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ड्रग्स और आतंक का खालिस्तानी गठजोड़

पिछले कुछ वर्षों में खालिस्तान आंदोलन को सबसे अप्रत्याशित समूहों- पश्चिमी देशों, खासकर कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन के अति-उदारवादी तत्व- से समर्थन मिला है.

खालिस्तान आंदोलन के नार्को-आतंक के आयाम को पहचानने और उसके कट्टरपंथी एजेंडे को परास्त करने की तत्काल आवश्यकता है. अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा की उदासीनता इसमें एक बड़ी बाधा है. आतंकवाद से लड़ने का कोई आसान तरीका नहीं है. इसके लिए कठोर निर्णय लेने होंगे. केवल तुच्छ चुनावी राजनीति के लिए काम करने के उन देशों के लिए विनाशकारी नतीजे होंगे, जो आज खालिस्तानी आतंकवादियों के साथ खड़े हैं.
पिछले कुछ वर्षों में खालिस्तान आंदोलन को सबसे अप्रत्याशित समूहों- पश्चिमी देशों, खासकर कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन के अति-उदारवादी तत्व- से समर्थन मिला है. समय-समय पर, हम विद्रोहों को पनपते हुए देखते हैं, जिन्हें दबाया जाता रहा है. हालांकि खालिस्तान आंदोलन के मामले में, बाहरी समर्थन और उनसे मिलती वैधता ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर चिंताएं पैदा कर दी है. इसमें भारत में नशीले पदार्थों की तस्करी और बिक्री भी शामिल है. ‘नार्को-आतंकवाद’ शब्द अस्सी के दशक में तब आम चलन में आया, जब लैटिन अमेरिका के गिरोहों ने अपने घृणित कारोबार को बढ़ाने के लिए आतंकी कृत्यों का इस्तेमाल करना शुरू किया. उस दशक में सोवियत संघ से लड़ने में तालिबान को अमेरिकी समर्थन ने नशे के कारोबार में लगे गिरोहों को फलने-फूलने में और मदद की. शुरुआती खालिस्तान आंदोलन, कई अन्य अलगाववादी और आतंकी समूहों की तरह, ड्रग्स की तस्करी और बिक्री को पैसा कमाने का आकर्षक जरिया मानता था, जिसे आज के खालिस्तानी आंदोलन ने भी अपना लिया है. खालिस्तान आंदोलन का समर्थन उन देशों की आधिकारिक नीति भले न हो, पर उनका समर्थन स्पष्ट है.
एक ओर, भारत और अमेरिका (और अन्य) के बीच रक्षा, व्यापार, प्रौद्योगिकी और सेवाओं के संबंध में बढ़ते राजनयिक संबंध देखे जा सकते हैं, पर दूसरी ओर, इन देशों में मुक्ति आंदोलन का समर्थन करने की आड़ में आतंकी तत्वों का घातक समर्थन देखा जा सकता है. ऐसा समर्थन पूर्ण रूप से नहीं है, पर इन समूहों के बचाव और कट्टरपंथी एजेंडे को जारी रखने के लिए पर्याप्त है. चाहे अमेरिका में पन्नू का मामला हो या कनाडा में निज्जर का, वहां के अधिकारियों का रवैया शर्मनाक है तथा यह भारत के साथ उनके संबंधों और आतंक का मुकाबला करने के उनके अपने प्रयासों के लिए हानिकारक है. आज भले ही ये देश ऐसा महसूस न करें. भारत के राष्ट्रीय दिवसों पर इन समूहों द्वारा भारतीय ध्वज का अपमान करने की नियमित घटनाएं, खासकर ब्रिटेन में, इसका एक उदाहरण है. यह धारणा है कि खालिस्तान आंदोलन केवल राजनीतिक है, पश्चिमी देशों में कई लोग ऐसा मानते हैं. पर सामने आ रहे सबूत अलग ही तस्वीर पेश करते हैं. खालिस्तान आंदोलन का नार्को-आतंक पहलू एक खतरा बन गया है, जिसका समाधान समय रहते किया जाना चाहिए. यह आंदोलन एक संगठित अपराध गिरोह बनता जा रहा है, जिसकी गतिविधियां नशीले पदार्थों की तस्करी एवं बिक्री, अपहरण, हवाला, मानव तस्करी आदि तक फैली हैं.
