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मुख्य प्राथमिकताओं पर ध्यान दे नयी सरकार

रोजगार बढ़ाने के लिए अग्निवीर कार्यक्रम की अवधि को तीन या चार वर्ष और बढ़ाना चाहिए. अधिकारियों के लिए शॉर्ट सर्विस कमीशन की अवधि दस वर्ष है,

प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के तीसरी बार शपथ ग्रहण के साथ नयी सरकार का गठन हो गया है. उनकी पार्टी पहले की तरह भले ही लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं हासिल कर सकी, पर वह अभी भी सबसे बड़ी पार्टी है. भारत के राजनीतिक इतिहास में अधिकतर सरकारें गठबंधन की ही रही हैं. इस लिहाज से दस साल बाद भारत की राजनीति उसी अवस्था में लौट रही है, जो सामान्य ऐतिहासिक पैटर्न रहा है. ऐसे देश के लिए यह अचरज की बात नहीं होनी चाहिए, जहां हर संभव आयाम में अद्भुत विविधता दिखती है. ऐसे में लोकसभा का चुनाव एक चुनाव नहीं, बल्कि 543 अलग-अलग चुनाव है. यह चुनाव मुख्य रूप से स्थानीय मुद्दों पर ही लड़ा जाता है. निश्चित रूप से, कभी-कभी किसी करिश्माई या ताकतवर व्यक्तित्व के कारण राष्ट्रीय लहर भी होती है, पर अक्सर हार-जीत अन्य कारणों से कहीं अधिक स्थानीय मुद्दों से तय होती है.

राष्ट्रीय सरकार का उत्तरदायित्व राज्य सरकारों से भिन्न होता है, जैसा कि संविधान की सातवीं अनुसूची में उल्लिखित है. समय के साथ-साथ केंद्र सरकार का राज्य सरकारों के क्षेत्राधिकार में ‘अतिक्रमण’ बढ़ता गया है. ऐसा अक्सर विकास प्रक्रियाओं को मजबूत करने या उनकी रफ्तार बढ़ाने के लिए हुआ है. इसीलिए केंद्र सरकार द्वारा पारित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 जैसी पहलें खाद्य सुरक्षा, भूख और पोषण जैसे मामलों से संबंधित हैं, जो मुख्य रूप से राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. यही बात राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी, शिक्षा का अधिकार, आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा आदि के बारे में लागू होती है. ऐसे कई उदाहरण हैं. इस तरह के राष्ट्रीय नीतिगत हस्तक्षेप का उद्देश्य राज्यों के लिए पूरक होना या उन्हें मजबूत करना होता है, न कि उन्हें कमजोर करना. लेकिन राष्ट्रीय स्तर की पहलों में ‘एक समान’ दृष्टि के तत्व होते हैं, जिनमें क्षेत्रीय अंतरों को ढांप देने की प्रवृत्ति होती है.

इस पृष्ठभूमि में हम आकलन करें कि नयी सरकार की मुख्य प्राथमिकताएं क्या हैं और उनके लिए क्या कदम उठाये जा सकते हैं. सबसे अहम मुद्दा रोजगार और जीवनयापन का है. इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट तथा अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि बेरोजगारों में 83 प्रतिशत की आयु 29 साल से कम है. युवा बेरोजगारी का समाधान उच्च प्राथमिकता है. यह चुनौती दो कारकों के चलते और गंभीर हुई है. पहला कारक ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का खतरा है, जिससे वर्तमान रोजगार विकल्प खत्म हो सकते हैं. मैकिंजी की एक रिपोर्ट के अनुसार, इन तकनीकों से देश के लगभग 70 प्रतिशत मैन्युफैक्चरिंग रोजगारों पर जोखिम है. दूसरा कारक कौशल का व्यापक अभाव है. हमारे यहां रोजगार की कमी भी है और कौशल की भी. हमें ऐसे कौशलों और प्रशिक्षण कार्यक्रमों की जरूरत है, जो युवाओं को भविष्य के रोजगार के लिए तैयार करे, जो शायद अभी उपलब्ध नहीं हैं.

