मरीजों के क्लीनिक, अस्पताल या उपचार के लिए एक निर्दिष्ट स्थल तक पहुंचने को ही आम तौर पर स्वास्थ्य सेवा समझा जाता है. हालांकि, हम जब तक अत्यधिक बीमार नहीं हो जाते, अपने आपको पूरी तरह स्वस्थ मानते हैं. इसमें वे लोग भी शामिल हैं, जिन्हें छोटी-मोटी बीमारियों से थोड़ी परेशानी होती है और वे भी जो ऐसी बीमारियों से पीड़ित होते हैं जिनके लक्षण नहीं प्रकट होते, और जो समय के साथ बढ़ती जाती है. केरल और तमिलनाडु में भी, पिछले पांच वर्षों में ऐसे पुरुषों का अनुपात दोगुना हो गया है, जिन्हें मधुमेह है, परंतु वे अपना उपचार नहीं करा रहे. ऐसे रोगियों की संख्या 2015-16 के छह से सात प्रतिशत से 2019-21 में 12 से 14 प्रतिशत पर पहुंच गयी है. इसमें बढ़त जारी है. उत्तरी भारत के कम समृद्ध राज्यों में 60 प्रतिशत से अधिक महिलाएं और बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं.
सौभाग्य से, चिकित्सा के बारे में हमारी बढ़ती समझ के साथ एनीमिया, उच्च रक्तचाप व मधुमेह जैसी गंभीर बीमारियों और कई संक्रामक रोगों का अब कम लागत वाले उपकरणों से निदान और सहज उपलब्ध दवाओं से उपचार करना अपेक्षाकृत आसान हो गया है. अब सुस्पष्ट नियमों और रोगी व चिकित्सक के बीच फोन पर संपर्क रखने से प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यकर्ता यह पता लगाने में मदद कर सकते हैं कि अधिकतर मामलों में किस चीज की जरूरत है. हालांकि, हमारे साथ कुछ गलत हो सकता है, इसे स्वीकार करना और डॉक्टर की सलाह का सही तरीके से पालन करने से इनकार करना एक बड़ी बाधा बनी हुई है. इस समस्या के समाधान के लिए बीते 50 वर्षों में, ईरान जैसे देश और अमेरिका के अलास्का जैसे ग्रामीण राज्य ने प्राथमिक देखभाल प्रदान करने के तरीके को पूरी तरह से बदल दिया है. उन्होंने चिकित्सकों से सहायक की भूमिका निभाने का अनुरोध किया है. उनकी जगह प्रत्येक स्वास्थ्य कार्यकर्ता को एक निर्दिष्ट समूह सौंपा गया है और उनसे समूह के प्रत्येक सदस्य के संपूर्ण स्वास्थ्य और कल्याण की जिम्मेदारी लेने को कहा गया है. दो वर्ष के प्रशिक्षण के बाद सरकार इन कार्यकर्ताओं को सामुदायिकी सेवा के लिए नियुक्त करती है. इसी तरह अलास्कावासी भी सामुदायिक स्वास्थ्य सहायक की पहचान कर उसे प्रशिक्षित करते हैं.
भारत में भी ऐसे संगठन हैं, जिन्होंने इस दृष्टिकोण का उपयोग कर लगातार उच्च स्तर पर बने रहने वाले रक्तचाप को नियंत्रित किया है. इस मॉडल को जिस संगठन ने महाराष्ट्र के सतारा जिले में लागू किया है, उसने समुदाय के साथ काम करते हुए स्थानीय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के एक समूह की पहचान की और उन्हें प्रशिक्षित किया है. प्रत्येक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जिसे परिवारों का एक समूह सौंपा गया है, परिवार के जोखिम स्तर के अनुसार निर्धारित समय पर प्रत्येक घर में जाता है. इन कार्यकर्ताओं ने पाया कि एक समूह में लगभग 1,400 (35 प्रतिशत) लोगों को दूसरे स्टेज का उच्च रक्तचाप है, जिनमें से 100 (2.4 प्रतिशत) की स्थिति गंभीर थी. तैयार किये गये नियमों और डॉक्टर की टीम के साथ मिलकर इन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने जरूरी कदम उठाया. परिणामस्वरूप, दूसरे स्टेज के जोखिम के स्तर में 46 प्रतिशत और गंभीर स्थिति वालों के जोखिम के स्तर में 70 प्रतिशत की कमी आयी है.
यह स्पष्ट होता जा रहा है कि डॉक्टर के साथ क्लीनिक मॉडल को अब प्राथमिक चिकित्सा नहीं माना जा सकता. इसकी बजाय अच्छी प्राथमिक चिकित्सा में पूरी तरह प्रशिक्षित और तकनीकी रूप से सुसज्जित गैर-चिकित्सक शामिल होते हैं, जो आवश्यकता पड़ने पर चिकित्सक से परामर्श करते हैं. ये किसी भी आवश्यक साधनों का उपयोग करने के लिए स्वतंत्र हैं, ताकि उनकी देखभाल के तहत आने वाली जनसंख्या निरोगी बनी रहे. प्रत्येक मामले में चिकित्सीय रूप से क्या करने की आवश्यकता है, यह निर्धारित करना अपेक्षाकृत आसान है, लेकिन वास्तविक चुनौती इसे पूरा करना है. भारत में हाइस्कूल के बाद डिप्लोमा करने वाले युवाओं की कोई कमी नहीं है, जो छोटे आदिवासी समुदायों में भी सेवा करने को इच्छुक हैं. उन्हें प्रशिक्षण देना इन उपलब्ध मानव संसाधनों को पूरे समुदायों के लिए अच्छे स्वास्थ्य और कल्याण के शक्तिशाली प्रतिनिधि में परिवर्तित करने की दिशा में पहला कदम होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)