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आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का प्रेरणादायी शब्दानुशासन

भीषण गरीबी और गिरानी के बावजूद उन्होंने न अपने स्वाभिमान से समझौता किया, न ही हिंदी और देश के लिए अपने अहर्निश अभियान को रुकने या झुकने दिया, तो यह उनके अदम्य जीवट के ही वश की बात थी. दिलचस्प यह भी कि माता-पिता ने उनका नाम गोविंद प्रसाद रखा था.

वर्ष 1898 में 15 दिसंबर को उत्तर प्रदेश में कानपुर स्थित ऐतिहासिक बिठूर के पास रामनगर गांव में जन्मे आचार्य किशोरीदास वाजपेयी द्वारा अप्रतिम वैयाकरण और विशिष्ट भाषाविद के रूप में की गयी हिंदी की बहुविध सेवा के लिए विद्वान व प्रशंसक कभी उन्हें ‘हिंदी का प्रथम वैज्ञानिक’ कहते हैं और कभी ‘हिंदी का पाणिनि.’ लेकिन महापंडित राहुल सांकृत्यायन की प्रेरणा से लिखी गयी उनकी सबसे महत्वाकांक्षी कृति ‘हिंदी शब्दानुशासन’ के आईने में देखें, तो उन्हें हिंदी का अब तक का इकलौता शब्दानुशासक कहना ज्यादा ठीक लगता है. हिंदी को व्याकरणसम्मत, व्यवस्थित, स्थिर, मानकीकृत, परिष्कृत और भविष्य की चुनौतियों से निपटने लायक बनाने में जैसी भूमिका ‘हिन्दी शब्दानुशासन’ ने निभाई है, किसी भी अन्य वैयाकरण की कृति ने नहीं निभायी. वे स्वयं भी अपने को हिंदी के व्याकरण के निर्माता के तौर पर ही सबसे महत्वपूर्ण मानते थे.

उनके स्वाभिमान से भरे व्यक्तित्व व अनूठे कृतित्व के इतने आयाम हैं कि किसी को वे ‘हिंदी के अभिमानमेरु’ लगते हैं, तो किसी को ‘लड़ाकू व अक्खड़.’ संस्कृत के आचार्य होने के बावजूद उन्होंने हिंदी को स्वतंत्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कुछ भी कसर उठा नहीं रखा, न वैयाकरण के रूप में और न ही आलोचक, लेखक, कवि या साहित्यकार के रूप में. यह उद्घोषणा करने वाले वे पहले वैयाकरण थे कि हिंदी संस्कृत से अनुप्राणित अवश्य है, किंतु उससे अलग अपनी ‘सार्वभौम सत्ता’ रखती है और अपने नियमों से चलती है. कई लोगों ने इसे उनके द्वारा की गयी संस्कृत की अवज्ञा के रूप में देखा, तो भी उन्होंने कोई परवाह नहीं की. हिंदी को ‘अंग्रेजी की चेरी’ भी उन्होंने कभी नहीं माना, ब्रिटिश साम्राज्यवाद की छाया में पनप रहे उसके भाषाई साम्राज्य के बावजूद. उनके इस न मानने के महत्व को इस तथ्य की रौशनी में समझा जा सकता है कि कई मायनों में वह अंग्रेजी के ‘आतंक’ का दौर था और किसी न किसी मोड़ पर उस आतंक को हर किसी को स्वीकार करना पड़ता था. लेकिन संस्कृत व अंग्रेजी दोनों की ‘समृद्धि’ से निरपेक्ष रहते हुए वे हिंदी, उसके व्याकरण, साहित्य व संस्कृति के उन्नयन और भारत माता को स्वाधीन कराने की साधना भी करते रहे. गोरी सत्ता की ओर से उन्हें इसके ‘पुरस्कार’ नौकरी गंवाने और जेल जाने के रूप में मिलने लगे, तो भी अपने पथ से विचलित नहीं हुए.

