20.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

सवालों के घेरे में बाइडेन की उम्मीदवारी

डेमोक्रेट तबकों में भी मांग उठ रही है कि बाइडेन खुद ही पीछे हटें ताकि किसी नये उम्मीदवार को मौका मिले. अभी पार्टी सम्मेलन बाकी है और तकनीकी रूप से नया उम्मीदवार आ सकता है.

अमेरिका में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी से जो बाइडेन के हटने या हटाये जाने की चर्चाएं जोरों पर है. बाइडेन लगातार कह रहे हैं कि वे दौड़ में बने हुए हैं और वे ही डोनाल्ड ट्रंप को हरा सकते हैं. उनके मित्र और हवाई के गवर्नर जॉस ग्रीन ने हालिया इंटरव्यू में कहा है कि अगर बाइडेन चुनाव नहीं लड़ते, तो वे यह काम उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को सौंपेंगे.

ओबामा प्रशासन में अधिकारी रह चुके मीडिया कमेंटेटर वैन जोंस ने कहा है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के बंद कमरों में यह चर्चा नहीं हो रही है कि बाइडेन को हटाया जाए या नहीं, बल्कि चर्चा यह हो रही है कि ऐसा कब किया जाए. अगर बाइडेन अपनी उम्मीदवारी छोड़ते हैं, तो यह पहली बार होगा कि एक प्रेसिडेंशियल डिबेट के बाद किसी पार्टी ने उम्मीदवार बदला हो. अगर बाइडेन ही उम्मीदवार रहे, तो यह पहली बार होगा कि दोनों दलों के उम्मीदवार- डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन- 75 साल से ऊपर के होंगे.

इससे पहले रोनाल्ड रीगन 69 साल की उम्र में राष्ट्रपति बने थे और 77 साल की उम्र में उनका कार्यकाल खत्म हुआ था. बाइडेन 81 साल के हैं और ट्रंप 78 के. कुल अमेरिकी आबादी के 65 प्रतिशत हिस्से की उम्र 15 से 65 साल के बीच है और 65 साल से अधिक की आबादी 17 प्रतिशत है. उम्र के लिहाज से देखें, तो भी दोनों उम्मीदवार कहीं से भी प्रतिनिधि नहीं हैं. अमेरिका में औसतन 50-55 साल की उम्र में लोग राष्ट्रपति बने हैं, जिसमें उलिसस ग्रांट, जॉन कैनेडी, बिल क्लिंटन और बराक ओबामा आदि कुछ राष्ट्रपति अपवाद रहे हैं, जो अपनी उम्र के 40वें दशक में राष्ट्रपति रहे. क्लिंटन 43 साल की उम्र में राष्ट्रपति बने थे और अब वो 77 के हैं यानी ट्रंप और बाइडेन से छोटे.

हालांकि उम्र को अनुभव से जोड़ कर देखा जाता है, पर मसला सिर्फ अनुभव का नहीं है. पिछले कुछ सालों में सार्वजनिक कार्यक्रमों में बाइडेन के बोलने, चलने और उनकी भाव-भंगिमाओं को देखकर लगता है कि अब वे अकेले न तो चल पाने में सक्षम हैं और न ही फैसले करने में. टीवी पर हुई प्रेसिडेंशियल बहस में लोगों ने देखा कि वे ठीक से बोल नहीं पा रहे हैं. न्यूयॉर्कर के संपादक डेविड रेमनिक ने मार्क ट्वेन को उद्धृत करते हुए लिखा है कि हर व्यक्ति को बूढ़ा होना है और बिखरना है, लेकिन बाइडेन दुनिया के सामने टीवी पर बिखर रहे हैं. बाइडेन को भी पता है कि वे बूढ़े हो चुके हैं, पर शायद सत्ता की चाह ऐसी ही होती है. डेमोक्रेट तबकों में भी मांग उठ रही है कि बाइडेन खुद ही पीछे हटें ताकि किसी नये उम्मीदवार को मौका मिले. अभी पार्टी सम्मेलन बाकी है और तकनीकी रूप से नया उम्मीदवार आ सकता है. उनकी उम्मीदवारी को लेकर बहुत समय से शंका जाहिर की जाती रही है. उनके बेटे हंटर बाइडेन को सजा सुनाये जाने के बाद भी पार्टी का एक तबका चिंतित था कि चुनाव में क्या होगा. पर अब मामला उम्र पर चला गया है, जिससे बाइडेन की रेटिंग खराब होती जा रही है.

