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‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मायने

एकसाथ चुनाव के विभिन्न पहलुओं पर बता रहे हैं केसी त्यागी

एक देश, एक चुनाव’ का प्रस्ताव इसलिए तर्कसंगत है कि मौजूदा चुनावी संरचना में कोई न कोई राज्य चुनाव में व्यस्त रहता है. आचार संहिता लागू हो जाने से सरकार और मतदाता दोनों के रोजमर्रा के कार्य प्रभावित होते हैं. इस दौरान न तो कोई नीतिगत घोषणा हो पाती है, न ही उसका क्रियान्वयन. मंत्रियों समेत प्रशासनिक अधिकारियों की चुनावी प्रक्रिया में व्यस्तता से विकास और जनकल्याण के कार्य ठप रहते हैं. बार-बार चुनाव होने से उम्मीदवारों द्वारा वहन किया गया अतिरिक्त खर्च भी देश में काले धन के प्रवाह को गति देता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के मुद्दे पर कार्यरत रहे हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा इसका समर्थन किये जाने के बाद इन प्रयासों को काफी बल मिला. पूर्व राष्ट्रपति डॉ रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का सितंबर 2023 में गठन किया गया, जिसमें अमित शाह, गुलाम नबी आजाद, एनके सिंह, सुभाष कश्यप और हरीश साल्वे जैसे नामचीन लोग शामिल थे. इस समिति ने 14 मार्च, 2024 को 18,626 पृष्ठों की रपट राष्ट्रपति को सौंपी. समिति ने अपनी सिफारिशों के साथ संविधान में अनेक प्रावधान करने का सुझाव भी दिया है. अधिकांश संवैधानिक प्रावधानों के संशोधन के लिए राज्यों के समर्थन की आवश्यकता होगी. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ एक अवधारणा है, जो भारत में संसदीय, राज्य समेत सभी चुनाव एक निश्चित अंतराल पर, आम तौर पर हर पांच साल में, आयोजित करने की वकालत करती है. यह नयी अवधारणा नहीं है, इस पर पहले भी चर्चा होती रही है. वर्ष 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो चुके हैं. वर्ष 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय पूर्व भंग होने से पहली बार एक साथ चुनाव होने का चक्र बाधित हुआ था. चौथी लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गयी थी, जिसकी वजह से 1971 में चुनाव हुए.
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का विचार पहली बार औपचारिक रूप से चुनाव आयोग ने 1983 में अपनी रिपोर्ट में प्रस्तावित किया था. आयोग ने सुझाव दिया था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने से चुनावों की आवृत्ति और संबंधित लागत कम हो सकती है. विधि आयोग ने भी इस मुद्दे पर सुझाव देते हुए अनेक रिपोर्ट प्रस्तुत की है. पिछले दिनों हुई सर्वदलीय बैठक ने इस बहस को फिर गर्म कर दिया है. राष्ट्रपति द्वारा भी 17वीं लोकसभा के पहले संयुक्त सत्र में इस प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार करने की अपील इस विषय पर उनकी और केंद्र सरकार की प्राथमिकता जाहिर करती है. सर्वदलीय बैठक में एक समिति की घोषणा जरूर हुई, लेकिन विमर्श और आम सहमति की राह बनती नहीं दिखी. इसे लेकर विपक्ष भी विभाजित दिखा. कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, टीडीपी और डीएमके समेत 16 दलों का बैठक से दूर रहना इस मुद्दे को पूर्णतया खारिज करने जैसा है, जबकि बैठक में शामिल एनडीए के घटक दलों समेत 21 दलों का समर्थन इस विचार को तेज गति प्रदान करने की पहली सफल कोशिश है. सीपीआइ और सीपीएम ने इसके क्रियान्वयन को लेकर चिंता जाहिर की है, लेकिन वैचारिक रूप से ये एक साथ चुनाव के समर्थन में हैं. किसी भी मुद्दे पर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बहस लोकतंत्र की खूबसूरती है, पर प्रधानमंत्री द्वारा इतने महत्वपूर्ण विषय पर आहूत बैठक से कुछ दलों का दूरी बना लेना लोकतांत्रिक मूल्यों की अवहेलना है.
लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना चुनौतीपूर्ण जरूर है, लेकिन इस पर बिंदुवार विचार कर अमल में लाना देशहित में है. विपक्ष की चिंता है कि मौजूदा सरकार अपने प्रभाव और प्रमुख कार्यक्रमों के जरिये चुनाव प्रभावित करने में कामयाब हो सकती है. ऐसे में स्थानीय मुद्दे गौण हो सकते हैं, लेकिन यह विचार सिर्फ अवधारणाओं तक सीमित है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला था, पर उसके तुरंत बाद कई विधानसभा चुनावों में उसे पराजय मिली. इस बार के लोकसभा चुनाव में लगभग 60 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं. यह राशि देश के राजस्व में बड़ी सेंध लगाती है. राजनीतिक पार्टियों के खर्चे पर कोई लगाम न होने के कारण चुनावी व्यय में निरंतर वृद्धि हो रही है. एक साथ चुनाव से खर्चों में काफी कमी आयेगी. इससे करदाताओं की मोटी रकम का इस्तेमाल विकास कार्यों में हो पायेगा. साल 1951 से 1967 तक सभी चुनाव एक साथ ही हुए थे. वर्ष 1968-69 के दौरान कुछ विधानसभाओं के पांच वर्ष पूरे नहीं हो पाने की स्थिति में यह प्रक्रिया अनियमित हो गयी. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘पंचायत से पार्लियामेंट तक’ के चुनाव साथ कराये जाने के विचार को भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी की पहल मान कर विपक्ष विरोधी स्वर अख्तियार किये हुए है, पर इसे भाजपा या कांग्रेस की पहल के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.
वर्ष 1999 में जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी द्वारा चुनाव सुधार पर अपनी 170वीं रिपोर्ट में ‘एक साथ चुनाव’ कराने की सिफारिश की जा चुकी है. वर्ष 2015 में संसद की स्थायी समिति ने भी इसकी सिफारिश की. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी देश में पूरे साल कोई न कोई चुनाव रहने से सरकार का सामान्य कामकाज प्रभावित होने को लेकर फिक्र जता चुके हैं. ‘एक देश, एक चुनाव’ का प्रस्ताव इसलिए तर्कसंगत है कि मौजूदा चुनावी संरचना में कोई न कोई राज्य चुनाव में व्यस्त रहता है. आचार संहिता लागू हो जाने से सरकार और मतदाता दोनों के रोजमर्रा के कार्य प्रभावित होते हैं. इस दौरान न तो कोई नीतिगत घोषणा हो पाती है, न ही उसका क्रियान्वयन. मंत्रियों समेत प्रशासनिक अधिकारियों की चुनावी प्रक्रिया में व्यस्तता से विकास और जनकल्याण के कार्य ठप रहते हैं. बार-बार चुनाव होने से उम्मीदवारों द्वारा वहन किया गया अतिरिक्त खर्च भी देश में काले धन के प्रवाह को गति देता है. एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, राजनीतिक पार्टियों के कुल चंदे का लगभग 70 से 80 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से प्राप्त होता है.
तमाम अनुशंसाओं के बावजूद एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू करना आसान नहीं है. सबसे व्यावहारिक सवाल यह है कि वर्तमान संसदीय प्रणाली में बहुमत की सरकार यदि अल्पमत में आ जाए, तो विकल्प क्या होगा. इस स्थिति में पुनः चुनाव की कवायद प्रचलन में है. एक साथ चुनाव कराने के लिए भंग लोकसभा या विधानसभा को शेष अवधि तक के लिए स्थगित रखना या फिर बहुमत खो चुकी सरकार का सत्ता में बने रहना भी लोकतांत्रिक जनादेश के लिए अपमानजनक होगा. संविधान के अनुच्छेद 356 के उपयोग तथा उसके बाद की दशा भी चिंता का विषय होगी. संविधान संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी, जो वर्तमान परिदृश्य में चुनौतीपूर्ण है. इस क्रम में कई राज्य सरकारों की कुर्बानी पांच वर्ष से पहले देनी पड़ सकती है. इसलिए प्रस्तावित सिफारिशों के लिए आम सहमति जरूरी है. यह पहल ऐतिहासिक है, इसलिए इसकी दूरगामी चुनौतियों को भी ध्यान में रखना जरूरी है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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