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नेपाल में लोकतंत्र व साम्यवाद का अंतर्द्वंद्व

नेपाल में साम्यवाद चीन से कम, भारत की छाया में ज्यादा बढ़ा है. सभी बड़े नेताओं की राजनीतिक दीक्षा भारत में हुई है.

प्रो सतीश कुमार

राजनीति विभाग

इग्नू, नयी दिल्ली

delhi@prabhatkhabar.in

नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद की बहाली का आदेश सुकून दे सकता है, लेकिन प्रश्न लोकतंत्र और साम्यवाद के बीच अंतर्द्वंद्व का है. शीर्ष न्यायालय ने 13 दिन के भीतर बहाल संसद का सत्र बुलाने का आदेश दिया है. ओली सरकार की सिफारिश पर 20 दिसंबर को राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने संसद भंग कर 30 अप्रैल और 10 मई को दो चरणों में चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी. अपनी कम्युनिस्ट पार्टी में संकट झेल रहे प्रधानमंत्री केपी ओली से ऐसी उम्मीद किसी को नहीं थी.

इस फैसले का पार्टी में उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी पुष्प कमल दहल प्रचंड ने भारी विरोध किया था. ओली सरकार के फैसले के खिलाफ अदालत में 13 याचिकाएं दायर हुई थीं. इनमें सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य सचेतक देव प्रसाद गुरुंग की याचिका भी थी.

प्रधानमंत्री केपी ओली अपनी ही पार्टी में विरोध का सामना कर रहे थे. उन पर एकतरफा तरीके से पार्टी और सरकार चलाने के आरोप लग रहे थे. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) के 2018 में एकीकरण के बाद केपी ओली को प्रधानमंत्री चुना गया था. सीपीएन (माओवादी) के नेता प्रचंड एकीकृत पार्टी के सह-अध्यक्ष बने थे, लेकिन बाद में पार्टी में सत्ता संघर्ष शुरू हो गया. ऐसे में भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद होने पर भी प्रचंड और झालानाथ खनल जैसे पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने केपी ओली के फैसलों पर सवाल उठाये थे.

संविधान विशेषज्ञों के मुताबिक नेपाल के नये संविधान में सदन भंग करने को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है तथा प्रधानमंत्री के कदम को असंवैधानिक मानते हुए अदालत में चुनौती दी जा सकती है. नेपाल में पहले की राजनीतिक अस्थिरताओं के चलते संसद भंग करने का प्रावधान नहीं रखा गया था, ताकि स्थायित्व बना रहे. जानकार कहते हैं कि ओली राष्ट्रवाद की भावना के सहारे राजनीतिक परिस्थिति से निबटने की कोशिश कर रहे हैं.

इसी कारण उनकी कैबिनेट ने कुछ समय पहले नेपाल का नया राजनीतिक नक्शा जारी किया, जिसमें लिंपियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया. ऐसा कर उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों- प्रचंड और माधव कुमार नेपाल को अपना साथ देने के लिए मजबूर करने की कोशिश की.

क्या यह बात बार-बार प्रमाणित नहीं होती है कि नेपाल में साम्यवादी अपनी बुनियादी उसूलों से अलग होकर लोकतंत्र की नींव रखने की जुगत में दशकों से लगे रहे? एक विचारधारा, जो आर्थिक व्यवस्था के आईने में बनी और जिसका सीधा अर्थ होता था- हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति एक राजनीतिक व्यवस्था द्वारा की जायेगी, लेकिन दुनिया में कहीं भी और कभी भी ऐसा हुआ नहीं, यहां तक कि बोल्शेविक क्रांति के उपरांत रूस में भी नहीं.

सच यह है कि साम्यवाद एक धार्मिक तंत्र की तरह चलता है, जिसमें विवेक कम और उन्माद ज्यादा होता है. धार्मिक संगठन की तरह उसके ग्रंथ भी हैं, मसलन कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो. उसके गॉडफादर मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माओ हैं. यह भी सच है कि अमीबा की तरह उसके अलग-अलग खंड होते रहते हैं. ऐसा किसी भी साम्यवादी व्यवस्था में देखा जा सकता है. फिर भी यह व्यवस्था सांप की तरह रेंगते हुए लैटिन अमेरिका और एशिया के अनेक देशों में फैलती गयी, लेकिन हर जगह उसका अंत दुनिया ने देखा, लेकिन घोर आश्चर्य का विषय बना कि साम्यवाद नेपाल में अपनी पैठ बनाने में सफल कैसे हुआ और 2007 से 2021 तक नेपाल की राजनीति का मुख्य केंद्र बना रहा.

नेपाल में साम्यवाद चीन से कम, भारत की छाया में ज्यादा बढ़ा है. सभी बड़े नेताओं की राजनीतिक दीक्षा भारत में हुई है. नेपाल मूलतः एक हिंदू देश रहा है और उसकी पहचान भी सांस्कृतिक रूप से हिंदू रीति-रिवाजों से जुड़ी रही है. राजशाही के दौरान प्रचंड और ओली समेत अनेक नेता जेल में बंद थे. वहां की गरीबी सबसे बड़ी मुसीबत थी. आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से भारत केंद्रित थी. सेना महज राजा की सुरक्षा तक सिमटी हुई थी. राष्ट्र राज्य के लिए सेना की जो भूमिका होती है, वह नेपाल में कभी बनी नहीं. नेपाल की अपनी कोई राजनीतिक सोच भी नहीं बनी.

अगर देखा जाए, तो नेपाल में साम्यवाद का प्रसार भी बिहार के नक्सलवाद से जुड़ा हुआ था. जिस समय नक्सलबाड़ी बिहार में अपना मजबूत केंद्र बना चुकी थी, उसी समय से नेपाल के चंद नेता राजशाही के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध में संलग्न थे, लेकिन यह समझने में भूल नहीं होनी चाहिए कि यह राजनीतिक सोच केवल गरीबी के कारण से नेपाल में बनी हुई है.

जहां दुनियाभर में साम्यवाद अपनी बुनियादी अंतर्द्वंद्व की वजह से खत्म हुआ, वह नेपाल में जिंदा कैसे है? भारत में भी यह हाशिये पर है. इसका उत्तर खोजना बहुत मुश्किल नहीं है. किसी-न-किसी रूप में चीन के शी जिनपिंग की कोशिशों ने ही साम्यवाद को जीवित रखा है. साल 2007 से लेकर 2015 के बीच नेपाल से साम्यवाद खत्म हो गया होता, क्योंकि वहां की जनता ने जनक्रांति के बाद प्रचंड के घोर स्वार्थ और बेतहाशा भ्रष्ट आचरण को देख और समझ लिया था. अब यह देखना है कि नेपाली राजनीति का स्वरूप आगामी दिनों में क्या होता है?

Posted By : Sameer Oraon

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