सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी और निजी अस्पतालों में मरीजों से वसूले जाने वाले चिकित्सा शुल्क में भारी अंतर पर कड़ा एतराज जताया है. साल 2012 में बने नियमों के तहत केंद्र सरकार को राज्यों से सलाह कर विभिन्न रोगों के इलाज के लिए महानगरों एवं छोटे-बड़े शहरों में एक निर्धारित शुल्क तय करने का निर्देश है. लेकिन अभी तक ऐसा नहीं किया गया है. केंद्र सरकार का कहना है कि इस मसले पर राज्यों को लगातार पत्र लिखा गया है, पर उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि राज्यों द्वारा जवाब नहीं देने को आधार बना कर केंद्र सरकार अपनी जवाबदेही से मुंह नहीं मोड़ सकती है क्योंकि स्वास्थ्य सेवा नागरिकों का एक मूलभूत अधिकार है. अदालती निर्देश के अनुसार एक महीने के भीतर केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव को राज्यों के स्वास्थ्य सचिवों के साथ बैठक कर चिकित्सा शुल्कों को निर्धारित करना है. अगर ऐसा नहीं किया गया, तो अदालत केंद्र सरकार स्वास्थ्य सेवा की दरों को देशभर के अस्पतालों में लागू करने के याचिकाकर्ता के निवेदन पर विचार कर सकती है. यह अक्सर देखा गया है कि निजी अस्पताल मरीजों से मनमाने ढंग से विभिन्न प्रकार के शुल्कों की वसूली करते हैं. ऐसी भी घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें मरीज को ठीक होने के बाद केवल इसलिए अस्पताल से छुट्टी नहीं दी गयी कि उसके परिजन खर्च चुकाने में असमर्थ थे.
अस्पतालों द्वारा रोगी की लाश को बंधक बनाने के मामले भी सामने आ चुके हैं. एक संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित किया था कि कोरोना महामारी के दौरान अगर बड़े निजी अस्पताल कमाई के लालच में नहीं पड़ते और यथासंभव संक्रमितों का उपचार करते, तो कई लोगों को मरने से बचाया जा सकता था. हाल के वर्षों में सरकारी अस्पतालों की स्थिति में सुधार हुआ है, पर सीमित संसाधनों के कारण वे सभी मरीजों का इलाज कर पाने में समर्थ नहीं हैं. ऐसे में रोगियों को निजी अस्पतालों की शरण में जाना पड़ता है. हालांकि आयुष्मान भारत तथा अन्य कल्याणकारी बीमा योजनाओं से आबादी के गरीब तबके को बड़ी राहत मिली है, पर ऐसी योजनाओं के दायरे से जो लोग बाहर हैं, उनमें बड़ी तादाद ऐसी है, जिसके पास बीमा नहीं है या बीमा राशि कम है. ऐसे लोगों के लिए निजी अस्पतालों में भर्ती होना बहुत बड़ा आर्थिक झटका होता है. हाल में केंद्र सरकार ने गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती को लेकर नियम बनाया है. लेकिन जब तक चिकित्सा दरों को लेकर ठोस निर्णय नहीं होगा, लोगों को राहत नहीं मिलेगी. कोविड महामारी के समय केंद्र सरकार ने तुरंत शुल्कों की निर्धारित दरें घोषित कर दी थीं. यदि राज्यों का रवैया सकारात्मक नहीं है, तो केंद्र सरकार को नियमों के तहत शुल्क तय कर देना चाहिए.