चिकित्सा तंत्र में नर्सिंग की अवधारणा बहुत पहले से रही है, पर वह आधुनिक समय की तरह व्यवस्थित नहीं थी. ऐसा करने में इंग्लैंड की फ्लोरेंस नाइटेंगल (1820-1910) की अग्रणी भूमिका रही. उन्हीं के जन्मदिन को हम अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस के रूप में मनाते हैं. उन्होंने बड़े समर्पण के साथ यह दिखाया कि नर्सिंग की भूमिका चिकित्सा में कितनी महत्वपूर्ण है. आज यह भूमिका इतनी बड़ी है कि चिकित्सा की वह धुरी बन चुकी है.
नर्स की भूमिका रोग की रोकथाम में है, बीमारी की प्रारंभिक जांच में है तथा उपचार के दौरान समुचित देखभाल में है. कैंसर या गंभीर हृदय रोग जैसी बीमारियों में अक्सर मरीज अस्पताल में भर्ती नहीं होता है, लेकिन उसे निरंतर नर्सिंग की जरूरत होती है. यह काम भी नर्स के जिम्मे होता है. इस प्रकार, उपचार में नर्स का योगदान पहली सीढ़ी से लेकर आखिर तक है. क्या उपचार होगा, क्या दवा दी जायेगी, यह निर्धारित करना नर्स का काम नहीं है.
यह चिकित्सक करता है. उपचार की योजना डॉक्टर बनाता है, लेकिन उसके और रोगी के बीच की कड़ी नर्स होती है. समय पर रोगी दवा ले, उसे इंजेक्शन दिया जाए, खाना दिया जाए, ये सब जिम्मेदारी नर्स की होती है. नर्सिंग प्रक्रिया का संवेदनशील और भावनात्मक पक्ष बहुत महत्वपूर्ण है. जब मरीज का उपचार हो रहा होता है, वह दर्द से गुजरता है, हताश भी हो सकता हो, तब नर्स की भूमिका उसे अपने व्यवहार से आराम देना, समझाना, हौसला देना भी होता है.
इलाज को अधिक से अधिक सहज नर्स ही बनाती है. यह बात पुरुष नर्सों के लिए भी लागू होती है. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नर्स भी एक व्यक्ति है, उसकी व्यक्तिगत समस्याएं हो सकती हैं, पर वह उन सब बातों को परे रखकर मरीज को बेहतर करने में लगी रहती है. नर्स का यह संतुलित व्यवहार निश्चित रूप से बहुत सराहनीय है. चिकित्सा व्यवस्था में डॉक्टर को हीरो माना जाता है, पर नर्सों के योगदान पर हमारा ध्यान कम ही रहता है.
उसकी व्यक्तिगत परेशानियां हैं, उसका वेतन कम है, उसे भी अपने परिवार की चिंता है, पर वह समर्पण और लगन के साथ अपना काम करती है. हमारे देश में उन्हें जो वेतन-भत्ते मिलते हैं और जिन स्थितियों में काम करना पड़ता है, उससे बहुत बेहतर स्थिति अमेरिका, यूरोप, खाड़ी देशों में है. इसी कारण, हमारे यहां से बड़ी संख्या में नर्सों का पलायन होता है. अन्य देशों में उनके काम की खूब सराहना होती है.
नर्सों के कम वेतन और कम महत्व के कारण हमारे देश में इस पेशे के प्रति अधिक आकर्षण नहीं है. ऐसा नहीं है कि लोग इसका प्रशिक्षण नहीं ले रहे हैं, बल्कि अच्छी पृष्ठभूमि के परिवारों से भी लड़के-लड़कियां नर्सिंग की पढ़ाई और प्रशिक्षण कर रहे हैं. लेकिन प्रशिक्षण और थोड़ा अनुभव के लिए वे बेहतर जीवन की आस में विदेशों का रुख कर लेते हैं. इस कारण हमारे देश में नर्सों की कमी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार, हर तीन हजार आबादी पर औसतन तीन नर्स होनी चाहिए.
पर हमारे देश में यह आंकड़ा मात्र 1.7 है. एक आकलन के मुताबिक, अगले साल तक हमें विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के हिसाब से 43 लाख नर्सों की आवश्यकता होगी. ऐसा नहीं है कि हमारे देश में नर्सिंग की पढ़ाई और प्रशिक्षण के संस्थान कम हैं या उनमें छात्र-छात्राएं नहीं हैं. कमी की बड़ी वजह पलायन है.
अगर उन्हें अच्छा वेतन और सम्मान मिले, तो यह समस्या नहीं रहेगी. दूसरी गंभीर समस्या प्रशिक्षण की गुणवत्ता की है. एम्स या अन्य अच्छे संस्थानों में तो पाठ्यक्रम और पढ़ाई की स्थापित प्रक्रिया है, तो वहां से अच्छे नर्स निकलते हैं. लेकिन, देश भर में ऐसे संस्थानों की भरमार है, जो कुछ कमरों में चल रहे हैं. हमें ऐसे संस्थानों पर निगरानी बढ़ानी होगी, जो बिना समुचित संसाधन के चल रहे हैं.
यह भी बहुत जरूरी है कि डॉक्टर और समाज नर्सों को सम्मान से देखें. कई बार डॉक्टर ही उन्हें वह महत्व नहीं देते, जो उन्हें मिलना चाहिए. जो काम नर्स करती है, वह डॉक्टर नहीं कर सकते. उनके पास न तो वह ट्रेनिंग है और न ही उनके पास समय होता है. वेतन के बारे में हम पहले बात कर चुके हैं. ऐसी घटनाएं अक्सर होती हैं, जब रोगी या उसके परिजन हिंसक हो जाते हैं. वैसी स्थिति में सबसे पहले भुक्तभोगी नर्स और पारामेडिक के लोग ही होते हैं.
इस तरह की वारदात को रोकने के लिए हाल के समय में जो नियम-कानून बने हैं, उनमें नर्सों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का बेहतर प्रावधान किया जाना चाहिए. हालांकि पुरुष नर्स भी अच्छी संख्या में आने लगे हैं, पर महिला नर्सों की तादाद अब भी बहुत अधिक है. अक्सर उन्हें समय से अधिक और रात में भी सेवा देनी होती है. जिन नर्सों की ड्यूटी इस तरह की हो, उन्हें अस्पताल और घर के बीच आवागमन के लिए वाहन की व्यवस्था होनी चाहिए. ऐसे प्रयासों से ही नर्स दिवस का औचित्य सिद्ध होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)