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आजादी का पर्व और आदर्श भारत

भारत को अगर वर्ष 2047 का आदर्श भारत, समृद्ध भारत और दुनिया की मानवता की अगुआई करने वाला भारत बनना है, तो उसकी पहली शर्त है कि साढ़े छह लाख गांवों को आत्मनिर्भर होना होगा

भारत की आजादी की 25वीं वर्षगांठ पर कोई समारोह नहीं हुआ था, लेकिन 50वीं वर्षगांठ पर समारोह हुए थे. मगर, स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ उन दोनों से भिन्न है. इसे मनाने के लिए प्रधानमंत्री ने संस्कृति मंत्रालय को अपग्रेड किया और पहली बार एक कैबिनेट मंत्री, दो राज्य मंत्री और योग्य व कर्मठ सचिव दिये. इसकी तुलना में 50वीं वर्षगांठ के समय एक बहुत ही जूनियर मंत्री को दायित्व दिया गया था और कर्मचारी भी नहीं थे. पहले संस्कृति मंत्रालय में नियुक्ति को ‘पनिश्मेंट पोस्टिंग’ माना जाता था.

प्रधानमंत्री ने इस बार यह भरोसा दिलाकर उनका मनोबल ऊंचा किया कि उन्हें एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी जा रही है. उन्हें संसाधन दिये गये और प्रधानमंत्री की अपनी सोच से नयी परिकल्पनाएं आयीं. जैसे, 14 अगस्त को विभाजन की विभीषिका को मनाना, अनाम स्वतंत्रता सेनानियों को याद करना. ऐसे में जिस तरह आजादी के समय विभिन्न धाराओं के आंदोलन चले थे, उन्हें पुनः याद करने का एक जनांदोलन शुरू हो गया. जैसे, वर्ष 2014 में जो बालक या बालिका आठ वर्ष के थे, वे 2024 में 18 के हो जाएंगे. उनकी संख्या करोड़ों में है.

उस नयी पीढ़ी की स्मृति में तो नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी हैं. उस नयी पीढ़ी को आजादी के आंदोलन से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास शुरू हो चुका है. प्रधानमंत्री ने 75वीं सालगिरह के पूरा होते ही कहा कि हम अमृतकाल की ओर बढ़ रहे हैं, अर्थात् 2047 के हमारे सपने क्या होंगे. मैं यह नहीं कहता कि गरीबी समाप्त हो गयी है, लेकिन यह अवश्य हुआ है कि गरीबी रेखा से ऊपर उठनेवालों की संख्या करोड़ों में पहुंची है. कोई भी समाज जब उड़ान भरता है तो उसके लिए यह विश्वास जरूरी होता है कि हम ऊंचाई छू सकते हैं. अमृत महोत्सव के कारण नयी पीढ़ी में एक जज्बा पैदा हुआ है.

हालांकि, अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता और औपनिवेशिक तंत्र को देशज बनाने के लिए जो काम होने चाहिए उनकी गति धीमी है. यह शिकायत नेहरू जी को भी थी और प्रधानमंत्री मोदी का भी यह प्रयास है कि यह औपनिवेशिक जड़ता टूटे. इसलिए नौ अगस्त को उन्होंने भारत छोड़ो की तरह ‘भ्रष्टाचार भारत छोड़ो’ का नारा दिया. वह समझ रहे हैं कि अभी भी शासन और प्रशासन में यह बीमारी मौजूद है. व्यवस्था परिवर्तन की गति धीमी होती है.

भारत में यह तेज हुई है और इसके लिए एक माहौल बना है जो पहले नहीं था. भारत में 1947 से लेकर 2014 तक रहे प्रधानमंत्रियों ने अपनी-अपनी दृष्टि से भारत को विकसित करने की कोशिश की. लेकिन, हम लौटकर देखते हैं तो पाते हैं, कि हम यह कोशिश भारतीयता को समझे बगैर कर रहे थे. यह अहसास आजादी या भारत छोड़ो आंदोलन की स्वर्ण जयंती के समय होने लगा था. इसे लेकर अच्युत पटवर्धन ने सबसे मुखरता से आवाज उठायी थी जो अगस्त क्रांति के एक महत्वपूर्ण नायक थे.

