नरेंद्र तनेजा
ऊर्जा विशेषज्ञ
naren.taneja@gmail.com
भारत की अर्थव्यवस्था आज भी तेल पर निर्भर है. हमने सौर ऊर्जा जैसी वैकल्पिक ऊर्जा का विकास किया है, लेकिन आज भी अर्थव्यवस्था में पारंपरिक ऊर्जा या जीवाश्म ईंधन- कोयला, तेल, गैस- की 80 फीसदी हिस्सेदारी है. इसलिये भारत की अर्थव्यवस्था को फॉसिल फ्यूल इकोनॉमी या आम भाषा में तेल की अर्थव्यवस्था कहा जाता है. यही कारण है कि भारत में तेल की कीमत पर सरकार, उद्योगों के साथ मीडिया और आम लोगों की पैनी नजर रहती है, क्योंकि तेल की कीमतों से सरकार की अर्थव्यवस्था से लेकर आम आदमी की अर्थव्यस्था पर भी असर पड़ता है जो तेल, गैस या बिजली लेता है.
और भारत ही नहीं, अमेरिका समेत दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं आज भी तेल की ही अर्थव्यवस्था हैं. इसलिए जब भी ओपेक की बैठक होती है, सारी दुनिया की निगाह उसी ओर चली जाती है. ओपेक 13 बड़े तेल निर्यातक देशों का एक गुट है जिसकी कोशिश रहती है कि कीमतें ऊपर रहें. इसलिए वो अक्सर यह प्रचार करते हैं कि तेल की कमी होने वाली है, तेल महंगा होने वाला है. यदि तेल थोड़ा सस्ता होता भी है, तो वो उत्पादन घटा देते हैं, जिससे जाहिर है कि कीमतें बढ़ जाती हैं.
पिछले दिनों ओपेक ने तेल की कीमतों को गिरने से रोकने के लिए तेल उत्पादन में कटौती का फैसला किया था. दरअसल, जब भी तेल की कीमत 80 डॉलर प्रति बैरल से नीचे जाती है, ओपेक बेचैन हो जाता है. दुनिया के 40 फीसदी तेल का उत्पादन ओपेक देश करते हैं. इनमें यदि रूस और अन्य देशों को जोड़ दें, तो 50 फीसदी उत्पादन ये ओपेक प्लस देश करते हैं, जिसमें ओपेक देशों समेत 23 देश आते हैं. ऐसे में वो तेल के बारे में क्या सोचते हैं, क्या कहते या करते हैं उसकी बड़ी अहमियत होती है.
पिछले दिनों ओपेक प्लस देशों की बैठक हुई मगर उनमें रूस की वजह से सहमति नहीं बन पायी. रूस के ऊपर यूक्रेन युद्ध को लेकर पश्चिमी देशों ने तमाम प्रतिबंध लगा रखे हैं, जिससे कई देशों ने उससे तेल खरीदना बंद कर दिया है. ऐसे में रूस चाहता है कि वह ज्यादा से ज्यादा तेल का उत्पादन करे और नये बाजार ढूंढे जिनमें भारत भी शामिल है. तो रूस अभी उत्पादन में कटौती नहीं करना चाहता. तो बैठक में सहमति नहीं बन पायी और ओपेक जो चाहता था कि तेल की कीमतें वापस 80 डॉलर प्रति बैरल हो जाएं, वह नहीं हो सका.
तो आने वाले कुछ हफ्तों में तेल की कीमतें बहुत ऊपर चली जायेंगी, ऐसा नहीं होगा, क्योंकि रूस तो उत्पादन नहीं ही घटायेगा, सऊदी अरब भी कहने के बावजूद उत्पादन कम नहीं करेगा. दरअसल, सऊदी अरब और रूस बाजार में अपनी हिस्सेदारी, यानी किन देशों को वे कितना तेल निर्यात करते हैं, उस पर वे समझौता नहीं करना चाहते.
भारत अपनी जरूरत का 86 फीसदी तेल आयात करता है. छप्पन फीसदी गैस और घरों में जरूरी एलपीजी गैस का भी बड़ा हिस्सा आयात किया जाता है. इसके अलावा, कोयले का बड़ा भंडार होने के बावजूद भारत में 10 से 20 फीसदी कोयले का आयात होता है. भारत में जो 14 फीसदी तेल उत्पादन होता है, जो सरकारी कंपनी ओएनजीसी करती हो या वेदांता जैसी निजी कंपनियां, उन्हें भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में वही कीमत मिलती है जो अंतरराष्ट्रीय दर होती है.
