Landslide : मंगलवार (30 जुलाई, 2024) को तड़के दो से चार बजे के बीच केरल के वायनाड जिले में हुए भूस्खलन ने भारी तबाही मचायी है. ढाई सौ से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी है, जबकि बड़ी संख्या में लोग घायल हैं. कई लोगों के अभी भी मलबे में दबे होने की आशंका है. राहत और बचाव कार्य जारी है. यदि हम गौर करें तो पायेंगे कि भूस्खलन, भूकंप और बादल फटने की घटनाएं अब रोजमर्रा की बातें हो गयी हैं. पहाड़ों पर रहने वालों के लिए तो ये अभिशाप बन चुके हैं.
इन घटनाओं के पीछे मानवीय गतिविधियों की अहम भूमिका होती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता. विकास के नाम पर पहाड़ों का बेदर्दी से विनाश वर्तमान की सबसे बड़ी विडंबना है. वनों का बेतहाशा कटान, बड़ी-बड़ी परियोजनाओं और बहुमंजिले भवनों का निर्माण इसके अहम कारण हैं. पहाड़ों के विनाश के साथ उनको दरकने से बचाने के जो उपाय किये जाने चाहिए थे, उनका अभाव और इसे लेकर सरकारों की उदासीनता इन आपदाओं की भयावहता को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं. कहने को देश में इस बाबत दिशा-निर्देश हैं, परंतु प्रशासनिक लापरवाही के चलते उनका सही तरीके से क्रियान्वयन न होना ऐसी आपदाओं से हुई तबाही की विकरालता को और बढ़ा देता है.
सबसे विकट समस्या समय पूर्व चेतावनी प्रणाली का अभाव है, जिसे आज तक सरकार स्थापित नहीं कर पायी है. इससे जान-माल के नुकसान से बचा जा सकता है. वायनाड की ताजा घटना इस बात की जीती-जागती मिसाल है कि यदि वहां समय पूर्व चेतावनी तंत्र स्थापित होता, तो भूस्खलन से अभी तक हुई ढाई सौ से अधिक मृत्यु, लोगों के घायल होने और इसमें बहे चार गांवों में भयावह स्तर तक हुई तबाही से बचा जा सकता था. समझ नहीं आता कि सरकारें इस ओर क्यों नहीं ध्यान दे रहीं, जबकि वह इस बाबत बेहद गंभीर होने का ढिंढोरा पीटती रहती हैं.
वह बात दीगर है कि राहत के काम में राज्य की सभी सरकारी एजेंसियों के अतिरिक्त सेना की टुकड़ियां चिकित्साकर्मियों के साथ रात-दिन जुटी हैं और मलबे में दबे लोगों को निकालने के साथ राहत व बचाव कार्य को बखूबी अंजाम दे रही हैं. राज्य में दो दिन का शोक, मृतकों को दो लाख व घायलों को 50 हजार रुपये देने की सरकारी घोषणा भी हुई है. पर ये इस आपदा का स्थायी उपचार नहीं हैं. आपदा से इतना जरूर हुआ है कि सुंदर दर्शनीय स्थलों के लिए मशहूर केरल के मुंडक्कई, चूरलमाला, अट्टमाला व नूलपुझा गांवों के भूस्खलन की चपेट में आने के बाद तस्वीर ही बदल गयी है और अब वहां खंडहर हुए मकान, उफनती नदियों और उखड़े पेड़ ही पेड़ दिखाई दे रहे हैं. कुछ लोगों के मकान तो अब भी हिल रहे हैं.
दरअसल, इस मौसम में पहाड़ों पर दबाव काफी बढ़ जाता है और वे भरभराकर गिरने लगते हैं. कर्नाटक, हिमाचल और उत्तराखंड में भी पिछले दिनों यही हुआ है. ऐसी स्थिति में पहाड़ पर कितना दबाव है, इसका पता लगाने हेतु दबाव मापी यंत्र लगाना चाहिए, जिससे दबाव की स्थिति मालूम हो और आस-पास के लोगों को पहाड़ दरकने की सूचना दी जा सके. ताइवान ने अपने यहां इस तंत्र का प्रयोग बरसों पहले कर लिया है. परंतु दुखद है कि हमारी सरकार दूसरों से कुछ सीखने और कुछ करने को तैयार ही नहीं है. उस स्थिति में भी जबकि हिमाचल के 42,093 वर्ग किलोमीटर भूस्खलन प्रभावित चिह्नित क्षेत्र में 17,102 स्थानों पर भूस्खलन की आशंका जतायी गयी है.
यही नहीं, 6,420 सक्रिय भूस्खलन और उच्च संवेदनशीलता के 26 प्रतिशत क्षेत्र खतरनाक स्थिति में हैं. वहां कभी भी भूस्खलन भीषण तबाही मचा सकते हैं. इसकी जानकारी तो भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग हिमाचल सरकार को 2022 में ही दे चुका है. उत्तराखंड में मसूरी रोड पर गलोगीधार की पहाड़ी पर भूस्खलन का दायरा 95 मीटर तक पहुंच चुका है, जिससे लोगों में दहशत है. यहां स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि जहां एक भूस्खलन संभावित क्षेत्र का उपचार किया जाता है, वहीं दूसरा क्षेत्र सक्रिय हो जाता है. चिंता इस बात की है कि यदि इन 17,102 भूस्खलन संभावित क्षेत्र में दबाव बढ़ा, तो स्थिति संभालनी मुश्किल हो जायेगी और तबाही का आंकड़ा भयावहता की सीमा को पार कर जायेगा.
वायनाड की घटना एक चेतावनी है. इस तथ्य से सभी भली-भांति परिचित हैं कि उत्तर से दक्षिण तक के पहाड़ों के चरित्र में कोई खास बदलाव नहीं है. उसमें कमोबेश एकरूपता ही परिलक्षित होती है. यह बात दीगर है कि उत्तर के मुकाबले दक्षिण के पहाड़ों की मिट्टी थोड़ी सख्त है, पर जब हम पहाड़ों की मिट्टी को थामने वाले प्राकृतिक तत्व या साधनों का ही विनाश करते जायेंगे, उस दशा में पहाड़ों को दरकने से कोई नहीं रोक सकता. तब पत्थर पहाड़ से टूट कर सड़क, गांव या नदी में आकर गिरते हैं और सड़क मार्ग को अवरुद्ध करने, गांव के गांव जमींदोज करने एवं नदी के प्रवाह में भयावह स्तर पर तेजी का सबब बनते हैं. उस दशा में भूस्खलन को रोक पाना बूते के बाहर की बात है. जब तक आपदा पूर्व सूचना प्रणाली तंत्र स्थापित नहीं होता, तब तक ऐसे हादसों के निदान की कल्पना भी बेमानी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)