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विचारणीय हैं संघ प्रमुख मोहन भागवत की बातें

विमर्श का स्तर गिरने और खर्च में भारी बढ़ोतरी से यह चिंता होना स्वाभाविक है कि जैसा आदर्श लोकतंत्र होना चाहिए, उस कसौटी पर हमारा लोकतंत्र खरा नहीं उतरता.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने देश के राजनीतिक माहौल पर जो कहा है, मेरा मानना है कि हर व्यक्ति, जो लोकतंत्र के प्रति सचेत है और चाहता है कि हमारे देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हों, वह उनकी बात से सहमत होगा. इस चुनाव में वास्तव में ऐसी चीजें हुई हैं, जो बेहद चिंताजनक हैं. प्रचार के दौरान झूठ को बढ़ा-चढ़ाकर सच के रूप में पेश करने की कोशिश हुई. उदाहरण के लिए, राहुल गांधी अपनी सभाओं में संविधान की प्रति दिखाते हुए कहते थे कि संविधान खतरे में है.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, जो बहुत अनुभवी नेता हैं और मैं उनका बहुत आदर करता हूं, भी कह रहे थे कि अगर नरेंद्र मोदी जीत गये, अगर भाजपा जीत गयी, अगर एनडीए सत्ता में आयी, तो न संविधान बचेगा और न ही लोकतंत्र. यह भी कहा जा रहा था कि मोदी की जीत होने के बाद यह भारत का आखिरी चुनाव होगा. मेरी दृष्टि में यदि दुनिया में भारत की सबसे बड़ी पूंजी कुछ है, तो वह हमारा संविधान और लोकतंत्र ही है. इनके बारे में लोगों के मन में गंभीर संदेह पैदा कर क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही थी, इसके पीछे मंशा क्या थी, ये कुछ बड़े सवाल हैं. यह स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत दो बातें हासिल कर रहा है- राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक उन्नति. तो क्या लोकतंत्र और संविधान पर खतरे पर आधारित प्रचार अभियान इन उपलब्धियों को बाधित करने की कोशिश नहीं मानी जानी चाहिए! यह भी देखा गया कि विपक्ष के प्रचार को देश-विदेश में बैठे लोग यूट्यूब समेत विभिन्न सोशल मीडिया मंचों से बढ़ा-चढ़ाकर आगे बढ़ा रहे थे.

मैं समझता हूं कि मोहन भागवत का एक संकेत ऐसी प्रवृत्तियों की ओर है. दूसरी तरफ, लोकसभा चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल की ओर से प्रतिक्रिया में जो बातें कही गयीं, वैसी बातें कहने से परहेज किया जाना चाहिए था. यह भी संघ प्रमुख के संदेश में निहित है. एक प्रबुद्ध व्यक्ति और स्टेट्समैन के नाते भागवत जी ने जो कुछ कहा है, उम्मीद की जानी चाहिए कि उस पर राजनीतिक दलों के नेता विचार करेंगे तथा समाज भी समुचित ध्यान देगा. संघ प्रमुख की बातों में राजनीति के गिरते स्तर को लेकर चिंता भी अंतर्निहित है. मैं 1951-52 से लोकसभा चुनाव को देखता आ रहा हूं. यह पहला चुनाव है, जिसमें विमर्श का स्तर बहुत नीचे चला गया था. ऐसा होने की वजह यह है कि विपक्ष इस चुनाव को हाईजैक करना चाहता था. यह भी एक कारण रहा कि कांग्रेस का नेतृत्व वामपंथियों, या कहना चाहिए शहरी माओवादियों, के पूरे प्रभाव में है. कांग्रेस के नेतृत्व की कमान राहुल गांधी के हाथ में है और खरगे साहब चेहरा हैं. मुद्दे और एजेंडा राहुल गांधी तय करते हैं, जो उनके इर्द-गिर्द के लोग निर्देशित करते हैं.

भारत में लोकतंत्र का विकास होना चाहिए. संसदीय लोकतंत्र का हमारा अनुभव अच्छा रहा है. इसलिए संसदीय राजनीति जितनी स्वच्छ रहे, चुनाव जितने पारदर्शी हों, उसकी कोशिश की जानी चाहिए. इस संदर्भ में पहले की कुछ घटनाओं का संज्ञान लेना जरूरी है, जिससे यह समझने में मदद मिलेगी कि आज ऐसा नकारात्मक माहौल कैसे पैदा हो गया है. साल 1971 में इंदिरा गांधी ने लोकसभा के मध्यावधि चुनाव कराये थे. उससे पहले आम तौर पर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते थे. उस चुनाव के बाद स्थिति बदल गयी और अधिकतर विधानसभा के चुनाव और लोकसभा के लिए मतदान अलग-अलग होने लगे. इस कारण चुनाव का खर्च बेहिसाब बढ़ गया है. इसके लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही दोषी हैं. जब प्रधानमंत्री मोदी ‘एक देश, एक चुनाव’ की बात करते हैं, तो मेरी नजर में वे जयप्रकाश नारायण की मंशा को ही आगे बढ़ाते हैं, जो चाहते थे कि चुनाव खर्च में कमी आये.

साल 1971 से पहले के चुनाव को देखा जाए, तो पता चलता है कि लोकसभा चुनाव के उम्मीदवारों का खर्च अपेक्षाकृत कम होता था क्योंकि वे अपनी पार्टी के विधानसभा उम्मीदवारों के कंधे पर चुनाव लड़ते थे. अब उन्हें स्वतंत्र चुनाव लड़ना पड़ता है, तो खर्च करोड़ों में होता है. मैंने 2004 में ऐसे 20 लोगों से अपनी किताब के लिए बातचीत की थी, जो 1952 और 1957 के चुनाव में उम्मीदवार थे. ये लोग कांग्रेस से संबद्ध थे. उन्होंने बताया था कि पार्टी से उन्हें 10 हजार रुपये मिले थे. उनका खर्च तीन से सात हजार रुपये था और शेष उन्होंने पार्टी को वापस कर दिया था. पहले चुनाव में भारत सरकार के कुल 10 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जबकि 2019 में निर्वाचन आयोग को 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करने पड़े थे. इस बार यह खर्च और भी अधिक होगा.

विमर्श का स्तर गिरने और खर्च में भारी बढ़ोतरी से यह चिंता होना स्वाभाविक है कि जैसा आदर्श लोकतंत्र होना चाहिए, उस कसौटी पर हमारा लोकतंत्र खरा नहीं उतरता. इसमें व्यापक सुधार की आवश्यकता है और उस दिशा में मोहन भागवत के सुझाव बहुत अहम साबित हो सकते हैं. उन्होंने उचित ही कहा है कि सच्चे सेवक को अहंकारी नहीं होना चाहिए और अब बयानबाजी से ऊपर उठकर राष्ट्र की समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए. मणिपुर जैसी हिंसा की घटनाओं पर रोक लगाने के प्रयास होने चाहिए. उनकी जो सलाह है, वह सरकार के लिए भी विचारणीय है और विपक्ष के लिए भी. सभी राजनीतिक दल और उनके निर्वाचित प्रतिनिधि लोकसेवक ही होते हैं तथा सभी की चिंता के केंद्र में राष्ट्र का उत्थान होना चाहिए. उनकी सलाह समाज के लिए भी है और उन सभी वर्गों के लिए भी, जो राजनीति से संबंधित हैं तथा जनमत बनाने के कार्य से जुड़े हुए हैं.

उन्होंने सटीक बात कही है कि आप सत्ता में हों या विपक्ष में, अहंकार तो मस्तिष्क को भ्रष्ट ही करता है. हमारी संस्कृति में अहंकार-शून्यता को ही सराहनीय माना गया है. यह एक साधना भी है. मात्र बोल देने से तो कोई अहंकार-शून्य नहीं हो जाता. उसके लिए व्यक्ति, विशेषकर जो सार्वजनिक जीवन में है, को अपने भीतर झांकना होगा और अपनी कमियों को सुधारना होगा. मोहन भागवत की सलाह एक चेतावनी भी है. अगर समाज को समरस, समतामूलक और शांतिपूर्ण बनाना है, तो चाहे मणिपुर हो या देश को कोई अन्य हिस्सा हो, हर जगह सकारात्मक प्रयास होने चाहिए. तभी समृद्ध समाज बन सकेगा. आशा है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष संघ प्रमुख की बातों पर ध्यान देंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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