्ग फारसी/उर्दू का समर्थक हो गया और हिंदी वे थोड़े से लोग पढ़ रहे थे जो संस्कृत भी नहीं सीख पाते थे. उन्होंने उच्चारण साम्य के कारण छह > छह् को विसर्ग से ‘छः’ लिखना प्रारंभ किया. मन में यही तर्क था कि विसर्ग तो संस्कृत होने का प्रमाण है.

अज्ञान दोष नहीं है और भ्रम होना भी स्वाभाविक है. किसी शब्द की वर्तनी और भाषा प्रयोग के संबंध में अज्ञान और भ्रम को दूर किया जा सकता है. सौभाग्य से जानकारी बढ़ाने के लिए आज अनेक व्याकरण पुस्तकें तथा ‘आकाशीय’ स्रोत, साधन उपलब्ध हैं. उनका उपयोग न कर अपने ही पूर्वाग्रह और अज्ञान का प्रदर्शन करने से हम भाषा का अहित कर रहे होते हैं और आने वाली पीढ़ी को भटकाने का पाप भी हमारे सिर-माथे होता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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