पद्मश्री अशोक भगत, सचिव, विकास भारती, बिशुनपुर
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कोरोना विषाणु का दंश झेल रही दुनिया को विषाणुओं के दुष्प्रभाव समझ में आने लगे हैं. ऐसे में हमें अपनी जड़ों की ओर मुड़ना चाहिए और प्रकृति समन्वय को संस्कृति का आधार बनाना चाहिए. हमारी संस्कृति का आधार गाय, गंगा, वेद यानी सकारात्मक ज्ञान, प्रकृति का संरक्षण व वैश्विक सोच रही है. भारतीय संस्कृति ऋषि और कृषि की संस्कृति है, जिसमें गो-पालन का विशेष महत्व है. इसमें गोवंश के प्रति एक विशेष प्रकार की आस्था है, जिसके मूल में इनकी उपादेयता के महत्व की स्वीकृति अौर धार्मिक भाव है.
आक्रांताओं या किसी और संस्कृति के प्रभाव के कारण शेष भारत में थोड़ी सांस्कृतिक विद्रुपता तो दिखती है, लेकिन जनजातीय समाज आज भी बहुत हद तक अपनी परंपराओं, संस्कृति और उत्सवधर्मिता पर कायम है. इस समाज में पशुपालन के महत्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि इसके लिए यह समाज बाकायदा एक त्योहार मनाता है. दीवाली के ठीक दूसरे दिन झारखंड का जनजातीय समाज सोहराई पर्व मनाता है.
यह वस्तुत: पशुधन की पूजा का पर्व है। सोहराई के दिन समाज अपने पालतू जानवरों की पूजा ठीक उसी प्रकार करता है, जैसे शेष भारत में दीवाली के दिन देवी लक्ष्मी और गणपति गणेश की पूजा होती है. यह जनजातीय समाज के प्रकृति और जीव प्रेम को दर्शाता है. वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, जीवाणुओं को मारा नहीं जा सकता है, अपितु उसकी मारक क्षमता कम की जा सकती है. इसमें गाय से प्राप्त दूध, गोबर, गोमूत्र बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.
जैविक खेती का तो खूब प्रचार हो रहा है, लेकिन उसके साथ जीवामृत का प्रचार जरूरी है, खासकर झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में. आज पूरी दुनिया रोग, युद्ध एवं प्राकृतिक आपदा से परेशान है. यह प्रकृतिजन्य कम, मानवनिर्मित ज्यादा है. यदि हम अपने आसपास के वातावरण को प्रकृति के अनुकूल बना लें, तो कई समस्याओं से सहज पार पा सकते हैं. पौधों के पोषक तत्वों द्वारा शरीर में प्रतिरोधी शक्ति का निर्माण होता है, जो हमें बीमारी से बचाती है. भूमि माता है एवं पौधा बच्चे. भू माता में प्रतिरोध शक्ति नहीं, तो पौधों में भी प्रतिरोध शक्ति नहीं आयेगी. इसका मतलब कि अगर पौधे में प्रतिरोधक शक्ति पैदा करना है, तो पहले भूमि में प्रतिरोधक शक्ति का निर्माण एवं विकास करना होगा.
भूमि को प्रतिरोधक शक्ति देनेवाले जीवद्रव्य की निर्मिती केवल और केवल जैविक खेती में होती है. इसे प्राकृतिक खेती भी कहा जाता है. रासायनिक खेती जीव द्रव्य, ह्युमस को नष्ट करती है. यदि हमें अपने को और अपने समाज को बचाना है, तो जैविक खेती को बढ़ावा देना ही होगा. यही नहीं, इससे हमारी परंपरा भी खंडित नहीं होती है. जैविक खेती में कुछ मात्रा में कीटों के आने की आशंका रहती है. इसकी रोकथाम के लिए कुछ जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करना होता है। इन्हें बाजार से न लेकर अपने घरों में ही तैयार करना चाहिए. यह वनस्पतिजन्य कीटनाशक कीटों को मारते नहीं, उन्हें भगा देते हैं.
इनके छिड़काव से फसल सुरक्षित होती है एवं वातावरण पर भी इनका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है. जीवामृत बनाने के लिए देशी गाय का मूत्र और गोबर, पुराना गुड़, किसी भी दाल का बेसन, पानी तथा बरगद या पीपल के पेड़ के नीचे की एक मुट्ठी मिट्टी या फिर खेत की मेड़ की या फसल की जड़ों से चिपकी हुई मिट्टी का उपयोग किया जाता है. सबसे पहले गाय के मूत्र को एक कंटेनर में रखें तथा इसमें गाय का गोबर 10 किलोग्राम मिला दें. गोबर को मूत्र में इस तरह से मिलाएं कि मूत्र के साथ घुल जाए.
इसके बाद एक किलोग्राम गुड़ को किसी दूसरे बर्तन में पानी के साथ घोल लें. गुड़ का प्रयोग इसलिए करते हैं, ताकि तैयार मिश्रण में उपस्थित बैक्टीरिया ज्यादा एक्टिव हो जाएं. घुले हुए गुड़ को गोबरयुक्त मूत्र में मिला दें. फिर एक किलोग्राम बेसन को मिला दें. इस मिश्रण को एक बड़े से कंटेनर में डाल दें और कुछ देर तक एक लकड़ी से चलाते रहें. इसके बाद उसमें 200 लीटर पानी मिला दें. इसे चार दिन तक छोड़ दें, लेकिन रोज समय-समय पर एक लकड़ी से चलाते रहें. चार दिन बाद आप इसे पौधों पर उपयोग कर सकते हैं.
इसी प्रकार नीम से बेहद प्रभावशाली जैविक कीट नियंत्रक बनाया जा सकता है, जो रसचूसक कीट एवं इल्ली इत्यादि को नियंत्रित करने में कारगर होता है. इसका जैविकीय विघटन होने के कारण भूमि की संरचना में सुधार होता है. यह सिर्फ हानिकारक कीटों को मारता है, लाभदायक कीटों को हानि नहीं पहुंचता. हरित क्रांति के बाद से भारतीय खेती में जिस प्रकार रासायनिक उर्वरकों का आंख बंद कर प्रयोग हुआ है, उसने हमारी भूमि की संरचना बदल दी है. बहुत ही तेजी से खेती योग्य भूमि बंजर हो रही है. बड़ी मात्रा में किसानों का धन रासायनिक उर्वरकों पर खर्च हो रहा है.
पैदावार पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. इन समस्याओं के समाधान के लिए जैविक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसके अंतर्गत किसानों के पास उपलब्ध संसाधनों का प्रबंधन करके अधिक पैदावार लेना है. इसलिए कंपोस्ट खाद, वर्मी कंपोस्ट, जीवामृत, गोमूत्र आदि का प्रयोग करना है. इन दिनों सरकारी स्तर के साथ कई गैर सरकारी संगठन जीवामृत बनाने का प्रशिक्षण भी देते हैं. किसान वहां प्रशिक्षण प्राप्त कर जीवामृत अपने घर पर ही बना सकते हैं और अपनी जमीन को बंजर होने से बचा सकते हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
Posted by: Pritish Sahay