हाल में हरियाणा और असम की सरकारों ने पुलिसकर्मियों की फिटनेस को लेकर कड़े आदेश जारी किये हैं. इनमें भारी वजन वाले और पेट निकले अधिकारियों और कर्मचारियों को चेतावनी दी गयी है कि वे अपनी फिटनेस पर ध्यान दें और चुस्त-दुरुस्त हो जाएं. हरियाणा सरकार ने तो आदेश जारी कर दिया है कि वजनी अधिकारियों को पुलिस लाइन में तैनात किया जाए.
हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज का कहना है कि अपराध पर लगाम लगाने के लिए पुलिसकर्मियों की फिटनेस बहुत जरूरी है. हरियाणा में 65 हजार से अधिक पुलिस जवान मोटापे के शिकार हैं. असम सरकार ने एक हाथ और आगे निकलते हुए पुलिसकर्मियों से कहा है कि वे नवंबर तक अपना मोटापा घटा लें, अन्यथा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना के लिए तैयार रहें.
मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा के निर्देश पर पुलिस विभाग ने आइपीएस अधिकारियों समेत सभी पुलिसकर्मियों को बॉडी मास इंडेक्स दर्ज करवाने का निर्देश दिया है. असम के पुलिस महानिदेशक ज्ञानेंद्र प्रताप सिंह को सबसे पहले अपना बीएमएस दर्ज कराना है. प्रारंभिक सर्वे के मुताबिक असम पुलिस में लगभग 680 पुलिसकर्मी ऐसे हैं, जिनका वजन अधिक पाया गया है. अगर आप हमारे प्रसार वाले राज्यों बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल पर नजर दौड़ाएं, तो यहां भी अनेक पुलिसकर्मी अनफिट मिलेंगे.
देश में पुलिस सुधारों पर काम करीब चार दशक पहले शुरू हुआ था तथा इसके संबंध में समय-समय पर विभिन्न समितियों व आयोगों का गठन किया गया. इनमें 1978-82 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग, 2000 में पुलिस के पुनर्गठन पर पद्मनाभैया समिति और 2002-03 में आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों पर मलीमठ समिति उल्लेखनीय हैं. वर्ष 1998 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जूलियो रिबेरो की अध्यक्षता में एक समिति गठित हुई थी, जिसका काम केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा सिफारिशों पर की गयी कार्रवाई की समीक्षा और लंबित सिफारिशों को लागू करने के तरीके सुझाना था, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इन पर कभी पूरी तरह अमल नहीं हो पाया है.
उत्तर प्रदेश, असम पुलिस और सीमा सुरक्षाबल (बीएसएफ) के प्रमुख रहे प्रकाश सिंह को देश में पुलिस सुधारों का अहम पक्षधर माना जाता है. उनका कहना है कि पुलिस संबंधी समाचार जब तब सुर्खियों में आते रहते हैं. दुर्भाग्य से जब पुलिस से कोई बड़ी गलती हो जाती है, केवल तभी पुलिस सुधार की चर्चा होती है. घटना पर जब समय की धूल जम जाती है, तो लोग सुधार की बात भूल जाते हैं और काम पूर्ववत चलता रहता है.
एक जनहित याचिका 22 सितंबर, 1996 को दायर की गयी थी. दस वर्षों के संघर्ष के बाद 2006 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद उम्मीद जगी थी कि पुलिस अब जनता के मित्र के रूप में काम करेगी और विधि और विधान को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए हर परिस्थिति में कानून का पालन करेगी. दुर्भाग्य है कि नेता और ब्यूरोक्रेसी पुलिस में सुधार नहीं चाहती है. उन्हें ऐसा लगता है कि अगर पुलिस को स्वायत्तता मिल गयी, तो उनका पुलिस पर नियंत्रण समाप्त हो जायेगा.
