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यूपी में भाजपा की हार का कारण स्थानीय है

यह वोट केवल सरकार के लिए नहीं है, विपक्ष के लिए भी है. लोग चाहते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत विपक्ष की मौजूदगी हो और सरकार ठीक तरह से चले.

बद्री नारायण
निदेशक
जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज

भाजपा को सबसे अधिक झटका उत्तर प्रदेश में लगा है. इसकी अनेक वजहें रहीं. पहली वजह तो यह है कि स्थानीय स्तर पर सांसदों के प्रति एंटी-इनकम्बेंसी थी. दूसरा कारण है कार्यकर्ताओं में उदासीनता और नाराजगी. ऐसा सभी जगह नहीं था, पर कई क्षेत्रों में यह स्थिति थी. इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर बहुत बोझ आया क्योंकि चुनाव उसके आधार पर लड़ा जा रहा था. पहले जब भी उनकी छवि के प्रभाव में कमी होती थी, उसकी भरपाई उनके दौरों से हो जाती थी. इस बार ऐसा नहीं हो पाया. अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को लामबंद करने का जो तौर-तरीका पहले भाजपा ने अपनाया था, इस चुनाव में वह समाजवादी पार्टी ने अपनाया. गैर-जाटव और गैर-यादव समुदायों को जोड़ने के इस प्रयास का लाभ विपक्ष को मिला. अब सवाल उठता है कि जब दोनों पक्ष एक ही तरीके पर चल रहे थे, तो एक पक्ष को ही उसका फायदा क्यों मिला. ऐसा इसलिए हुआ कि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के खेमे में पहले के उम्मीदवार ही फिर मैदान में थे. तो उस पक्ष को एंटी-इनकम्बेंसी और कार्यकर्ताओं की नाराजगी के कारण नुकसान उठाना पड़ा.

अखिलेश यादव ने इस बार टिकट बंटवारे में जो सोशल इंजीनियरिंग का मेथड इस्तेमाल में लाया, वह भाजपा का तरीका होता था. उन्होंने अधिक उम्मीदवार गैर-यादव ओबीसी जातियों से उतारे. दूसरी बात है कि सपा गठबंधन ने अपने प्रचार अभियान में मानसिक भय (फियर साइकोसिस) के इर्द-गिर्द एक मेटानैरेटिव खड़ा किया और मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास किया. कहा गया कि अगर भाजपा की जीत होती है, तो संविधान बदल दिया जायेगा, आरक्षण में कटौती कर दी जायेगी. जब भी फीयर साइकोसिस की स्थिति आती है, जो सीमित पहचान होती है, वह जग जाती है तथा लोग बड़ी पहचान से सीमित पहचान की ओर शिफ्ट हो जाते हैं, यानी धर्म से जाति की ओर, क्योंकि लोगों को लगने लगता है कि हमारे अधिकार छीन जायेंगे. उत्तर प्रदेश के नतीजों की व्याख्या इसी रूप में हो सकती है. जहां तक रोजगार और महंगाई जैसे मुद्दों का सवाल है, तो ऐसे मुद्दे तो हर चुनाव में होते हैं. लेकिन नतीजों में उनका खास असर कहां दिखाई देता है! ये मुद्दे अहम हैं, लेकिन चुनावी लामबंदी को तय करने में इनकी भूमिका बहुत सीमित होती है. और अगर इन मुद्दों का असर होता, तो यह समूचे देश में होना चाहिए था.

अब यह सवाल उठता है कि उत्तर भारत के अन्य राज्यों में उत्तर प्रदेश जैसे नतीजे क्यों नहीं सामने आये. मध्य प्रदेश में सभी सीटों पर भाजपा की जीत हुई है. इस बड़ी जीत के कारणों में उम्मीदवारों का अच्छा चयन और प्रधानमंत्री मोदी की छवि को गिन सकते हैं. विपक्ष के पास जैसा नेता अखिलेश के रूप में उत्तर प्रदेश में था, वैसा मध्य प्रदेश में नहीं था. झारखंड में ऐसी ही स्थिति रही. वहां भाजपा के पास कोई मजबूत नेता नहीं है, जबकि विपक्ष के पास हेमंत सोरेन थे. जैसा कि कहा जा रहा था, यह चुनाव मोदी की छवि पर आधारित था और यह कारक देश के कई भागों में बहुत प्रभावी साबित हुआ है तथा भाजपा को जीत हासिल हुई है. हमने देखा कि ओडिशा में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा में भी पार्टी को बड़ी जीत मिली है और वह राज्य में सरकार बनाने जा रही है. उत्तर प्रदेश के अलावा पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भाजपा को निश्चित रूप से झटका लगा है. इन राज्यों के परिणामों के अलग-अलग कारण हैं, जिनकी अलग से व्याख्या की जा सकती है. यहां मैं यह भी जोड़ना चाहूंगा कि राहुल गांधी की छवि को पहले की तुलना में बड़ी स्वीकृति मिली है.

