ब्रिटेन के पहले भारतवंशी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की सरकार ने एक ऐसा कदम उठाया है, जिससे न केवल ब्रिटेन में पढ़ने जाने वाले भारतीय छात्र और भारत सरकार, बल्कि ब्रितानी शिक्षा संस्थान, छात्र और अध्यापक संगठन, अर्थशास्त्री और अधिकतर नेता भी नाखुश हुए हैं. तमाम प्रयत्नों के बावजूद आप्रवासियों की अनियंत्रित संख्या पर काबू पाने के लिए गृहमंत्री सुएला ब्रावरमन ने अगले साल से विदेशी स्नातकोत्तर छात्रों के आश्रित परिवारों यानी पति या पत्नी और बच्चों के वीजा बंद करने का फैसला किया है.
शोध छात्रों और शोधपरक स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों के छात्रों के परिवारों को वीजा मिलते रहेंगे. भारत से हर साल लगभग 1.40 लाख छात्र पढ़ने के लिए ब्रिटेन जाते हैं. इनमें से एक लाख से अधिक स्नातकोत्तर और शोध के पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेते हैं. स्नातक पाठ्यक्रमों के छात्रों के परिवारों के लिए वीजा का प्रावधान पहले से ही नहीं है. वीजा बंद करने का नियम एक साल से कम अवधि के लिए पढ़ने आने वाले छात्रों के परिवारों पर भी लागू नहीं होगा.
पढ़ाई के दौरान नौकरी मिलने पर पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने पर भी पाबंदी लगायी जा रही है. पर अच्छी बात यह है कि तमाम अटकलबाजियों के बावजूद पढ़ाई के बाद दो साल तक ब्रिटेन में रहकर काम करने के वीजा प्रावधान को सुरक्षित रखा गया है, जो पढ़ाई के लिए ब्रिटेन आने का एक प्रमुख आकर्षण है.
ब्रितानी शिक्षा संस्थानों में हर साल लगभग सात लाख से अधिक विदेशी छात्र आते हैं, जिनमें सबसे बड़ी संख्या भारतीयों की है. लेकिन छात्रों के परिवारों के लिए वीजा लेने के मामले में नाइजीरिया भारत से भी आगे है. इसलिए अगले साल से परिवार वीजा बंद होने के बाद भारत और नाइजीरिया के छात्रों को ब्रितानी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेने से पहले सोचना होगा. गोवा मूल की गृहमंत्री ब्रावरमन का कहना है कि पिछले चार वर्षों में छात्रों के आश्रित परिवारों के वीजा पर आने वालों की संख्या में सात गुना बढ़ोतरी हुई है, जिससे आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव पड़ता है.
पिछले साल 1.35 लाख से अधिक लोग आश्रित परिवारों के वीजा पर आये थे. नागरिक सेवाएं और अर्थव्यवस्था इतना बड़ा बोझ झेलने में सक्षम नहीं हैं. लेकिन परिवार वीजा बंद होने से छात्र ब्रिटेन जाने पर पुनर्विचार के लिए बाध्य होंगे और यह पुनर्विचार ब्रिटेन को महंगा पड़ सकता है.
लंदन की आर्थिक सलाहकार संस्था ‘लंदन इकोनॉमिक्स’ की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि पढ़ाई के लिए ब्रिटेन आने वाले छात्रों की बढ़ती संख्या से ब्रितानी अर्थव्यवस्था को मिलने वाले लाभ में एक तिहाई उछाल आया है और वह लगभग 4.20 लाख करोड़ रुपये हो गया है. पिछले चार वर्षों में गैर यूरोपीय देशों से ब्रिटेन आने वाले छात्रों की संख्या में 68 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. रिपोर्ट के अनुसार, विदेशी छात्रों की वजह से ब्रिटेन के हर संसदीय क्षेत्र को लगभग 5,800 करोड़ रुपये और हर ब्रितानी नागरिक को लगभग 56,000 रुपये का लाभ मिल रहा है.
