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राष्ट्रीय राजनीति का रुख धुंधला रहा

राष्ट्रीय राजनीति का रुख धुंधला रहा

योगेंद्र यादव

अध्यक्ष स्वराज इंडिया

चुनाव का परिणाम आया, लेकिन जनादेश नहीं मिला. कौन कहां जीता, यह तो पता लग गया, लेकिन क्या जीता, यह समझ में नहीं आया. अलग-अलग जाति और वर्ग ने तो अपनी पसंद बता दी, लेकिन बिहार की पसंद सुनाई नहीं दी. मुख्यमंत्री तो मिल ही जायेगा, लेकिन कोई जननायक नहीं उभरा है. समस्याओं की शिनाख्त तो हुई, लेकिन किसी समाधान पर भरोसा नहीं टिका. प्रदेश का रुझान तो दिखा, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति का रुख धुंधला ही रह गया.

कोरोना महामारी के बाद हुए इस पहले बड़े चुनाव से उम्मीद थी कि राष्ट्रीय राजनीति के लिए कोई बड़ा संकेत मिलेगा. बेशक यह उम्मीद गलत थी. बिहार अब पूरे देश को छोड़िए, उत्तर भारत की राजनीति का आईना भी नहीं बचा. राज्यों की राजनीति से अब राष्ट्रीय राजनीति का तापमान जांचने का तरीका नहीं बचा. उपचुनाव सामान्यतः सत्तारूढ़ दल के पक्ष में ही जाते हैं. अगर वह हार जाए, तभी खबर बनती है.

फिर भी ज्यों-ज्यों चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ा, वैसे-वैसे यह उम्मीद बनी कि स्थानीय समीकरणों, जाति समुदाय के बंधनों और गठबंधन के जाल से छनकर कहीं भविष्य की राजनीति की रोशनी दिखाई देगी. मगर ऐसा नहीं हुआ. अधर में लटके इस चुनाव परिणाम से सरकार चाहे जिसकी बने, जनादेश का दावा कोई नहीं कर सकता है.

चुनावी तराजू के दोनों पालों में बाट रखे थे, दोनों तरफ काट थी. बेशक नीतीश कुमार से और उनकी सरकार से मतदाताओं का मोह भंग हुआ है. लेकिन यह निराशा उस गुस्से में नहीं बदली, जैसा लालू प्रसाद यादव की तीसरी सरकार के अंत में बिहार में उभरकर सामने आया था. बेशक तेजस्वी यादव के प्रति आकर्षण बढ़ा था, खास तौर पर युवाओं के बीच.

लेकिन यह आकर्षण विश्वास में नहीं बदल पाया, राजद के ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ वाले राज की याद को मिटा नहीं पाया. बेशक बेरोजगारी का सवाल एक बड़े मुद्दे की तरह उठा, लेकिन 10 लाख नौकरियों का जादुई वादा अधिकांश वोटर को बांध नहीं पाया. बेशक महागठबंधन के पक्ष में यादव और मुस्लिम समुदाय का ध्रुवीकरण हुआ, लेकिन बीजेपी के अगड़े वोट बैंक और नीतीश के अति पिछड़े वोट से उसकी भरपाई हो गयी.

बेशक वामदलों के समर्थन से महागठबंधन को मजबूती मिली है, खास तौर पर भोजपुर और मगध के इलाके में, लेकिन कांग्रेस के ढीलेपन ने इस नफे को शून्य कर दिया. बेशक चिराग पासवान ने जदयू को नुकसान पहुंचाया है, लेकिन उधर ओवैसी की पार्टी एमआइएम ने भी राजद के वोट काटे हैं.

जब एकतरफा हवा नहीं होती है, तो चुनावी समीकरण के छोटे-मोटे हेरफेर से जीत और हार का फैसला हो जाता है. अंततः यही बिहार में हुआ. अब तक यही सूचना है कि एनडीए और महागठबंधन के वोटों में एक से दो प्रतिशत का ही फासला है. नशाबंदी के चलते महिलाओं का वोट नीतीश कुमार के पक्ष में झुका और महिलाओं ने सामान्य से अधिक मतदान भी किया.