रूस पहले भारत को दो फीसदी तेल भी नहीं बेचता था, आज भारत का 40 फीसदी से भी ज्यादा तेल रूस से आ रहा है. इसे लेकर ओपेक देशों, और खास तौर पर सऊदी अरब में बड़ी बेचैनी है. उन्हें लग रहा है कि भारत अगर रूस से ज्यादा तेल ले रहा है, तो इसका मतलब है कि सऊदी अरब, इराक और कुवैत से तेल लेना कम हो गया है.
तेल की कीमतों के हिसाब से यूक्रेन युद्ध एक टर्निंग प्वाइंट था. पहले ओपेक और रूस मिलकर काम करते थे, जब मर्जी हो अपने हिसाब से कीमतें बढ़ा देते थे, अपने हिसाब से हेरफेर कर लेते थे. मगर यूक्रेन युद्ध के बाद तस्वीर बदल गयी. पहले तो तेल की कीमतें ऊपर गयीं, मगर अब वो नीचे आ रही हैं. अभी भारत, चीन और तुर्किये भारी मात्रा में रूस से कच्चा तेल खरीद रहे हैं. यानी रूस पर प्रतिबंध के बावजूद तेल की आपूर्ति के सिस्टम पर कोई असर नहीं पड़ा.
वह भारत, चीन और तुर्कीये तथा मोरक्को जैसे कुछ अन्य देशों के माध्यम से जा रहा है. यानी सिस्टम में पर्याप्त तेल है, और कोविड महामारी के बाद से मांग में कोई बहुत वृद्धि नहीं हुई है. आज अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत कम है, तो उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत और चीन लगातार रूस से कच्चा तेल खरीद रहे हैं.
प्रतिबंधों के बावजूद रूस का तेल अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में पहुंच रहा है. रूस का तेल के बाजार में रहना और मांग में बढ़ोतरी नहीं हो पाना- ये वो दो बड़े कारण हैं, जिनसे ओपेक की कोशिशों के बावजूद कच्चे तेल की कीमत आज उस दर पर हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए कोई बहुत बड़ा सिरदर्द नहीं है.
जहां तक रूस से भारत को मिलने वाले तेल का प्रश्न है, तो भारत पहले रूस से बहुत कम तेल इसलिए लेता था क्योंकि रूस से भारत तेल आने में समय बहुत लगता है. सऊदी अरब का तेल जहाज के रास्ते तीन से चार दिन में भारत पहुंच जाता है. मगर यही तेल यदि रूस से लाना हो तो 23 से 27 दिन लगते हैं. इससे शिपिंग कॉस्ट ज्यादा होता था. साथ ही, उसके बीमा का भी खर्च ज्यादा होता था. इसलिए नजदीक के खाड़ी देशों से तेल खरीदता था.
मगर यूक्रेन युद्ध के बाद जब रूस पर प्रतिबंध लगा, तो रूस ने सस्ते दर पर भारत को तेल बेचने की पेशकश की. ऐसे में भारत की सरकारी और निजी ऑयल रिफाइनरियों ने रूस से भारी मात्रा में तेल लेना शुरू किया. रूस से आने वाले तेल की गुणवत्ता भी अच्छी है और उसकी कीमत भी कम है. लेकिन, यह ध्यान रखना जरूरी है कि रूस से जो तेल खरीदने की व्यवस्था है वह दीर्घकालीन अनुबंध नहीं है.
वहीं, सऊदी अरब, इराक, कुवैत जैसे देशों से लिया जाने वाला तेल लंबे अनुबंध के तहत आता है, कभी छह महीने का, कभी एक वर्ष का, तो कभी उससे भी ज्यादा. तो वे अनुबंध भी जारी रहेंगे, क्योंकि ये संरक्षित होते हैं, जिसमें वो तेल बेचने से मना नहीं कर सकते. तो तेल की आपूर्ति को लेकर कोई अनिश्चितता नहीं रहती. भारत की कोशिश संतुलन बनाकर रखने की है, कि वह एक तरफ रूस से सस्ता तेल लेता रहे जिससे देश की अर्थव्यवस्था को और महंगाई को नियंत्रित रखने में मदद मिलती है. दूसरी तरफ, पारंपरिक तेल विक्रेता देशों के साथ भी संबंध बरकरार रखे क्योंकि उनसे भारत के लंबी अवधि के करार हैं.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)