जेपी ने जैसे 54-55 में दलीय राजनीति छोड़ी, वैसे ही अच्युत पटवर्धन ने भी दलीय राजनीति छोड़ दी थी. उन्होंने 1992 में अगस्त क्रांति की 50वीं वर्षगांठ के समय एक लंबे लेख में भारत का एजेंडा बताने की कोशिश की थी, लेकिन किसी ने उसपर ध्यान नहीं दिया. जेपी ने 1959 में और अच्युत पटवर्धन ने 1992 में जो मूल बात कही, वह ये थी कि हमें अपनी राज्य व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहिए. नेहरू यह जरूर कहते रहे कि अंग्रेजों ने हमें एक जंग लगा जहाज दे दिया है, मगर ना तो उन्होंने और ना ही इंदिरा गांधी ने इस व्यवस्था को बदलने की कोशिश की.

शासन तंत्र को कैसे जनोन्मुखी बनाया जाए, यह प्रश्न आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पहले था. फर्क केवल यह आया है कि एक संकल्पवान प्रधानमंत्री इसी तंत्र में लैटरल एंट्री के तहत उनलोगों को खोज पा रहा है, जो जनोन्मुखी कार्य करने के लिए स्वयं को तैयार कर चुके हैं. ऐसे छिटपुट प्रयोग पहले भी हुए हैं और इसे नेहरू जी ने भी किया था. मगर अफसरशाही ने नेहरू को भी विफल कर दिया और कुछ हद तक वर्तमान की अफसरशाही ने भी उसे रुकवा दिया है.

इसकी वजह से प्रधानमंत्री द्वारा किए जा रहे बड़े फैसलों में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करना और उनमें उत्साह जगाने का प्रश्न छूट रहा है. सरकारी तंत्र में परिवर्तन की गति बढ़ी है लेकिन सर्वसाधारण में वैसी गति अभी तक नहीं देखी जा रही है. उसी प्रकार मनमोहन सिंह के जमाने में विशेष आर्थिक क्षेत्र या एसईजेड की शुरुआत हुई थी जो नाकाम हो गयी.

मगर उसका अगला चरण स्टार्टअप है जो सफल हो रहा है, क्योंकि उसकी सख्ती से निगरानी हो रही है. उसी प्रकार डिजिटल सुविधा से सरकार की ओर से भेजी जा रही राशि में चोरी नहीं हो रही और वह लोगों तक पहुंच रही है. लेकिन, प्रशासन तंत्र की अपनी सीमाएं हैं. प्रशासन जहां भी लड़खड़ाए और उसे सहयोग की जरूरत हो, तो वह समाज की सज्जन शक्तियों से यह सहयोग ले सके, इसकी व्यवस्था होनी बाकी है.

गांधी जी से 1942 में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर ने पूछा था कि भारत आजाद हुआ तो वह पहला काम क्या करेंगे. गांधी जी ने तब कहा था कि मुझे यदि एक दिन का तानाशाह बना दिया जाए तो सत्ता की जो शक्ति दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता और मद्रास में है, उसे मैं गांवों में बांट दूंगा. भारत को अगर वर्ष 2047 का आदर्श भारत, समृद्ध भारत और दुनिया की मानवता की अगुआई करने वाला भारत बनना है, तो उसकी पहली शर्त है कि साढ़े छह लाख गांवों को आत्मनिर्भर होना होगा और उन्हें आस-पास के साथ परस्परता का भाव स्थापित करना होगा.

आजादी के 75 साल बाद भी गांवों को अपने निर्णय करने का अधिकार नहीं मिला है. यह अधिकार उन्हें लड़कर लेना होगा और जगह-जगह बैठे जिलाधिकारियों से मुक्ति के लिए आंदोलन चलाना पड़ेगा. इसे लेकर प्रधानमंत्री से लेकर पंचायत प्रमुख तक सोचते हैं. इसकी अड़चनों को पहचान कर दूर करना होगा. इसमें समय लगेगा लेकिन उस दिशा में बढ़ने की कोशिश इस शासन में शुरू हुई है और हम उम्मीद करते हैं कि 2047 तक हम आगे बढ़ सकेंगे. भारत शहरों की समृद्धि की वजह से नहीं, गांवों की समृद्धि से समृद्ध रहा है.

संसदीय राजनीति की यह विडंबना है कि उसके मंच पांच साल के दायरे में सोचते हैं. प्रधानमंत्री मोदी भविष्य के बारे में सोचते हैं. प्रधानमंत्री ने कर्तव्य पथ पर चलकर उदाहरण प्रस्तुत किया है और दूसरों को चलने के लिए प्रेरित किया है. यह नेतृत्व भारत को उस मुकाम तक पहुंचाने में समर्थ होगा जिसका हम सपना देखते हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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