चुनाव परिणाम की व्याख्या करते हुए हमें मतदान में महिला और दलित मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी पर भी गौर करना चाहिए. चुनाव-दर-दर चुनाव इनकी हिस्सेदारी में बढ़ोतरी होती जा रही है. इसकी वजह है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (इवीएम) ने इन्हें बड़ा सहारा और हौसला प्रदान किया है. पहले यह डर बना रहता था कि बूथ कैप्चरिंग हो जायेगी, कोई बक्सा लेकर भाग जायेगा, हिंसा हो जायेगी. इवीएम के आने के बाद यह डर निकल गया और परिस्थितियां भी बदल गयीं. तो, यह स्पष्ट है कि हमारे देश में इवीएम ने चुनाव प्रक्रिया को अधिक लोकतांत्रिक बनाने में उल्लेखनीय भूमिका निभायी है. वर्ष 2017 में प्रकाशित अर्थशास्त्री शमिका रवि के एक महत्वपूर्ण अध्ययन को देखा जाना चाहिए. उन्होंने रेखांकित किया है कि इवीएम की वजह से महिलाओं और सभी वंचित वर्गों की भागीदारी बढ़ी है. रही बात उनकी पसंद की, तो अलग-अलग जगहों पर महिलाओं ने भी अलग-अलग कारणों से अलग-अलग पार्टियों और उम्मीदवारों को वोट दिया है. यह जरूर कहा जा सकता है कि कल्याण योजनाओं ने महिलाओं और हाशिये के समुदायों को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने में बड़ा योगदान दिया है. योजनाओं के लाभार्थियों के साथ पार्टी के कार्यकर्ताओं के लगातार जुड़े रहने से भाजपा को निश्चित ही लाभ हुआ है. यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि ने कई भाजपा उम्मीदवारों की संभावित हार को जीत में बदल दिया.

दक्षिण भारत में इस आम चुनाव ने भाजपा के लिए संभावनाओं के नये द्वार खोले हैं. केरल में पार्टी को पहली बार जगह मिली है. केरल और तमिलनाडु में उसके वोट प्रतिशत में बढ़ोतरी हुई है. तमिलनाडु में अब यह दो अंकों में पहुंच गया है. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में उसकी सीटें बढ़ी हैं. आंध्र प्रदेश में बनने जा रही नयी गठबंधन सरकार में भी भाजपा की भागीदारी रहेगी. कर्नाटक में भाजपा की उपस्थिति बहुत पहले से रही है, पर बीते वर्षों में उसका ह्रास हो रहा था तथा पिछले विधानसभा चुनाव में उसकी हार भी हुई थी. वहां इस बार ह्रास की प्रक्रिया रुकी है. दक्षिण की इस उपलब्धि से भाजपा को वहां जनसांख्यिक और क्षेत्रीय विस्तार का बड़ा अवसर प्राप्त हुआ है. अगर पार्टी ठीक से काम करे, तो निश्चित ही भविष्य में उसकी बढ़त होगी, लेकिन उसके सामने यह गंभीर चुनौती भी है कि हिंदी पट्टी में वह अपनी ताकत को किस तरह बचा कर रखे. अब गठबंधन का दौर वापस आया है, तो जोड़-तोड़, फूट, लेन-देन जैसी प्रवृत्तियां बढ़ेंगी. प्रधानमंत्री मोदी एक सक्षम प्रशासक होने के साथ-साथ अच्छे कम्युनिकेटर भी हैं. भाजपा के पास संख्या और संगठन की क्षमता भी है. मुझे लगता है कि वह गठबंधन को अच्छे से संभाल ले जायेगी. शायद बड़े निर्णय लेने में कुछ परेशानी आ सकती है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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