Manu Bhaker : देश में इस समय कोई सबसे चर्चित नाम है, तो वह महिला निशानेबाज मनु भाकर का है. वे स्वतंत्र भारत की पहली खिलाड़ी हैं, जिन्होंने एक ही ओलिंपिक में दो पदक जीतने का गौरव हासिल किया है. मनु ने पहले महिलाओं की 10 मीटर एयर पिस्टल में कांस्य पदक पर निशाना साधा और फिर सरबजोत के साथ इसकी मिक्स स्पर्धा में कांस्य पदक जीता. निशानेबाजी ऐसा खेल है, जिसमें पिछले दो ओलिंपिक खेलों- 2016 में रियो और 2021 में टोक्यो- से भारत खाली हाथ लौटा था. पर इस बार शुरू में ही आये दो पदकों ने भारतीय निशानेबाजी ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय दल का मनोबल बढ़ा दिया है.
किसी भी खिलाड़ी की सफलता में उसकी मेहनत और कौशल का तो अहम योगदान होता ही है, साथ ही उसके अभियान में कई लोगों की भूमिका होती है. मनु भाकर जब टोक्यो ओलिंपिक से निराश होकर लौटी थीं, तब वे इस खेल को छोड़ने के बारे में सोचने लगी थीं. इस स्थिति में घर वालों, खासतौर पर मां सुमेधा ने उन्हें हताशा से बाहर निकालने में जो भूमिका निभायी, उसका दो पदक जीतने में कम योगदान नहीं है. मां बताती हैं कि हम लोग मनु के घर आने पर कभी उससे शूटिंग की बात कर उसे तनाव में नहीं लाना चाहते हैं. हम घर में हल्का-फुल्का माहौल रखकर कोशिश करते हैं कि वह खुश रहे. इसी तरह भाई लगातार गिफ्ट लाता रहा, ताकि बहन का मूड अच्छा बना रहे.
टोक्यो ओलिंपिक में पिस्टल खराब हो जाने पर मनु भाकर पदक तो दूर, फाइनल तक भी नहीं पहुंच सकी थीं. यही नहीं, टोक्यो की हताशा ने उनके साथ 2014 से जुड़े कोच जसपाल राणा तक से संबंध खराब बना दिये थे. दोनों एक-दूसरे के सामने आने से तो बचते ही थे और कहीं आमना-सामना हो जाए, तो एक-दूसरे की अनदेखी कर देते थे. हमारे देश में गुरु-शिष्य परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है और मनु की मौजूदा सफलता में इस परंपरा का भी प्रमुख हाथ है. टोक्यो ओलिंपिक के बाद मनु भाकर ने कोच जसपाल राणा से संबंध विच्छेद कर लिये थे.
मनु ने दोबारा शूटिंग रेंज में लौटने पर अलग कोच के साथ अभ्यास शुरू किया, पर अपेक्षित परिणाम नहीं निकलने पर उन्होंने कुल चार कोचों के साथ काम किया. उनकी समझ में जल्दी ही आ गया कि जसपाल राणा के कोच रहते ही वे अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाती हैं. इस पर उन्होंने जसपाल राणा से संपर्क करने की बात की, पर उनके करीबियों ने ऐसा नहीं करने को कहा. मनु जानती थीं कि कोच जसपाल की उनके लिए क्या अहमियत है और उन्होंने इन खेलों से करीब सालभर पहले जसपाल को फोन कर दिया और वे मनु को फिर से कोचिंग देने को राजी हो गये. सही मायनों में जसपाल ने यदि गुरु के दायित्व को नहीं निभाया होता, तो शायद यह परिणाम देखने को नहीं मिलता.
जसपाल राणा कहते हैं कि मनु के लिए शूटिंग सबसे पहले है और वे अजेय योद्धा की तरह हैं. टोक्यो की हताशा के बाद दोबारा शूटिंग रेंज में लौटने के बाद पदक जीतने वाला प्रदर्शन नहीं कर पाने पर भी उन्होंने आत्मविश्वास को डगमगाने नहीं दिया. वे कहते हैं कि मनु की जीत की जिद ने ही उसे यहां तक पहुंचाया है. मनु की मेहनत का यह परिणाम है. जब तक परफेक्ट शॉट नहीं मिल जाता था, तब तक वे शूटिंग रेंज में अभ्यास करती रहती थीं, भले ही कितनी भी देर हो जाए. हम भारतीय ओलिंपिक इतिहास की बात करें, तो लंबे समय तक हॉकी की सफलता के अलावा हमारे खाते में कुछ भी नहीं था.
सही मायनों में अभिनव बिंद्रा ने 2008 की बीजिंग ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर भारतीयों में यह भरोसा बनाया कि वे भी जीत सकते हैं. इसके बाद सुशील पहलवान ने लगातार दो ओलिंपिक में पदक जीतकर दिखाया कि ऐसा किया जाना भी संभव है. सुशील वाले प्रदर्शन को बाद में पीवी सिंधु ने लगातार दो बार पदक जीतकर दोहराया. अब मनु भाकर ने देशवासियों को सिखाया है कि एक ही ओलिंपिक में दो पदक भी जीते जा सकते हैं.
मनु की इन सफलताओं ने भारतीय दल को बेहतर प्रदर्शन की प्रेरणा दी है. भारतीय हॉकी टीम पूल-बी में अजेय बनी हुई है और उसने दो जीतों और एक ड्रा से क्वार्टर फाइनल में स्थान लगभग पक्का कर लिया है. इसी तरह मणिका बत्रा टेबल टेनिस के प्री-क्वार्टर फाइनल तक पहुंचने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बन गयी हैं. सात्विक साईराज और चिराग की जोड़ी ग्रुप में शिखर पर रहकर क्वार्टर फाइनल में पहुंच गयी है. पीवी सिंधु लगातार तीसरे पदक की तरफ कदम बढ़ा रही हैं, तो लक्ष्य सेन भी पदक की दौड़ में बने हुए हैं. निकहत जरीन ने भी मुक्केबाजी में पदक की उम्मीदें बनाये रखी हैं. मनु के शानदार प्रदर्शन से मिली प्रेरणा यदि भारतीय दल के पदकों की संख्या को बढ़ा दे, तो देश में खेल क्रांति की राह खुल सकेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)