गर्मी पड़ रही है, इससे ज्यादा फालतू बयान कोई नहीं हो सकता. जून में गर्मी न पड़े, सर्दी पड़े, तो खबर बनती है. हालांकि जून हो या दिसंबर, खास खबर तो यही होती है कि फलांजी इधर से निकल जाने की तैयारी कर रहे हैं, जो मार्च में उधर से निकल कर इधर आये थे. गर्मी आकर जाने का नाम नहीं ले रही, पर यह खबर सबसे बड़ी खबर नहीं है. गर्मी बहुत है, पर बहुत ज्यादा टीवी चैनलों को लगती है. टीवी अगर लगातार देख ले, तो बंदा घर से बाहर निकलने से इनकार कर दे. पिघल जायेंगे, अगर घर से बाहर जायेंगे आप-टाइप खबरें चलती हैं टीवी पर. चैनल वाला तो घर से निकल कर चैनल दफ्तर आकर अपना काम रहा है, हमको डरा रहा है कि पिघल जायेंगे. अभी थोड़ी बारिश हो जाए, तो यही चैनलवाला बताने लगता है कि अभी प्रलय आयेगी और बीस मंजिल की इमारत डूब जायेगी. टीवी चैनलों का काम डराने का है. जीवन एकदम शांत लगने लगता है अगर पांच सात दिन टीवी ना देखो तो.
सरकार चल निकली है. पर सवाल भी चल निकला है कि कब तक चलेगी. जो लोग सरकार चलाने-गिराने में कोई रोल ना रखते, वो भी पूछने लगते हैं कि सरकार कब तक चलेगी. एक आलू की ठेली वाला यही पूछ रहा कि सरकार कब तक चलेगी. मैंने कहा- भाई, बीस साल से तेरी आलू की ठेली चल रही है, मस्त रह. सरकार चल जाये, तो भी तेरा आलू का शोरुम ना हो जायेगा. वो अकड़ गया और बोला- हमारी आलू की ठेली किसी भी सरकार से ज्यादा स्थिर है. यह गठबंधन की ठेली नहीं है. पर इस बार गर्मी वाकई बहुत जबरदस्त है, इसका मुझे पता तब लगा, जब कई एनजीओबाज विद्वान क्लाइमेट चेंज विषय पर सेमिनार में यूरोप गये. ऐसे एक एनजीओबाज को मैंने डपटा कि क्लाइमेट चेंज की वजह से गर्मी यहां पड़ रही है लद्दूखेड़ा में और तुम लंदन में सेमिनारबाजी मचा रहे हो. यहीं देखो, कैसी समस्या है जमीन पर. पर एनजीओबाज यह सुनने के लिए जमीन पर ना रुका, वह उड़ लिया.
क्लाइमेट चेंज पर सेमिनार का धंधा चल निकला है. सरकारें सेमिनार कराने के लिए भर भर के ग्रांट देगी. सरकारों की यह अदा भी कमाल होती है. समस्या हल ना हो रही है, पर समस्या पर सेमिनारबाजी कराना कोई समस्या नहीं है. पानी की भीषण समस्या है, लो जी इस विषय पर पांच सेमिनार सुन लो. होशियार एनजीओबाज पहले ही ताड़ लेता है कि किस विषय की सेमिनारबाजी का सीजन है. अभी सीजन क्लाइमेट चेंज का है. पानी की समस्या पर फंड कम मिल रहा है, एक समस्या यह भी है वैसे. तो आइये, क्लाइमेट चेंज पर बहस करें.