कौशल और मानवीय पूंजी का सबसे अधिक विकास काम करते हुए होता है. इसलिए सरकार एक उपाय यह कर सकती है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रशिक्षु कार्यक्रम शुरू हों. यह छह से नौ माह का रोजगार होगा और रोजगार देने वाले को यह बाध्यता नहीं होगी कि वह प्रशिक्षु को ‘स्थायी’ रोजगार दे. प्रशिक्षु के प्रमाणपत्र पर एक राष्ट्रीय प्राधिकरण की मुहर हो और इसकी स्वीकार्यता पूरे देश में हो. ऐसी नीतियां और कार्यक्रम कई राज्यों में लागू हैं, पर उन्हें रचनात्मक रूप से राष्ट्रीय स्तर पर चलाने की कोशिश होनी चाहिए. रोजगार बढ़ाने के लिए अग्निवीर कार्यक्रम की अवधि को तीन या चार वर्ष और बढ़ाना चाहिए. अधिकारियों के लिए शॉर्ट सर्विस कमीशन की अवधि दस वर्ष है, इसलिए दूसरे तरह की सेवाओं, जैसे अग्निवीर, में इसे लागू करना तर्कसंगत है. अनुभव, प्रशिक्षण और अनुशासन में वृद्धि से निजी क्षेत्र में उनके लिए रोजगार की संभावनाएं बढ़ जायेंगी.

दूसरा अहम क्षेत्र है छोटे उद्यमों का. देश में सात करोड़ उद्यमों के होने का आकलन है, जिनमें से हर एक में एक से लेकर दस-बीस लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इन्हें उद्यम पंजीकरण और वस्तु एवं सेवा नेटवर्क के दायरे में लाकर संगठित क्षेत्र का हिस्सा बनाया जा सकता है. छोटे कारोबार के सामने चार मुख्य चुनौतियां हैं- ऋण और आवश्यक पूंजी तक पहुंच, बाजार तक पहुंच, तकनीक तक पहुंच तथा वित्तीय एवं कराधान साक्षरता. पहली चुनौती के लिए उनके उद्यम पंजीकरण को जीएसटी नेटवर्क से जोड़ा जा सकता है ताकि उन्हें 45 दिन के भीतर भुगतान मिल जाए, जैसा 2006 के मझोले, छोटे एवं सूक्ष्म उद्यम कानून में प्रावधान है. असलियत में छोटे आपूर्तिकर्ता अपने बड़े ग्राहकों के दबाव में होते हैं, जिनके विरुद्ध वे कुछ नहीं कर पाते क्योंकि अक्सर वही एकमात्र और नियमित ग्राहक होता है.

इसलिए हम भुगतान अनुशासन के लिए डिजिटल तकनीक का इस्तेमाल कर सकते हैं. देर से होने वाले भुगतान की अनुमानित राशि 10 लाख करोड़ रुपये है. यदि केंद्र सरकार कानूनी प्रावधानों को लागू करे और समुचित तंत्र बनाये, तो छोटे उद्यमों का बहुत भला हो जायेगा. ई-कॉमर्स और ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स जैसी पहलों से बाजार तक पहुंच को सुनिश्चित किया जा सकता है. छोटे उद्यमों के लिए पूंजी उपलब्धता को परस्पर लेन-देन से बेहतर किया जा सकता है. साथ ही, इसके लिए स्थानीय साझा स्वामित्व की अनुमति दी जा सकती है. इस संबंध में विवरण संबद्ध विभागों के पास हैं, जरूरत है लागू करने की कोशिश की. तकनीकी मदद के लिए सरकार मुफ्त सुपर एप के विकास को प्रायोजित कर सकती है, जो कराधान से लेकर कारोबार के विभिन्न पहलुओं का ध्यान रखें. जिस प्रकार डिजिटल कैशलेस भुगतान के लिए भीम एप है, उसी तरह छोटे उद्यमों के लिए भी सरकार द्वारा निशुल्क वितरित एक तकनीकी उत्पाद होना चाहिए.

तीसरा सुझाव किसानों तथा निश्चित मूल्य से संबंधित है. समय आ गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाया जाए. अभी 22 फसलों के लिए यह मूल्य तभी लागू होता है, जब बाजार मूल्य निर्धारित मूल्य से नीचे चले जाते हैं. आंकड़ों के हिसाब से ऐसा लगभग आधे समय होता रहता है. इसलिए वास्तविक वित्तीय भार उतना नहीं है, जितनी आशंका जतायी जाती है. साथ ही, जब सरकार खरीद करती है, तो दाम बढ़ने लगते हैं, जिससे न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की जरूरत नहीं रह जाती. इससे संबंधित कानून मुख्यतः एक राजनीतिक निर्णय है, पर इससे किसानों का भरोसा हासिल होगा. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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