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गाली देने की दुर्योधनी कला

Language Culture : समाज विज्ञानी गाली के शास्त्र को समाज के मनोविज्ञान से भी जोड़ते हैं. कुछ लोग गाली देने के स्वभाव को अशिक्षित और पिछड़े होने से जोड़ते हैं. एक सीमा तक यह सही हो सकता है, परंतु यदि पूर्ण सही होता, तो शिक्षित, शिष्ट और आदर्श समाज में गाली के लिए कोई स्थान नहींं होना चाहिए, पर हम जानते हैं कि ऐसा केवल कल्पनाओं में होता है.

Language Culture : भर्तृहरि की एक सूक्ति है: ददतु ददतु गालीं गालिमन्तो भवन्तः/ वयमपि तदभावाद् गालिदानेऽसमर्थाः।/ जगति विदितमेतद् दीयते विद्यमानम्/ न हि शशकविषाणं कोऽपि कस्मै ददाति॥ (वैराग्य शतक) किसी ने किसी को भरपेट गालियां दीं. गाली खाने वाला गाली देना नहीं जानता, वह अपनी झुंझलाहट इस प्रकार व्यक्त करता है, ‘दीजिए-दीजिए, गालियां दीजिए. आप तो गाली वाले हैं, गालियों का भंडार हैं. आप गालियां नहीं देंगे तो क्या देंगे और क्या करेंगे. अपने पास गालियां न होने से हम तो गालियों का दान देने में सर्वथा असमर्थ हैं.

यह बात तो जगजाहिर है कि जिसके पास जो है, वही तो दिया जाता है. जैसे कोई भी किसी को खरगोश के सींग नहीं दे सकता क्योंकि खरगोश के सींग किसी के पास होते ही नहीं.’ महाभारत, कर्ण पर्व के अध्याय 39-41 के बीच कर्ण और उसके सारथि शल्य में विवाद वर्णित है. शल्य ने कर्ण को अर्जुन रूपी सिंह के सामने अपशब्द कहे, तो कर्ण ने शल्य तथा उसके मद्र देश के लोगों तथा उनकी स्त्रियों के दुश्चरित्र का वर्णन किया, जिसे जातीय गाली कहा जा सकता है.


सच तो यह है कि गालियां शब्द में ही नहीं, भाव में भी होती हैं. भाव प्रधान गालियां बड़ी कलात्मकता से दी जाती हैं और अधिक गहरी चोट पहुंचाने के लिए दी जाती हैं. ऐसी स्थितियों में गाली दाता के मुखारविंद से जो शब्द बाहर निकल रहे होते हैं, वे अपशब्द नहीं कहे जा सकते, किंतु उनका एकमात्र मंतव्य चोट पहुंचाना और स्वयं दूध का धुला बना रहना होता है. महाकवि भास की नाटिका ‘दूतवाक्यम्’ में शिष्ट भाषा में गहरा घाव करने वाली विषैली गालियों का एक रोचक प्रसंग है.

श्रीकृष्ण विनाशकारी महाभारत युद्ध को टालकर संधि कराने के लिए पांडवों के दूत बनकर हस्तिनापुर गये थे. दुर्योधन उनसे कुशल क्षेम कुछ इस प्रकार पूछता है: ‘हे दूत! धर्मराज का पुत्र (युधिष्ठिर), वायु पुत्र (भीम), इंद्र का पुत्र (अर्जुन), अश्विनीकुमारों के विनम्र जुड़वां पुत्र (नकुल-सहदेव) नौकर-चाकरों के साथ कुशल से तो हैं?’ दुर्योधन ने किसी पांडव का नाम नहीं लिया (नाम लेने योग्य नहीं समझा), किंतु भद्दी गाली दे डाली, शिष्ट शब्दों में, बड़ी कलात्मकता से. चाकरों के साथ पांडवों का उल्लेख कर जता दिया कि दुर्योधन की दृष्टि में वे ‘भृत्य’ के ही समकक्ष हैं. जब श्रीकृष्ण पांच ग्राम देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखते हैं, तो दुर्योधन कह देता है, ‘वे देवताओं के पुत्र (पांडव) भला हम मनुष्य-पुत्रों (धृतराष्ट्र के पुत्रों) के बांधव कैसे हो सकते हैं कि उन्हें उत्तराधिकार दिया जाए.’


