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भयावह रूप लेता ध्वनि प्रदूषण

परिवेश की ध्वनि जब 'शोर' बन जाती है, तो यह हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगती है. वायु और जल प्रदूषण की तरह ध्वनि प्रदूषण भी एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या बनती जा रही है.

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा हाल में जारी वार्षिक फ्रंटियर्स रिपोर्ट, 2022 के मुताबिक उत्तर प्रदेश का मुरादाबाद बांग्लादेश की राजधानी ढाका के बाद दुनिया का दूसरा सर्वाधिक ध्वनि प्रदूषित शहर है. यह भारतीय शहर दुनिया के उन शीर्ष आठ शहरों में शामिल है, जहां शोर का औसत स्तर 100 डेसिबल से ऊपर पहुंच चुका है. ढाका में दिन के समय शोर का स्तर 119 डेसिबल पहुंच जाता है, जबकि रामगंगा नदी के तट पर अवस्थित मुरादाबाद में इसे 114 डेसिबल दर्ज किया गया है.

इस सूची में कोलकाता और आसनसोल (89 डेसिबल), जयपुर (84 डेसिबल) और दिल्ली (83 डेसिबल) भी शामिल हैं, जहां ध्वनि आवृति विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक से अधिक पायी गयी है. गौरतलब है कि 2018 में जारी अपने दिशानिर्देशों में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिन के समय ध्वनि प्रदूषण के विभिन्न स्रोतों के लिए पृथक मापदंड जारी किये थे.

इसके मुताबिक सड़क यातायात में दिन के समय शोर का स्तर 53 डेसिबल, रेल परिवहन में 54, हवाई जहाज और पवन चक्की चलने के दौरान 45 डेसिबल से अधिक नहीं होना चाहिए. इससे ऊपर का शोर स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक माना जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वायु प्रदूषण के बाद शोर स्वास्थ्य समस्याओं का दूसरा सबसे बड़ा पर्यावरणीय कारक है. जाहिर है, शोर का बढ़ता स्तर खतरे का सूचक है, जिसे अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

बेशक कर्णप्रिय, हल्की और मधुर ध्वनि रोजमर्रा की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण और मूल्यवान हिस्सा है, लेकिन परिवेश की ध्वनि जब ‘शोर’ बन जाती है, तो यह हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगती है. वायु और जल प्रदूषण की तरह ध्वनि प्रदूषण भी एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या बनती जा रही है.

यह एक अदृश्य खतरा है, जिससे बचकर न रहा जाये, तो यह हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य और जीवनशैली को प्रभावित कर सकता है. ध्वनि प्रदूषण को सभी आयु वर्ग और सामाजिक समूहों में एक ‘शीर्ष पर्यावरणीय जोखिम’ और ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य बोझ’ के रूप में देखा जाने लगा है. लंबे समय तक उच्च स्तर के शोर के संपर्क में रहने से मानव का स्वास्थ्य और विकास दोनों प्रभावित होता है.

शोर लोगों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है. अवांछित और अप्रिय शोर हमें परेशान कर सकता है और तनावग्रस्त बना सकता है. इससे नींद में खलल पड़ती है. नींद खराब होने से सेहत प्रभावित होती है. उच्च ध्वनि का श्रवण हमारे सुनने की क्षमता को कमजोर कर बहरेपन की ओर ले जाता है.

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, दुनियाभर में लगभग डेढ़ अरब लोग इस समय कम सुनाई देने की अवस्था के साथ जीवन गुजार रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट दर्शाती है कि 2050 तक दुनिया में हर चार में से एक व्यक्ति यानी लगभग 25 प्रतिशत आबादी किसी न किसी हद तक श्रवण क्षमता में कमी की अवस्था के साथ जी रही होगी. ऐसे में कानों की सुरक्षा भी अहम हो जाती है.

माना जाता है कि 85 डेसिबल या इससे अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी व्यक्ति के कानों को नुकसान पहुंचा सकती है. चिकित्सकों के अनुसार, तेज आवाज के संपर्क में आने से उच्च रक्तचाप, हृदय रोग का खतरा बढ़ सकता है. बच्चों, बूढ़ों और गर्भवती महिलाओं पर इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव होता है. उच्च ध्वनि क्षेत्रों में रहने से याददाश्त में कमी, ध्यान लगाने में परेशानी, पढ़ाई-लिखाई प्रभावित होना भी आम बात है.

जो लोग ऐसे इलाकों में लंबे समय तक रहते हैं, वे पहले की तुलना में अपेक्षाकृत जोर से बोलना शुरू कर देते हैं और उन्हें धीमी आवाज सुनने में भी परेशानी होने लगती है. अपनी आवाज को दूसरों तक पहुंचाने के लिए भी वे अक्सर चिल्ला देते हैं, जिससे उनके शरीर और मन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. ध्वनि प्रदूषण के चलते होने वाली ‘टिनिटस’ एक आम बीमारी है, जिसे कान बजना भी कहा जाता है.

मानव कान अनुश्रव्य (20 हर्ट्ज से कम आवृत्ति) और पराश्रव्य (20 हजार हर्ट्ज से अधिक आवृत्ति) ध्वनि को सुनने में अक्षम होता है, लेकिन लगातार शोर के संपर्क में रहने से मानव कान कमजोर होते जा रहे हैं. इससे कानों में झनझनाहट की शिकायत बढ़ती जा रही है. कानों में लगातार उच्च आवृत्ति बच्चों के कान के पर्दे को कमजोर कर सकता है, जिससे कुछ आवृत्तियों को सुनने में असमर्थता भी शामिल है.

‘द इंडियन जनरल ऑफ पीडियाट्रिक्स’ में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि ध्वनि प्रदूषण भ्रूण, शैशवावस्था और किशोरावस्था सहित विकास के किसी भी चरण में बच्चे की सुनने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है. स्कूल या घर में अवांछित या तेज आवाज बच्चों के लिए सीखने की क्रिया को अधिक चुनौतीपूर्ण बना सकता है. इससे संचार एवं भाषण कौशल के विकास और सर्वांगीण प्रदर्शन पर भी असर पड़ता है.

ऐसे में बच्चों को शांत माहौल उपलब्ध कराना अभिभावकों का प्रमुख कर्तव्य बन जाता है. बहरहाल, ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) अधिनियम, 2000 के तहत शोर उत्पन्न करने वाले उपकरणों का इस्तेमाल, आवाज वाले पटाखा फोड़ने, हॉर्न बजाने और ऊंची आवाज में संगीत गाना और वाद्ययंत्र बजाना प्रतिबंधित है. अगर हम अपने-अपने स्तर पर शोर करना बंद कर दें, तो पूरा परिवेश शांत हो सकता है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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