लेकिन ऐसा क्या है कि पहले अमेरिका में उम्मीदवार अमूमन 50-60 के बीच हुआ करते थे, वहीं अब मामला 70 से अधिक के उम्मीदवारों पर आ गया है? इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, मसलन युवाओं की राष्ट्रीय राजनीति में घटती दिलचस्पी, लोगों का पैसा और समृद्धि जुटाने पर फोकस तथा यथास्थिति कायम रखने की कॉरपोरेट नीति. ऐसा नहीं है कि अमेरिकी युवा राजनीति नहीं समझता है. ध्यान रहे कि पिछले दिनों ही बड़ी यूनिवर्सिटियों में गाजा को लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन हुए थे. पर राष्ट्रपति चुनाव में वोट देने के अलावा युवाओं की राजनीतिक भागीदारी कम दिखती है क्योंकि उन्हें पता है कि राजनीति में आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि उनके पास खूब पैसा हो.

यह पैसा हर तरह के चुनाव से जुड़ा हुआ है. चंदा, प्रचार और प्रभाव बढ़ाने का हर तरीका पूंजीवादी रास्ते से होकर जाता है और युवाओं के पास इसके लिए समय नहीं है. जो राजनीति में जाना चाहते हैं, वे भी जानते हैं कि पहले खूब पैसा कमाना होगा. इसलिए अमेरिका युवा कॉलेज से निकलते ही किसी काम में लग जाते हैं. राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी युवा कानून, सेना या फिर स्थानीय राजनीति का रास्ता अपनाते हैं. अमेरिका के 32 राष्ट्रपति पूर्व में सेना में रहे, 27 राष्ट्रपति वकील रहे, जबकि 20 गवर्नर रहे. इनमें से कई पहले सीनेटर भी रहे या विदेश सेवा या अन्य सार्वजनिक पदों पर काम कर चुके थे. वहां भारत की तरह फुलटाइम राजनीति कम लोग कर पाते हैं क्योंकि किसी भी पद पर आने के लिए दिखाना पड़ता है कि आपने पहले क्या किया है.

सबसे महत्वपूर्ण कारण है कॉरपोरेट, जो प्रचार अभियान के लिए धन देते हैं. कंपनियां चाहती हैं कि बिजनेस के मामले में नीतियों में बहुत बदलाव न हो और अगर हो भी, तो उनके पक्ष में हो. इसे यथास्थिति बनाये रखना कहा जाता है. जब ट्रंप जीत कर आये, तो अपने रैडिकल फैसलों के कारण उन्होंने पारंपरिक कॉरपोेरेट जगत को नाराज किया. मसलन, नाटो को खत्म करने की उनकी पहल, जो सफल नहीं हुई, संयुक्त राष्ट्र से प्रतिनिधि बुलाना, उत्तर कोरिया से दोस्ती, जलवायु समझौते से हटना आदि कई ऐसे कदम थे, जो पारंपरिक अमेरिकी राजनीति के अनुकूल नहीं थे. नतीजा, वे हार गये. अगर हम बाइडेन के कार्यकाल को देखें, तो एक तरह से पुरानी राजनीति बहाल हुई. उनके आते ही यूक्रेन में युद्ध शुरू हो गया और अमेरिकी हथियार लॉबी अपने हथियार बेच पाने में सफल होने लगी. ऐसा नहीं है कि अमेरिकी लोग यह सब नहीं समझते हैं.

लोगों को पता है कि कॉर्पोरेट या बिग बिजनेस ही असली खिलाड़ी हैं. जब बराक ओबामा राष्ट्रपति बने, तो कई लोगों को यह उम्मीद थी कि एक नयी सुबह होगी, एक नया अमेरिका बनेगा, जिसमें बेहतरी के लिए जगह होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. ग्वांतानामो बे को बंद करने के अपने सबसे बड़े वादे से वे मुकर गये. उन्होंने सीरिया पर हमले किये और हर वह काम किया, जो पारंपरिक बिजनेस उनसे उम्मीद करता था. हेल्थकेयर की दिशा में ओबमाकेयर के नाम से जो नीति आयी, वह लगभग असफल रही क्योंकि अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा उद्योग को यह पसंद नहीं था. यह हो सकता है कि ओबामा के बाद अमेरिकी लोगों में एक निराशा घर कर गयी कि बदलाव संभव नहीं है, जबकि दूसरी तरफ डोनाल्ड ट्रंप ने इस निराशा को भुनाया और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ का नारा दिया. फिर आगे जो हुआ, वह हमारे सामने है. आम लोग यही कहते हैं कि हमें दो खराब नेताओं में से एक को चुनना है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें