विपक्ष के अपना गठबंधन बना लेने के पीछे यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की एक बड़ी भूमिका है. उन्होंने पर्दे के पीछे से सक्रिय भूमिका निभायी. वह पटना में पिछले महीने हुए विपक्ष के सम्मेलन में नहीं आयी थीं, लेकिन बेंगलुरु बैठक में शामिल हुईं. दरअसल, जब भी राजनीतिक दलों की ऐसी एकजुटता की कोशिश होती है, तो एक ऐसे किरदार की तलाश होती है, जो खुद किसी पद का उम्मीदवार न हो और जो सबको जोड़ने का काम कर सके.
इस काम में एनसीपी नेता शरद पवार भी निपुण हैं, मगर उनकी अपनी पार्टी में उठा-पटक चल रही है, और साथ ही उनकी अतीत की राजनीति को देखते हुए माना जाता है कि वे दो नावों पर सवारी करने वाले नेता हैं. वहीं, बतौर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी का विपक्ष में बहुत सम्मान है. उसी वजह से वह यह भूमिका निभाने के लिए तैयार हुईं. हालांकि, उनके लिए यह फैसला आसान नहीं था. और इसका कारण केवल उनकी सेहत ही नहीं, बल्कि राजनीतिक भी है.
दरअसल, सोनिया गांधी चाहती थीं कि गठबंधन में सबको जोड़ने की भूमिका राहुल गांधी निभायें. मगर, विपक्ष के नेताओं के साथ राहुल गांधी का वैसा संवाद और तालमेल नहीं है. ऐसे में, सोनिया गांधी ने पर्दे के पीछे से भूमिका निभाते हुए एक साथ बहुत सारे राजनीतिक दलों को एक मंच पर खड़ा किया. अब इसके बाद 11 सदस्यों की एक समन्वय समिति बनाने की चर्चा चल रही है, जो पूरे देश में संयोजन का काम करेगी.
विपक्ष के कई नेताओं की ऐसी राय है कि सोनिया गांधी को पर्दे के पीछे से नहीं, बल्कि सामने आकर गठबंधन के अध्यक्ष की कमान थामनी चाहिए. लेकिन सोनिया गांधी की एक व्यक्तिगत दुविधा है कि यदि वह ऐसी किसी समिति की अध्यक्षा बनती हैं तो उसमें राहुल गांधी के लिए भूमिका नहीं बचेगी. लेकिन, सोनिया गांधी के पास बजाय कमान संभालने के दूसरा कोई विकल्प नहीं है. अगर इंडिया गठबंधन को कारगर होना है तो सोनिया गांधी को सक्रिय होना ही पड़ेगा.
इस बैठक में कांग्रेस ने एक और बड़प्पन का काम किया. गठबंधन का नाम इंडिया रखने का विचार कांग्रेस का ही था, लेकिन उन्होंने उसका सारा श्रेय ममता बनर्जी को दिया. ऐसी बातों का अपना अलग महत्व होता है. सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे इस तरह के कदमों से दूसरे छोटे दलों को आगे बढ़ा रहे हैं ताकि तालमेल में स्थिरता हो और किसी तरह का मतभेद या मनभेद ना हो. विपक्षी दलों ने इस दिशा में भी पिछले एक महीने में बड़ी उपलब्धि हासिल की है.
राजनीति में जब भी राजनीतिक दलों के बीच संवाद होता है, तो उसमें या तो बातें आगे बढ़ती हैं, या उनके संबंधों को झटका लगता है. इस लिहाज से, ऐसे माहौल के बीच, जहां विपक्षी एकता को कमजोर करने के लिए पूरी कोशिश की जा रही है, विपक्ष के लिए आपसी मनमुटाव को कम कर आगे की ओर बढ़ना एक बड़ी उपलब्धि है.
ममता बनर्जी का सौहार्दपूर्ण माहौल में हिस्सा लेना और उनको इंडिया नाम का श्रेय देना ऐसा ही एक उदाहरण है. इसी प्रकार, संसद के मानसून सत्र में दिल्ली में शासन संबंधी अध्यादेश का मामला जोर-शोर से उठेगा. कांग्रेस का समर्थन मिलने से आम आदमी पार्टी को राहत भी मिली है और विपक्षी एकता की कोशिशों को बल भी मिला है. इस मामले में अब गेंद सरकार के पाले में आ गयी है.
