डॉ अंशुमान कुमार
वरिष्ठ कैंसर रोग
विशेषज्ञ, दिल्ली
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कोरोना संक्रमण के प्रति जागरूकता बढ़ाने में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस बार बहुत ही सराहनीय भूमिका निभायी है. मुद्दों से ध्यान भटकाने के बजाय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी इस बार अपनी जिम्मेदारी समझी. हालांकि, सोशल मीडिया पर अफवाहें फैलायी जा रही हैं, उसे नहीं मानना चाहिए. इस बीमारी के बारे में चीन से काफी जानकारी बाहर आ चुकी है. स्पेन और इटली से भी इससे जुड़े रिसर्च पेपर प्रकाशित हुए हैं, जिससे मुख्य रूप से तीन बातें ही स्पष्ट हो रही हैं- आइसोलेशन, क्वारंटाइन और सोशल डिस्टेंसिंग.
अगले कुछ हफ्ते भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं. ट्रेनों के माध्यम से दिल्ली और मुंबई से जो लोग बिहार और उत्तर प्रदेश के दूरदराज इलाकों में पहुंचे हैं, उसके मामले अभी तक सामने नहीं आये हैं. दूरदराज गांवों में जांच और इलाज की सुविधा उपलब्ध नहीं है. सुझाव और सलाह के तौर पर आज भी सबसे महत्वपूर्ण है कि लोगों से दूरी बनाकर रखी जाये और घर में ही रहा जाये.
जो लोग कोरोना संभावित हैं, उन्हें क्वारंटाइन किया जाये. कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए हमारी तैयारी का भी मूल्यांकन जरूरी है. जब इसका बुलबुला शांत हो जायेगा, तो यह देखना जरूरी होगा कि हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं कहां ठहरती हैं. इसे छुपाना नहीं चाहिए, जहां भी सुधार की गुंजाइश हो, वहां सक्रियता के साथ सुधार किया जाये. हेल्थकेयर का बजट जीडीपी का मात्र 1.28 प्रतिशत ही जाता है, जो पर्याप्त नहीं है. इसे बढ़ाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करने की जरूरत है.
अगर मामले बढ़ते हैं, तो ऐसे में हालात को संभालने के लिए विभिन्न स्तरों पर और भी प्रयास की दरकार होगी. कोविड-19 से जब दुनिया उबर जायेगी, तो उसके बाद के क्या हालात होंगे, इसका आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों का व्यापक स्तर पर आकलन होगा. हो सकता है कि जो मांसाहारी देश हैं, जहां जिंदा मांस या कीड़े-मकोड़े खाने का चलन है, वे देश खुद में बदलाव लायें. संभव है कि कोविड-19 के बाद की दुनिया अलग हो. स्वास्थ्य के क्षेत्र में ऐतिहासिक बदलाव होगा, इसकी पूरी संभावना है.
अभी 21 दिन के लॉकडाउन की बात करें, तो शहरों और गांवों में रहन-सहन का तरीका बिल्कुल अलग है. शहरों में एकल परिवार का चलन है, लोग दो कमरे के मकान में रहते हैं. झुग्गियों में रहनेवाले लोग एक ही कमरे में रहते हैं. मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिहाज से इस छोटी सी जगह में रह पाने में मुश्कलें बहुत हैं. लोगों में तनाव की शिकायत आ रही है. इसकी वजह है कि अमूमन, लोग आठ से दस घंटे काम के सिलसिले में घर से बाहर रहते हैं.
इससे लोग अवसाद में नहीं आते. छुट्टियों को बिताने अक्सर लोग बाहर निकल जाते हैं. मुंबई-दिल्ली जैसे बड़े शहरों में मूवी, मॉल और मदिरा का चलन है. इसे लोग मन बहलाने का माध्यम मानने लगे हैं. नयी चीजों को पढ़ने, लिखने और इकट्ठा होकर बौद्धिक चर्चा करने का अब चलन नहीं रहा. अभी की स्थिति में ऐसे लोगों को बेचैनी हो रही है. पहले लोग मॉल या मूवी देखकर अपनी बेचैनी शांत कर लेते थे, अब ऐसा नहीं हो पा रहा है. यह बेचैनी ही परिवार में क्लेश का कारण बनने लगी है.
ऐसे लोगों के िलए जरूरी है कि वे लोग मेंटल डिस्टेंसिंग करें. इसका मतलब आप अपने बच्चों और परिजनों से बात करें, लेकिन एक-दूसरे को मानसिक जगह (मेंटल स्पेस) दीजिये. अपनी भावनाओं को व्यक्त कीजिये, जैसे कि कोई किताब पढ़ना चाहता था, लेकिन किसी कारणवश नहीं पढ़ पाया. संगीत सीखना चाहता था, लेकिन उसे समय नहीं मिल पाया. ऐसे लोगों के लिए यह आत्म साक्षात्कार का वक्त है. खुद को जानिये और नयी चीजें सीखिये. मोबाइल पर लगे रहने के बजाय अपने पसंद का काम करें. अपना विश्लेषण करना चाहिए, यह व्यक्तिगत स्तर, सामुदायिक स्तर और देश के स्तर पर भी होना चाहिए.
इसे मेडिकल के बजाय सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी देखना जरूरी है. इस वक्त की सामनांतर चीजों को देखने और समझने की जरूरत है. साफ-सफाई नहीं होने से कई और समस्याओं के बढ़ने का डर है. जो पहले से बीमार हैं, खासकर कैंसर रोगी, किडनी और अन्य रोगों से जूझ रहे लोगों को विशेष सावधानी बरतने की जरूरत है. नशे के शिकार लोगों के लिए यह सुधार का वक्त है. जैसाकि हम जानते हैं कि हमारे खाने-पीने की जरूरतें सीमित हैं.
अन्य खर्चों और विकारों को दूर करते समय भी लोगों में बेचैनी बढ़ती है. एक मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि लोग जरूरत के हिसाब से ऊपर चढ़ते हैं, लेकिन संकट के वक्त में लोग वापस नीचे आ जाते हैं. अभी हमें मूलभूत जरूरतों पर जिंदा रहना है. हर राज्य में विशेष खान-पान का चलन है, लोग उस पर निर्भर रह सकते हैं. कई जगहों पर गरीबों के लिए खान-पान की व्यवस्था की जा रही है. इस व्यवस्था को सकारात्मक नजरिये से देखना चाहिए. यह आत्मनिरीक्षण का समय है और इसका हमें सदुपयोग करना चाहिए.