अगस्त में, प्रवर्तन निदेशालय ने नयी दिल्ली समेत अनेक शहरों में जसमीत हकीमजादा से जुड़े कई ‘गुप्त बैंक लॉकर’ जब्त किये, जिनमें तस्करी किये गये सोने और हीरे थे. हकीमजादा एक अंतरराष्ट्रीय तस्कर है और खालिस्तान टाइगर फोर्स से जुड़ा हुआ है. इस समूह को भारत ने 2023 में आतंकवादी संगठन घोषित किया है. पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने इसके कई सदस्यों और खालिस्तान आंदोलन से जुड़े अन्य व्यक्तियों के खिलाफ नार्को-आतंक मामलों की तहत आरोप-पत्र दायर किया है. दो-तीन दशक पहले निज्जर जैसे आपराधिक कृत्यों के सैकड़ों आरोपी कनाडा पहुंचने में सफल रहे, जहां उन्होंने राजनीतिक शरण ली. नब्बे के दशक में खालिस्तान आंदोलन ने पैसे कमाने के लिए ड्रग्स की तस्करी की थी, पर आंदोलन खत्म होने और उसे अवैध घोषित किये जाने के बाद ऐसे मामलों में कमी आयी. हाल में जो बढ़त हुई है, वह इस वास्तविकता पर आधारित और समर्थित है कि कई देशों में खालिस्तानी समर्थकों की संख्या बहुत बड़ी है, जहां वे चुनावी राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं. मसलन, कनाडा में सत्तारूढ़ दल को पता है कि सिख समुदाय को तुष्ट किये बिना चुनाव में जीत हासिल करना मुश्किल होगा. लॉबिंग करने और दबाव बनाने के लिए खालिस्तानी समर्थक हवाला के धन का उपयोग करते हैं.
आतंक का किसी भी प्रकार का समर्थन आतंकवाद ही है. चाहे मध्य-पूर्व, दक्षिण एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया या यूरोप के संघर्ष हों, आतंकवाद एक खतरा है. आतंक समर्थकों को भविष्य में इससे परेशानी ही होगी. ऐसी नीति कितनी गलत है, यह पाकिस्तान और अमेरिका के अनुभवों से समझा जा सकता है. अस्सी के दशक में अमेरिका ने तालिबान को जो समर्थन दिया था, उसका खामियाजा उसे कुछ समय बाद भुगतना पड़ा, जब तालिबान ने अमेरिकी सैनिकों को मारा. इसी तरह, पाकिस्तान, जो आतंक को बढ़ावा देने में इतना सहज था, उसे भी यह अनुभव हो गया कि ऐसी हरकतें कितनी खतरनाक हैं. अमेरिका आतंकवाद से लड़ने का दावा करता है, लेकिन खालिस्तान आंदोलन को रोकने में विफलता आतंक के खिलाफ उसके सैद्धांतिक रुख की घोर विफलता है. इससे भी अधिक दुखद बात यह है कि पन्नू मामले के जरिये उसने खालिस्तान आंदोलन को समर्थन और वैधता प्रदान की है, जिससे खालिस्तानी आतंकियों का हौसला बढ़ा है. यह नहीं भूला जाना चाहिए कि पाकिस्तान अभी भी आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला एक प्रमुख खिलाड़ी है. उसने अपने कारनामों से सबक नहीं लिया है और अब वह खालिस्तान आंदोलन के साथ मिलकर भारत में नशीले पदार्थों की तस्करी में सहायता कर रहा है. उसकी खराब आर्थिक स्थिति भी आतंकवादी गतिविधियों को समर्थन देने से उसे नहीं रोक सकी है.
खालिस्तान आंदोलन के नार्को-आतंक के आयाम को पहचानने और उसके कट्टरपंथी एजेंडे को परास्त करने की तत्काल आवश्यकता है. अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा की उदासीनता इसमें एक बड़ी बाधा है. आतंकवाद से लड़ने का कोई आसान तरीका नहीं है. इसके लिए कठोर निर्णय लेने होंगे. केवल तुच्छ चुनावी राजनीति के लिए काम करने के उन देशों के लिए विनाशकारी नतीजे होंगे, जो आज खालिस्तानी आतंकवादियों के साथ खड़े हैं. इन देशों के नेतृत्व और बुद्धिजीवियों को यह समझना चाहिए कि इन कट्टरपंथी विचारधाराओं से लड़ने का समय आ गया है. अगर आतंक को दबाना और खत्म करना है, तो भारत की जीरो-टॉलरेंस नीति समय की मांग है. अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा की सरकारों को वैसे घातक कट्टरपंथी एजेंडे के सामने दृढ़ रहना होगा, जो नशीले पदार्थों के जरिये बच्चों और युवाओं को निशाना बना रहा है, जो गोलियों से भी अधिक घातक होता है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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