इस तरह के ऐसे कई और मामले हैं जिनमें सत्ताधारी दल और विपक्ष के बीच शह-मात का खेल चल रहा है. इनमें महाराष्ट्र में शिव सेना विधायकों की अयोग्यता का मामला भी शामिल है, जिस पर स्पीकर को 10 अगस्त तक फैसला लेना है. अभी आने वाले समय में ऐसे कई और घटनाक्रम सामने आयेंगे. विपक्षी दलों के गठबंधन का इतिहास देखा जाए, तो उनकी एकता चुनाव के थोड़ा पहले या चुनाव के बाद नजर आती है.
जैसे, इमरजेंसी के समय दो-तीन महीने के भीतर कई सारे राजनीतिक दल एकजुट हुए और लोकदल के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा. इसी तरह से, सोनिया गांधी के नेतृत्व में जो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या यूपीए बना, वह 2004 के चुनाव के बाद गठित हुआ था. ऐसे ही 1996 में भी जो संयुक्त मोर्चा गठबंधन बना था, वह बहुत तेजी से जोड़-तोड़ कर बनाया गया था. इस बार भी चुनाव के आस-पास घटनाएं बदलेंगी और चुनाव में अभी समय है. इसी प्रकार से अभी विपक्ष की एकजुटता के रास्ते में चुनौतियां आयेंगी, लेकिन अभी ऐसा लग रहा है कि चीजें बिखराव की ओर नहीं जा रही हैं.
हालांकि, विपक्ष के सामने अभी बहुत अड़चनें हैं. जैसे, अभी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव होने हैं. उन चुनावों में गैर-कांग्रेसी दल जैसे आम आदमी पार्टी या समाजवादी पार्टी जैसे दल भी हिस्सा लेना चाहते हैं. तो ऐसे में यदि दूसरे दल कांग्रेस के साथ प्रतियोगिता करते हैं तो इससे विपक्षी एकता के लिए अड़चन पैदा हो सकती है.
विपक्ष के लिए अभी सबसे महत्वपूर्ण है कि वह बिहार और महाराष्ट्र में अपने गठबंधन को अटूट रखे. महाराष्ट्र में यदि एनसीपी, कांग्रेस और शिव सेना का उद्धव गुट चुनाव तक एकजुट रहे, तो इसका नतीजों पर असर पड़ सकता है. वैसे ही, बिहार में आरजेडी, जेडीयू, कांग्रेस और उनके सहयोगी दल इकट्ठा रहे तो एनडीए के लिए समस्याएं हो सकती हैं, क्योंकि ये दोनों ही बड़े राज्य हैं.
विपक्ष की एकता की कोशिशों की एक और बड़ी उपलब्धि सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या एनडीए का पुनर्गठन होना है. प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी संसद में और संसद के बाहर बड़े पुरजोर तरीके से कहते रहे हैं कि केवल एक व्यक्ति नरेंद्र मोदी सब पर भारी हैं. प्रधानमंत्री ने खुद भी यह कहा है. यह ठीक वैसी ही बात है, जो इंदिरा गांधी के जमाने में कही जाती थी.
लेकिन, यदि नरेंद्र मोदी सब पर भारी हैं, तो ये 38 पार्टियों को फिर से क्यों जोड़ा गया है. और यह उसी दिन हुआ जिस दिन विपक्ष बेंगलुरु में बैठक कर रहा था. वहां प्रधानमंत्री अपने भाषण में एकदम अलग अंदाज में बातें करते दिखे. उन्होंने सबको साथ लेकर चलने की बात की और चिराग पासवान को गले लगाया. यह बताता है कि यदि विपक्ष में घबराहट और चिंता है, तो सत्ताधारी दल में भी वैसा आत्मविश्वास नहीं है. उन्होंने 38 दलों को जुटाकर दिखाने की कोशिश की कि एनडीए बड़ा है. यहां प्रश्न उठता है कि यदि बीजेपी को लगता है कि एक व्यक्ति ही काफी है, तो यह सब क्यों किया जा रहा है.
(बातचीत पर आधारित)
(ये लेखक के निजी विचार हैं)