Harivansh Rai Bachchan : हरिवंशराय बच्चन के बारे में कहा जाता है कि वह ‘मधुशाला’ के बाद कुछ नहीं रचते, तो भी भुलाये नहीं जाते और हिंदी साहित्य के आकाश के सबसे चमकीले तारे के रूप में उनकी जगह सुरक्षित रहती. ‘मधुशाला’ ने उनके समय में ही लोकप्रियता के कई पुराने कीर्तिमान ध्वस्त कर डाले थे. जैसे ही उन्हें काव्यपाठ के लिए बुलाया जाता, लोग उनसे बारंबार ‘मधुशाला’ के ही छंद सुनाने का आग्रह करने लगते. उसकी इस लोकप्रियता ने उन्हें संकट में भी डाल दिया था.
ईर्ष्यालु कवियों ने महात्मा गांधी से की थी हरिवंश राय की शिकायत
दरअसल, कुछ ईर्ष्यालु कवियों ने महात्मा गांधी से यह कहते हुए उनकी शिकायत कर डाली थी कि वह ‘मधुशाला’ की मार्फत मद्यपान का प्रचार करने पर आमादा हैं. ये कवि महानुभाव महात्मा से यह मांग करने से भी नहीं चूके थे कि चूंकि वह मद्यनिषेध के पैरोकार हैं, इसलिए ‘मद्यपान के इस प्रचारक’ को कांग्रेस के कवि सम्मेलनों में न बुलवाया करें.
पर महात्मा ने अपनी जांच में इस शिकायत को निराधार पाया.
फिर तो बच्चन जी कवि सम्मेलनों में यह कहकर ‘मधुशाला’ के छंद सुनाने लगे थे कि यह अपने पाठकों व श्रोताओं को मस्ती में ही नहीं झुमाती, गुलामी की व्यापक निराशा से विकल व मूक हो गये देश के मध्य वर्ग के विक्षुब्ध व वेदनाग्रस्त मन को वाणी देती है. साथ ही, प्यार की तड़प व लालसा का इजहार और जीवन की क्षणभंगुरता का प्रतिकार करना भी सिखाती है. अपनी बात को ‘प्रमाणित’ करने के लिए वह मधुशाला के इस छंद का खास तौर पर उल्लेख किया करते थे : ‘छोटे से जीवन में कितना प्यार करूं, पी लूं हाला/आने के ही साथ जगत में कहलाया ‘जानेवाला/स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी/बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला.’
हरिवंश बच्चन ने पद्य और गद्य को समृद्ध किया
वह ‘मधुशाला’ पर ही नहीं रुके रहे और निरंतर सृजनरत रहकर पद्य के साथ गद्य को भी समृद्ध करते रहे. जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने चार खंडों में आत्मकथा लिखी, जिसने सुहृदजनों की भरपूर प्रशंसा अर्जित की. आत्मकथा के लिए उन्हें प्रतिष्ठित ‘सरस्वती सम्मान’ तो िमला ही, ‘धर्मयुग’ के संपादक धर्मवीर भारती ने यह तक कह डाला कि इससे पहले हिंदी में ऐसी आत्मकथा लिखी ही नहीं गयी, जिसमें लेखक ने अपने बारे में बताते हुए न कोई छद्म रचा, न कुछ छिपाने की जरूरत महसूस की हो. बच्चन ने आत्मकथा के पहले खंड ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ में चारों खंडों की ‘प्रस्तावना’ के तौर पर यह भावप्रवण गीत दिया था : ‘क्या भुलूं, क्या याद करूं मैं!/अगणित उन्मादों के क्षण हैं/अगणित अवसादों के क्षण हैं/रजनी की सूनी घड़ियों को किन-किन से आबाद करूं मैं!/क्या भुलूं, क्या याद करूं मैं!/याद सुखों की आंसू लाती/दुख की, दिल भारी कर जाती/दोष किसे दूं जब अपने से अपने दिन बर्बाद करूं मैं!’
वर्ष 1926 में जब वह सिर्फ 19 वर्ष के थे, 14 वर्षीया श्यामा देवी से विवाह के बंधन में बांध दिये गये थे. लेकिन दांपत्य के 10 ही साल बीते थे कि क्षय रोग ने श्यामा को असमय ही काल का ग्रास बना लिया. इससे बच्चन का जीवन बैठ कर रह गया. आत्मकथा में उन्होंने जीवन के उस सबसे त्रासद कालखंड की प्रायः सारी स्मृतियों को करीने से सहेजा है. दूसरे खंड ‘नीड़ का निर्माण फिर’ में 1941 में रंगमंच व गायन से जुड़ी तेजी सूरी के प्रति आसक्त होकर दूसरी शादी करने का भी उन्होंने बेहद ईमानदार चित्रण किया है. यहां तक कि तेजी से पहली मुलाकात का भी. इसका भी कि कैसे एक आयोजन में उनका वेदनामय काव्य पाठ सुनकर वह विह्वल ही नहीं, कातर भी हो उठी थीं.
उस नयन में बह सकी कब इस नयन की अश्रुधारा?
उन्होंने लिखा है : ‘(रात्रि में कविता पाठ के वक्त) न जाने मेरे स्वर में कहां की वेदना भर गयी…जैसे ही मैंने यह पंक्ति पूरी की ‘उस नयन में बह सकी कब इस नयन की अश्रुधारा?’…देखता हूं कि मिस तेजी सूरी की आंखें डबडबा आयी हैं और टप-टप उनके आंसू की बूंदें प्रकाश के कंधे पर गिर रही हैं!…यह देखकर मेरा कंठ भर आता है…और अब मिस सूरी की आंखों से गंगा-जमुना बह चली है…मेरी आंखों से जैसे सरस्वती…और अब हम दोनों एक-दूसरे से लिपटकर रो रहे हैं और आंसुओं के उस संगम से हमने एक-दूसरे से कितना कह डाला है, एक-दूसरे को कितना सुन लिया है चौबीस घंटे पहले हमने इस कमरे में अजनबी की तरह प्रवेश किया था, और चौबीस घंटे बाद हम उसी कमरे से जीवन-साथी (पति-पत्नी नहीं) बनकर निकल रहे हैं.’
‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’ में भी वह अपने बारे में कोई पर्देदारी किये बिना बेलौस होकर बताते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि वह ऐसा कर पाये, क्योंकि उनका सारा जीवन खुली हुई किताब की तरह था. उनका जीवन खुली किताब की तरह न भी रहा हो, तो उन्होंने आत्मकथा लिखकर उसे पूरी तरह खोलकर रख दिया.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)