इससे एनडीए को तकरीबन दो फीसदी वोट का फायदा हुआ, जो शायद निर्णायक साबित हुआ. उधर कांग्रेस को 70 सीट देना और वीआइपी को गठबंधन से बाहर जाने देना भी भारी साबित हुआ. उधर चिराग पासवान खुद सीट जीतने में सफल नहीं रहे, लेकिन उनका छह प्रतिशत वोट नीतीश कुमार को बड़ा धक्का दे गया. कोरोना महामारी के कुप्रबंधन, अर्थव्यवस्था के संकट और चीन द्वारा हमारे इलाके पर कब्जे के बावजूद बीजेपी बिहार के चुनाव में अपनी स्थिति मजबूत करती है, तो यह विपक्ष के निकम्मेपन की मिसाल है.

बिहार के प्रवासी मजदूर द्वारा पलायन की दर्दनाक कहानियों और उसमें राज्य सरकार की शर्मनाक भूमिका के बावजूद अगर एनडीए सरकार वापस सत्ता में आती है, तो यह मुख्यधारा की राजनीति में विकल्पहीनता का परिणाम ही कहा जायेगा. विपक्ष को जनता के बीच अपने वादे और नेतृत्व में विश्वास पैदा करना होगा.

संदेश बीजेपी और उसके सहयोगियों के लिए भी है. बिहार में सरकार भले ही वह बना ले, लेकिन जनादेश उसे प्राप्त नहीं हुआ है. पिछले साल लोकसभा चुनाव की तुलना में उसके वोट और सीट दोनों में भारी घाटा हुआ है. वोटर को ना तो राम मंदिर में दिलचस्पी थी, ना ही धारा 370 में या फिर सुशांत सिंह राजपूत की मौत के राजनीतिकरण में. अब वह जमाना नहीं रहा कि मोदी की जादू की छड़ी से किसी भी राज्य में बीजेपी चुनाव जीत जाए.

बिहार में किसानों का असंतोष बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया क्योंकि वहां कृषि मंडी व्यवस्था पहले से ध्वस्त है, उसे कुछ खोने का कोई डर नहीं है. लेकिन बीजेपी के नेता जानते हैं कि बाकी देश में उन्हें इस गुस्से का भी सामना करना पड़ेगा. राष्ट्रीय राजनीति का संदेश एक दूसरी ओर इशारा करता है. अगर आज के परिणाम से राष्ट्रीय राजनीति पर नरेंद्र मोदी की पकड़ मजबूत नहीं हुई है, तो वह ढीली भी नहीं पड़ी है.

कांग्रेस का हल्कापन एक बार फिर जाहिर हुआ है. अगर देश के सबसे गरीब इलाके में वामपंथी पार्टियों की ताकत बढ़ना एक शुभ संकेत है, तो एमआइएम का उभरना खतरे की घंटी भी है. वैसे भी दिल्ली, हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव से स्पष्ट हो चुका है कि राज्यों में छोटी-बड़ी हार से राष्ट्रीय राजनीति पर बहुत असर नहीं पड़ता. राष्ट्रीय राजनीति में बीजेपी और नरेंद्र मोदी का विकल्प ढूंढने की चुनौती अब भी ज्यों की त्यों है.

आज के चुनाव परिणाम हमें एक बड़ा और पीड़ादायक सवाल पूछने पर मजबूर करते हैं: क्या देश में लोकतंत्र के लिए गहराते संकट का मुकाबला संसदीय राजनीति के चुनावी मैदान में होगा या कि लोकतंत्र की रक्षा का धर्मयुद्ध जन आंदोलनों की राजनीति के जरिये सड़क पर लड़ा जायेगा?

posted by : sameer oraon

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