राशिद किदवई
राजनीतिक विश्लेषक
हार चुनाव और उपचुनाव में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन को लेकर कपिल सिब्बल द्वारा की गयी टिप्पणी कांग्रेस की अंदरूनी रस्साकशी का हिस्सा है़ कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व को लेकर प्रश्नचिह्न लगा हुआ है कि क्या राहुल गांधी स्वेच्छा से पूर्णकालिक अध्यक्ष बनेंगे? क्या वे अपने किसी विश्वासपात्र को कांगेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में खड़ा करेंगे?
विरोधी खेमे की यही मंशा है कि राहुल अपनी जगह अपने किसी विश्वासपात्र को खड़ा करें, तो उन्हें चुनौती दी जाए, क्योंकि यदि राहुल खुद चुनाव लड़ते हैं, तो उन्हें हराना मुश्किल होगा़ कांग्रेस के अंदर जो असंतुष्ट हैं, वे राहुल और सोनिया गांधी को चोट पहुंचाने का एक मौका ढूंढ रहे है़ं उसी के तहत चिट्ठी और इंटरव्यू के माध्यम से कांग्रेस की आलोचना की जा रही है़ जहां तक बिहार चुनाव की बात है,
तो इसमें कांग्रेस की भूमिका बहुत बड़ी नहीं थी़ दरअसल, बिहार चुनाव की आड़ में असंतुष्टों को कांग्रेस पर हमला करने का बहाना मिल गया है और इसी की आड़ में कांग्रेस नेतृत्व पर प्रश्न उठाया जा रहा है़ असल में बिहार चुनाव को लेकर असंतुष्ट कांग्रेसियों या विरोधियों का आकलन था कि बिहार में महागठबंधन की जीत होते ही राहुल गांधी को तुरंत पार्टी अध्यक्ष बनाये जाने की कवायद शुरू हो जायेगी.
कांग्रेस के संविधान के अनुच्छेद 18 के अनुसार, पार्टी की राज्य इकाई के 10 सदस्य मिल कर किसी को भी अध्यक्ष पद के लिए मनोनीत कर सकते है़ं ऐसे में यदि कोई असंतुष्ट अपनी तरफ से अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने की ठान ले या किसी कद्दावर नेता को खड़ा कर दे, तो यहां राहुल गांधी के लिए समस्या हो जायेगी़.
राहुल गांधी को उसे दावेदार मानना होगा या उस चुनौती को स्वीकार कर चुनाव लड़ना होगा या फिर उन्हें अपनी तरफ से किसी उम्मीदवार को खड़ा करना होगा़ ऐसा होने से कांग्रेस में भी नयी शक्ति का संचार होगा़ इसी वर्ष अगस्त में 23 लोगों ने कांग्रेस नेतृत्व को लेकर जब चिट्ठी लिखी थी,
तो उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति का पुनर्गठन किया और उसमें से छह-सात असंतुष्टों को, जिनमें गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक, जितिन प्रसाद, आनंद शर्मा आदि शामिल थे, उनको कार्यसमिति में जगह दी़ इस कदम से असंतुष्ट गतिविधियों पर एक छोटा विराम लग गया था़, लेकिन एक बार फिर से यह सब शुरू हो गया है़
असंतुष्टों को लेकर यह देखना महत्वपूर्ण है कि वे कांग्रेस की मूलभूत संरचना में बदलाव चाहते हैं या फिर कांग्रेस की सत्ता की राजनीति में भागीदार बनना चाह रहे हैं. इस तरह का अंतर्द्वंद्व कांग्रेस के भीतर चल रहा है़ कांग्रेस के भीतर असंतुष्टों का होना कोई समस्या नहीं है, बल्कि ऐसा होने से पार्टी को ताकत मिलती है़ यहां प्रश्न है कि जो लोग असंतुष्ट हैं, उनकी मंशा क्या है, उनके मुद्दे क्या है़ं
कहीं उनकी मंशा और मुद्दा एक व्यक्ति विशेष के विरुद्ध तो नहीं है, क्या वे कांग्रेस नेतृत्व के लिए एक नया चेहरा चाह रहे हैं? प्रश्न यह भी है, अगर राहुल गांधी या नेहरू-गांधी परिवार का कोई अन्य सदस्य कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं बनता है और कोई पार्टी सदस्य अध्यक्ष बनता है, तो क्या बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल या पुद्दुचेरी के चुनाव में कांग्रेस जनता को आकर्षित कर पायेगी? क्या संगठन मजबूत होगा?