उनकी इन सेवाओं का ठीक मोल तब तक नहीं समझा जा सकता, जब तब यह न जान लिया जाये कि उन्होंने अपने जीवन का बड़ा, खासकर किशोरावस्था तक का हिस्सा भीषण गरीबी, अभावों, उपेक्षाओं व अपमानों के बीच मवेशी चराकर व मजदूरी कर बेहद दारुण स्थितियों में काटा था. भीषण गरीबी और गिरानी के बावजूद उन्होंने न अपने स्वाभिमान से समझौता किया, न ही हिंदी और देश के लिए अपने अहर्निश अभियान को रुकने या झुकने दिया, तो यह उनके अदम्य जीवट के ही वश की बात थी. दिलचस्प यह भी कि माता-पिता ने उनका नाम गोविंद प्रसाद रखा था. लेकिन बाद में कृष्णप्रिया राधा से, जिनको किशोरी जी भी कहा जाता है, प्रभावित होने के कारण उन्होंने स्वयं अपना नाम किशोरीदास रख लिया था और अपनी सारी सृजन-साधना इसी नाम से की थी. उन्होंने हिंदी भाषा के व्याकरण के निर्धारण व परिष्करण के सिलसिले में नौ पुस्तकें लिखी हैं. ‘ब्रजभाषा का व्याकरण’ और ‘ब्रजभाषा का प्रौढ़ व्याकरण’ जैसी बहुमूल्य कृतियां भी उनके खाते में हैं.

अपनी प्रायः सारी पुस्तकों के नामकरण में उन्होंने ध्यान रखा है कि उनके नाम से ही पाठकों को उनकी विषयवस्तु का संकेत मिल जाए. मिसाल के तौर पर: हिंदी शब्दानुशासन, राष्ट्र-भाषा का प्रथम व्याकरण, हिंदी निरुक्त, हिंदी शब्द-निर्णय, हिंदी शब्द-मीमांसा, भारतीय भाषाविज्ञान, हिंदी वर्तनी और शब्द विश्लेषण, अच्छी हिंदी, अच्छी हिंदी का नमूना, ब्रजभाषा का व्याकरण और ब्रजभाषा का प्रौढ़ व्याकरण. उन्होंने काव्यशास्त्र को लेकर भी चिंतन-मनन किया है और इतिहास व संस्कृति आदि से जुड़े विषयों पर भी. अपनी प्रायः सारी कृतियों में, जैसा वे दूसरों से अपेक्षा रखते थे, उन्होंने असाधारण शब्द संयम से काम लिया है. इसलिए उनकी ज्यादातर कृतियां 200 पृष्ठों से कम की हैं. उन्होंने सौ पृष्ठों से कम की पुस्तकें भी रची हैं. अलबत्ता, तीन भागों में विभाजित और छह सौ से ज्यादा पृष्ठों में फैला ग्रंथ ‘हिंदी शब्दानुशासन’ इसका अपवाद है.

उन्हें लगता था कि इसमें वे जितना कहना चाहते थे, नहीं कह पाये हैं. इसलिए इसके तीसरे संस्करण में वे इसके दो प्रकरणों को फिर से लिखना चाहते थे. पर ऐसा नहीं कर पाये, तो ‘निवेदन’ में यह लिखकर छुट्टी कर दी थी- ‘इच्छा थी कि सर्वनाम और तद्धित प्रकरण फिर से लिखे जायें. सभा (नागरी प्रचारिणी सभा) को सूचित भी कर दिया था कि ये प्रकरण फिर से लिखकर भेजूंगा. परंतु फिर हिम्मत न पड़ी. दिमाग एक विचित्र थकान का अनुभव करता है. इस पर अब जोर देना ठीक नहीं. डर है कि वैसा करने से अपने मित्र कविवर नवीन, महाकवि निराला, महापंडित राहुल सांकृत्यायन तथा कविवर अनूप की ही तरह इस उतरती उम्र में पागल न हो जाऊं.’

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