पूरी दुनिया की भाषाई संस्कृति में गालियों की अपनी जगह होती है. अंग्रेजी की चौ-आखरी गाली किसी जमाने में अछूत थी. ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के पहले संस्करण में यह शब्द मिलता ही नहीं क्योंकि वे इसे बहुत बुरा शब्द मानते थे. लिखित अंग्रेजी साहित्य में पहली बार इस शब्द का खुला इस्तेमाल सर डेविड लिंडेसी ने 1535 में किया. दूसरे पॉपुलर गाली शब्दों का भी कुछ ऐसा ही इतिहास है, जो बताता है कि गालियों के साम्राज्यवाद के लिए भी कुछ नियम काम करते हैं. जैसे पिछली सदी के प्रारंभ तक ब्रिटेन के कुलीनों में ‘ब्लडी’ बहुत बुरा शब्द माना जाता था. आज वह स्वीकृत स्लैंग है. भारत में एक वर्ग ऐसा भी मिल जायेगा, जो अंग्रेजी में गाली देना अपनी शान समझता है. कुछ समाजों में गाली देना खुलेपन की पहचान माना जाता है.

हमारे मीडिया, सोशल मीडिया में भी यह खुलापन खुल चुका है और भाषा प्रयोग के नये आयाम स्थापित कर रहा है. गालियां मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक हैं. मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि ये मानसिक तनाव कम कर सकती हैं. गुस्से में मनुष्य आजकल हत्या तक कर देते हैं. मारने की अपेक्षा गाली से काम चलाया जा सकता है. मनश्चिकित्सा में व्यक्ति चिकित्सक की उपस्थिति में गाली देकर अपने मन की भड़ास निकाल लेता है. यह बात और है कि वहां गालियां देने के लिए फीस चुकानी पड़ती है. सार्वजनिक मंचों से गालियां देने पर एक पक्ष आपकी निंदा करता है, तो दूसरा पक्ष हीरो ठहरा सकता है.


समाज विज्ञानी गाली के शास्त्र को समाज के मनोविज्ञान से भी जोड़ते हैं. कुछ लोग गाली देने के स्वभाव को अशिक्षित और पिछड़े होने से जोड़ते हैं. एक सीमा तक यह सही हो सकता है, परंतु यदि पूर्ण सही होता, तो शिक्षित, शिष्ट और आदर्श समाज में गाली के लिए कोई स्थान नहींं होना चाहिए, पर हम जानते हैं कि ऐसा केवल कल्पनाओं में होता है. सब जानते हैं कि संसद में असंसदीय भाषा वर्जित होती है और यह ठीक भी है. संसद का अर्थ ही है भले लोगों की मिल-बैठने की सभा, समिति. भले लोगों के बीच अशिष्ट, असंसदीय भाषा का क्या काम! सदस्यों की जानकारी के लिए संसद में प्रयोग से वर्जित, असंसदीय शब्दों की एक आधिकारिक सूची भी बनी हुई है. उदाहरण के लिए, उस सूची में ‘झूठा’ शब्द को भी असंसदीय माना गया है, तो समझा जा सकता है कि गाली-गलौज में प्रयुक्त होने वाले अपशब्द कैसे संसदीय हो सकते हैं. फिर भी गाली कला में निपुण लोग दुर्योधन वाला कौशल दिखा जाते हैं और ऐसी कला के लिए वे निंदा के नहीं, बल्कि प्रशंसा के पात्र बनते हैं, जबकि फूहड़ गालियां निकालने वाला कितना ही सृजनशील हो, गरियाया जाता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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