यह सच है कि जब भी लोग परेशानी में फंसते हैं, तब उन्हें पुलिस प्रशासन से ही सहारा मिलता है. बावजूद इसके आम जन में पुलिस को लेकर भारी अविश्वास का भाव है. आम लोगों के बीच पुलिस की नकारात्मक छवि है. उन पर समय-समय पर मानवाधिकार हनन के गंभीर आरोप लगते रहते हैं और उनकी कार्यशैली पर सवाल उठते रहते हैं. पुलिस महकमे पर भ्रष्टाचार और अधिकारों का बेजा इस्तेमाल के आरोप भी लगते हैं.
मुझे लगता है कि सबसे बड़ी चुनौती पुलिस पर लोगों का भरोसा कायम करने की है. समाज में एक कहावत प्रचलित है कि पुलिस वाले की न दोस्ती भली, न दुश्मनी. इस धारणा की जड़ें गहरी हैं. इसकी वजह यह है कि अनेक राज्यों से पुलिस द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किये जाने की खबरें अक्सर सामने आती रहती हैं. आम आदमी के दिमाग में पुलिस की छवि के साथ प्रताड़ना, अमानवीय व्यवहार और उगाही जैसे शब्द जुड़ गये हैं. जिस आम आदमी को पुलिस के सबसे ज्यादा सहारे की जरूरत होती है, वह पुलिस से दूर भागने की हर संभव कोशिश करता है.
कुछ अरसा पहले एनजीओ कॉमन कॉज और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने पुलिस सुधारों पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. इसके अनुसार यूपी में केवल आठ फीसदी और पंजाब में सिर्फ नौ फीसदी लोग ही पुलिस के कामकाज से संतुष्ट थे, जबकि हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के 71 फीसदी लोग अपने राज्य के पुलिस बल से संतुष्ट पाये गये. देश में 17,535 पुलिस थाने हैं, पर बहुत से थानों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है. हालांकि देश में हर एक लाख व्यक्ति पर पुलिसकर्मियों की स्वीकृत मानक संख्या 181 है, पर वास्तविक संख्या कम है.
संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार एक लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए. राज्य पुलिस बलों में 85 फीसदी संख्या कॉन्स्टेबल की होती है. अपने सेवा काल में कॉन्स्टेबलों की आम तौर पर एक बार पदोन्नति होती है और अमूमन वे हेड कॉन्स्टेबल के पद पर ही रिटायर हो जाते हैं. अभी तक माना जाता था कि रुतबे के कारण पुलिस की नौकरी का आकर्षण है. लेकिन यह आकर्षण लगातार कम होता जा रहा है.
ऐसी खबरें सामने आयी हैं कि जिन युवाओं को पुलिस और सरकारी शिक्षक की नौकरी के बीच चयन करने का अवसर मिला, उनमें से अनेक ने शिक्षक की नौकरी पसंद की. इसकी एक वजह आर्थिक भी है. कई राज्यों में शिक्षक का वेतन पुलिसकर्मी से बेहतर है. पुलिसकर्मियों को साल भर में भले ही कितनी भी छुट्टियां स्वीकृत हों, उन्हें बमुश्किल 10-12 छुट्टियां ही मिल पाती हैं. शिक्षकों की पदोन्नति औसतन 10 साल में हो जाती है, जबकि पुलिसकर्मियों को पदोन्नति पाने में अमूमन 15 साल तक लग जाते हैं.
पुलिसकर्मी के ड्यूटी के घंटे भी निर्धारित नहीं हैं. वे औसतन 12 घंटे काम करते हैं. शिक्षक घर के समीप के स्कूल में पढ़ा सकते हैं, जबकि पुलिसकर्मी गृह जनपद में नौकरी नहीं कर सकते. ऐसे में पुलिस की नौकरी का आकर्षण कम होता नजर आ रहा है. यह बात भी कोई छुपी हुई नहीं है कि भारत में पुलिस बल के कामकाज में भारी राजनीतिक हस्तक्षेप होता है. जब भी किसी पहुंच वाले शख्स को पुलिस पकड़कर ले जाती है, तो उसे छुड़वाने के लिए स्थानीय रसूखदार नेताओं के फोन आ जाते हैं. जब अपराधी खुद राजनीति में आ जाते हैं, तो मुश्किलें और बढ़ जाती हैं.