जहां तक संगठन के मजबूत होने की बात है, तो भाजपा का संगठन तो बहुत सालों से मजबूत था, लेकिन उत्तर प्रदेश में कभी भी उसे तीन चौथाई बहुमत नहीं मिला़, लेकिन नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व, देश की राजनीति में उनकी पकड़, कश्मीर समस्या के समाधान के लिए धारा 370 को खत्म करना इन सबका उत्तर प्रदेश के चुनाव में काफी प्रभाव पड़ा़ आस्था और राजनीति का जिस तरह से अघोषित मिश्रण हुआ है, उसका भी भाजपा को काफी लाभ मिल रहा है़ कांग्रेस के लिए यह सब करना थोड़ा मुश्किल है, हालांकि राहुल गांधी ने थोड़ी कोशिश की है़
कांग्रेस की समस्या महज नेतृत्व तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे कहीं ज्यादा गंभीर है और मुद्दों से भी जुड़ी हुई है़ एक राष्ट्रीय पार्टी हाेने के नाते कांग्रेस के पास इस तरह की बहुत-सी समस्याएं हैं, जो भाजपा के पास नहीं है़ं इन सब वजहाें से भी कांग्रेस का ग्राफ नीचे जा रहा है़ राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और नरेंद्र मोदी व अमित शाह की जोड़ी की काट के लिए कांग्रेस को अपने बहुत से वैचारिक प्रश्नों का उत्तर ढूंढना होगा़
केवल चेहरा बदल जाने से कांग्रेस की समस्या का समाधान नहीं होनेवाला़ राहुल गांधी का रिकॉर्ड इतना बुरा भी नहीं है, जितना उसे प्रचारित किया जा रहा है़ इसे ऐसे देखना होगा. गुजरात चुनाव लगभग बराबरी पर खत्म हुआ़ झारखंड में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा, गठबंधन की जीत हुई़ इसी तरह महाराष्ट्र में भी वह गठबंधन के साथ सत्ता में भागीदार है़
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस की सरकार है और मध्य प्रदेश में भी सरकार बन गयी थी़ असल में लोगों में एक धारणा बन गयी है कि जब तक राहुल गांधी रहेंगे, तब तक कांग्रेस राजनीतिक रूप से पूर्व की तरह ऊंचाई प्राप्त नहीं कर पायेगी़
ऐसे में लोगों को लग रहा है कि कांग्रेस की वंशवादी राजनीति के पटाक्षेप का समय अब आ गया है़ ऐसा सोचने वालों में भी दो तरह के लोग हैं, एक वे, जो दिल से ऐसा चाहते हैं और इसके पीछे उनकी मंशा कांग्रेस की बेहतरी ही है़ वहीं दूसरी तरफ वैसे लोग हैं, जो राजनीति से प्रेरित हैं.
एक आकलन यह भी हो सकता है कि जब कभी नरेंद्र मोदी और भाजपा सेे मतदाताओं का मोहभंग होगा, तो वे कांग्रेस की ओर देखेंगे़ एक सच यह भी है कि कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार सूत्रधार के रूप में काम करता है और उसकी देशभर में राजनीतिक साख है़ जब चुनाव प्रचार की बात आती है, तो कांग्रेस के उम्मीदवार नेहरू-गांधी परिवार को ही प्रचार के लिए बुलाते हैं और उनको लोग सुनने भी आते है़ं इनके अलावा, अन्य भारी-भरकम नेताओं की कोई पूछ नहीं होती है़
यह दर्शाता है कि कांग्रेस राजनीतिक रूप से नेहरू-गांधी परिवार पर बहुत ज्यादा आश्रित है़ मेरी समझ से जो असंतुष्ट हैं, वो कहीं न कहीं खुलापन और भागीदारी चाह रहे है़ं सोनिया गांधी और अहमद पटेल का स्वास्थ्य ठीक नहीं होना भी बिहार चुनाव और उपचुनाव में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन नहीं करने का एक कारण है़ पूरी कांग्रेस में आत्मिवश्वास की कमी है़ कांग्रेस को अपना मनोबल वापस प्राप्त करने की जरूरत है़
posted by : sameer oraon