विदेशी छात्र न केवल ब्रितानी छात्रों से डेढ़ से दोगुना फीस देकर शिक्षा संस्थाओं का बजट चला रहे हैं, बल्कि वे और उनके परिवार पैसा खर्च कर स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी योगदान करते हैं. ‘लंदन इकोनॉमिक्स’ के आर्थिक विश्लेषक डॉ गैवन कॉनलन ने बताया है कि विदेशी छात्र ब्रितानी अर्थव्यवस्था से जितना लेते हैं, उससे लगभग दस गुना डालते हैं. इसलिए विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा संस्थाओं के संगठनों का कहना है कि हमें गर्व होना चाहिए कि हम इतनी बड़ी तादाद में विदेशी छात्रों को आकर्षित करते हैं. हमें उनके योगदान को स्वीकार करना और उसे महत्व देना चाहिए.
ब्रितानी विश्वविद्यालयों के संगठन यूयूके ने वीजा पाबंदियों की निंदा करते हुए कहा है कि इनसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिभा को आकर्षित करने की ब्रितानी साख को धक्का लगेगा. संगठन का कहना है कि सरकार को छात्रों के परिवारों को निशाना बनाने के बजाय फर्जीवाड़ा चलाने वाले एजेंटों की धरपकड़ करनी चाहिए, जो शिक्षा की आड़ में आप्रवासन का धंधा करते हैं. लंदन के प्रतिष्ठित स्कूल ऑफ ऑरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज के निदेशक एडम हबीब ने कहा कि यह फैसला मानवाधिकारों के विरुद्ध है और इससे महिला छात्रों को विशेष असुविधा होगी.
विश्वविद्यालयों में आर्थिक संकट भी आ सकता है. छात्र संगठनों और प्राध्यापक संगठनों ने भी पाबंदी की निंदा की है. शिक्षा विभाग से लेकर, वित्त, पर्यटन, व्यापार और वाणिज्य तक सरकार के लगभग सारे विभाग इसके खिलाफ हैं. ऊपर से सुनक सरकार भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौता करना चाहती है, जिसके लिए भारत की शर्त है कि भारतीय छात्रों, पेशेवरों और कारोबारियों के आवागमन को खोला जाए. ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए ब्रितानी मुक्त व्यापार समझौते में ऑस्ट्रेलिया के छात्रों और पेशेवरों के आवागमन को खोल दिया गया है.
अब सवाल उठता है कि सरकार की ऐसी कौन सी मजबूरी थी, जिसकी वजह से यह फैसला लिया गया है. प्रेक्षकों का मानना है कि ऋषि सुनक की सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी के आप्रवासन विरोधी दक्षिणपंथी धड़े के दबाव में और आप्रवासियों की संख्या घटाने के वादे को जैसे-तैसे पूरा करने के लिए ऐसा किया गया है.
मुक्त व्यापार समझौता वार्ताओं में ब्रिटेन का प्रतिनिधित्व करने वाली व्यापार मंत्री कैमी बैडनोक का कहना है कि भारत की बड़ी आबादी को देखते हुए उसके छात्रों और पेशेवरों के आवागमन पर ऑस्ट्रेलिया के साथ हुए समझौते जैसी छूट नहीं दी जा सकती. हर देश के साथ पारस्परिक परिस्थितियों के आधार पर समझौते होते हैं. लेकिन ब्रिटेन चाहे, तो छात्रों की गिनती आप्रवासियों में करना बंद कर सकता है.
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के छात्रों को आप्रवासियों में नहीं गिनते क्योंकि छात्र नियत समय के लिए आते हैं और नौकरी लग जाने वालों को छोड़कर बाकी पढ़ाई खत्म कर लौट जाते हैं. ब्रिटेन भी यही नीति अपना ले, तो उनकी बढ़ती संख्या को लेकर राजनीतिक विवाद नहीं होगा.
पर प्रधानमंत्री सुनक की राजनीतिक मुश्किल यह है कि भारतवंशी होने के कारण वे आप्रवासन जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भारत के लिए नरमी बरतते दिखाई नहीं देना चाहते. खैर, ये सब तो व्यापार समझौते के लेन-देन की बातें हैं, पर भारत को भी यह सोचना शुरू करना चाहिए कि आखिर कब तक वह अपने छात्रों के जरिये ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों की अर्थव्यवस्था में लाखों-करोड़ों का योगदान करता रहेगा. क्या उसे देश में शिक्षा की सुविधाएं और गुणवत्ता बढ़ाकर बाहर जाती छात्र शक्ति और पूंजी का प्रयोग अपने विकास में नहीं करना चाहिए?
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)