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अपने गिरेबान में भी झांकने की जरूरत

Hindi Diwas 2024 : बेहतर हो कि हिंदी समाज यह समझे और इस स्थिति के कारण तलाशे कि क्यों उसकी हिंदी अभी भी महज विज्ञापन, बाजार व मनोरंजन आदि की ही भाषा बनी हुई है और बहुत आगे बढ़ती भी है, तो वोट मांगने की भाषा होकर रह जाती है, अकादमिक विचार-विमर्श व सत्ता-संचालन की भाषा नहीं बन पाती.

Hindi Diwas 2024 : हिंदी दिवस पर हिंदी की दुर्दशा के लिए सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति को लेकर रोना-धोना मचाने की पुरानी ‘परंपरा’ अब निरर्थक भी हो गयी है. हम जानते हैं कि राज्याश्रय कितना भी क्यों न मिल जाए, वह किसी भाषा को बहुत लंबी यात्रा नहीं करा पाता. इसके उलट कई बार वह दूसरी भाषाओं में उसके प्रति डाह पैदा करता है. राजकाज व रोजी-रोटी से जोड़ने की कोशिशें उसके लिए थोड़ी हितकर जरूर होती हैं, लेकिन उनके सहारे उसे मंजिल तक पहुंचाने का काम उसके समाज को ही करना पड़ता है. उसका भविष्य बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि उसके समाज में उसके प्रति अपनत्व का भाव कितना गहरा या उथला है. इस दृष्टि से आज सबसे जरूरी सवाल यह है कि क्या आजादी मिलने और हिंदी को राजभाषा बनाये जाने के बाद के हिंदी समाज ने हिंदी को उसकी मंजिल तक पहुंचाने के लिए अपना जरूरी कर्तव्य निभाया है. इसका जवाब हां में दिया जा सकता, तो आज हिंदी को लेकर सिर धुनने वाले हालात नहीं होते.


स्मृतिशेष रघुवीर सहाय के शब्दों में कहें, तो वह दुहाजू की बीवी ही न बनी रहती. आखिर क्यों हालात इतने उलट गये हैं कि वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना को कहना पड़ता है कि हिंदी का भला इसी में है कि उसको फौरन राजभाषा पद से हटा दिया जाए. बहुत से लोगों को भी लगता है कि हिंदी का यह पद हाथी के दांतों जैसा है. इस दिखावे की बिना पर ही वह अन्य भारतीय भाषाओं की डाह झेलने के लिए अभिशप्त है. लेकिन आज उसकी विडंबना इतनी ही नहीं है. उसका समाज उसके राजभाषा होने का जश्न मनाते हुए इमोशनल अत्याचार की तर्ज पर उसे ‘आगे बढ़कर’ राष्ट्रभाषा वगैरह बनाने की बात तो करता है, मगर उसे ज्ञान-विज्ञान व चिंतन-मनन की भाषा बनाने की दिशा में सार्थक कदम नहीं बढ़ाता.

इसका नुकसान इस अर्थ में दोहरा है कि इससे हिंदी का ही नहीं, उसके समाज का उन्नयन भी बाधित होता है. सत्ता प्रतिष्ठान को इससे सुविधा ही होती है, जिसका लाभ उठाकर वह हिंदी को ज्ञान-विज्ञान व चिंतन की भाषा बनाने के प्रयास करने के बजाय उसके समाज को ही अवैज्ञानिकता में जकड़े रखने में लगा रहता है. न उसे वह यह बताता है कि उन्हीं देशों ने सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक तरक्की की है, जिन्होंने अपनी भाषा को ज्ञान की भाषा बनाया.


बेहतर हो कि हिंदी समाज यह समझे और इस स्थिति के कारण तलाशे कि क्यों उसकी हिंदी अभी भी महज विज्ञापन, बाजार व मनोरंजन आदि की ही भाषा बनी हुई है और बहुत आगे बढ़ती भी है, तो वोट मांगने की भाषा होकर रह जाती है, अकादमिक विचार-विमर्श व सत्ता-संचालन की भाषा नहीं बन पाती. क्यों वह वक्त पीछे छूट गया है, जब उसको बहती नदी की धारा की तरह सबके लिए उपयोगी और कल्याणकारी मानकर गैरहिंदीभाषी राज्यों ने भी उसको अनेक उन्नायक दिये, जिन्होंने उसके उत्थान के लिए यावत्जीवन अपना सब कुछ न्यौछावर किये रखा?

हम जानते हैं कि गुजरातीभाषी महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी रहे हों, बांग्लाभाषी राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, रवींद्रनाथ टैगोर व नेताजी सुभाषचंद्र बोस या मराठीभाषी नामदेव, गोपालकृष्ण गोखले व रानाडे, उन सबने अपने वक्त में हिंदी के लिए आवाज उठायी. इसी परंपरा में तमिलनाडु के सुब्रह्मण्यम भारती व पंजाब के लाला लाजपत राय या आंध्र प्रदेश के प्रो जी सुंदर रेड्डी भी आते हैं, जिन्होंने अपने वक्त में अपने-अपने क्षेत्रों में हिंदी को बढ़ावा देने के बहुविध जतन किये.


आज यह शृंखला टूट गयी है और हिंदी व दूसरी भारतीय भाषाओं के बीच असंवाद की स्थिति बन गयी है, जिसका लाभ उठाकर अंग्रेजी खुद को महारानी बनाये हुए है. क्या हिंदी समाज इसके लिए सिर्फ राजनीति को जिम्मेदार ठहराकर कर्तव्यमुक्त हो सकता है? नहीं, क्योंकि वह ‘हमारी हिंदी, हमारी हिंदी’ का शोर तो बहुत मचाता रहा है, पर उसे लेकर अहिंदीभाषियों से ‘यह आपकी हिंदी’ कभी नहीं कहता. ऐसे में उनकी हार्दिकता लंबी उम्र कैसे पाती? फिर भी हिंदी समाज अहिंदीभाषियों के कथित हिंदी विरोध को लेकर खीझता तो दिखता है, पर यह देखना कतई गवारा नहीं करता कि उसके अपने आंगन में भी हिंदी का हाल खराब होता जा रहा है. उसके प्रति तिरस्कार का भाव तो इतना बढ़ गया है कि लोग अपने बच्चों को हिंदी माध्यम स्कूलों में पढ़ाने में लज्जा और इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ाने में गौरव का अनुभव करते हैं. इसके चलते कई क्षेत्रों में हिंदी माध्यम स्कूल गुजरे जमाने की वस्तु हो गये हैं. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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